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दशम श्लोक, प्रवचन

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यहाँ अगला श्लोक कहते हैं..... सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिंस्तवे तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च सङ्कीर्तनात् । सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः सिद्ध्येतत्पुनरष्धा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ।।१०।।                इस स्तोत्र में शुरू से अन्त तक आपको बताया गया कि एक सत्ता है, वह प्रकाश रूपा है । आपका ही मूलस्वरूप है । आप सर्वात्मा हैं  । हमने कई बार बता दिया कि घड़े का जो प्रतिबिम्ब रूप सूर्य है वह अपने स्वरूप में पहुंचेगा तो सभी घड़ो में अपने को देखेगा । इस स्तोत्र में आपका सर्वात्म रूप प्रकट किया गया है । "सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतम्" इसलिये इसमें आपका सर्वात्म रूप स्पष्ट कर दिया  गया है । विलक्षण एवं कृपापूर्ण शब्दों के द्वारा एक तत्त्व को बुद्धि में प्रतिष्ठित किया गया है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । सारा जगत दर्पण के समान दिखने वाले नगर के समान मिथ्या है । इसलिए "तेनास्य श्रवणात्" जो इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करेगा ।      ...

नवम श्लोक, प्रवचन

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               हम लोग दक्षिणामूर्ति स्तोत्र के विषय में पिछले कई दिनों से विचार कर रहे हैं । आज उसका अन्तिम दिन है । दो श्लोक शेष हैं.... भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमा- नित्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् । नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।९।।                  कल बात आयी थी कि "माया परिभ्रामितः पुरुषः विश्वं पश्यति" । वस्तुतः यह जो जगत दिखाई दे रहा है, मायिक दृष्टि से दिखाई दे रहा है । जब स्वप्न का जग दिखाई देता है तब आपके ये नेत्र तो बंद रहते हैं, तो किसी न किसी नेत्र से दिखाई देता होगा कि नहीं ? वहां भी शब्द अलग सुनाई पड़ता है, रूप अलग दिखाई देता है, स्पर्श का अनुभव अलग होता है । ये इन्द्रिय गोलक तो काम कर नहीं रहे । तब शंका होती है कि स्वप्न में पदार्थ का ज्ञान कराने वाली इन्द्रियां कल्पित हैं या वास्तविक ? पर उनस...

अष्टम श्लोक, प्रवचन

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विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसंबन्धतः शिष्याचार्यतया तथैव पितॄपुत्राद्यात्मना भेदतः । स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामित- स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।८।।                 "य एष पुरूषो" यः कौन है ? वही सृष्टि के आदि में जो है, वह आपका स्वरूप है । "एष" कौन है ? एष यही है इस परिच्छेद को लेकर के "य एष" वही यही है, दूसरा नहीं । जिसने अपने स्वातंत्र्य से अपने स्वरूप पर अनन्त सृष्टि प्रकट किया है, वही यह है, वही आप हैं दूसरा नहीं । कहते हैं वही हम हैं फिर बंधन काहे का हो गया ? इसमें कहीं बन्धन आयेगा ?  "सो माया बस भयउ गुसाईं" गोस्वामी जी कहते हैं-- वो है तो गुसाईं, है तो स्वामी सबका । वह तो ईश्वर है, ईश्वर का अंश ईश्वर है । पर माया बस भयउ, माया के बस में हो गया । उसकी इच्छा खेलने की हुई तो माया उससे खेलाने लगी । खेलो जब तक तुम्हारी इच्छा है तब तक खेलाऊंगी तुमको । अनन्त जन्म से माया खेला रही है । जब खेलना बंद करना चाहेगा तब माया की हिम्मत नहीं है इसको खेलान...