चतुर्थ श्लोक, प्रवचन

नानाछिद्रघटोदरस्थिमहादीपप्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तञ्जगत्,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।४।।

                  कहा, यहां क्या प्रक्रिया होती है ? इसका थोड़ा विचार करें । जैसे एक बहुत बड़ा घड़ा है, उसमें बहुत से छेद हैं और हमने एक प्रकाश उसके अन्दर रख दिया । वह प्रकाश उन उन छेदों के द्वारा बाहर जा रहा है । पर वह अलग अलग संकुचित दिखाई दे रहा है । है एक ही, वह दो नहीं है, पर बाहर से कितना प्रकाश मालूम होता है ? इस छिद्र का प्रकाश, इस छिद्र का प्रकाश, इस छिद्र का प्रकाश एक ही प्रकाश है । यहाँ पर क्या है ? यह जो हमारी बुद्धि है यह आत्म प्रकाश को गृहीत करती है, इससे बुद्धि प्रकाश रूप दिखती है दीप के समान । बुद्धि में भी दो भाग हैं एक ज्ञान भाग है, एक क्रिया भाग है ज्ञान भाग को लेकर के उस प्रकाश का नाम जिस प्रकाश को बुद्धि ग्रहीत कर रही है ज्ञाता कहा जाता है । बुद्धि में प्रतिफलित प्रकाश आत्मप्रकाश है, स्वरूप का प्रकाश है, पर बुद्धि में प्रतिफलित हुआ, बुद्धि में प्रतिफलित होने पर ज्ञाता, कर्ता उसकी संज्ञा हुई । फिर ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय छिद्रों में यह प्रकाश व्याप्त होता है और इसके द्वारा भिन्न भिन्न ज्ञान होता है एक छिद्र से जाता है तो एक प्रकार (रूपादि) का ज्ञान होता है ।जैसा छिद्र बना है उसी प्रकार का ज्ञान करेगा ।दूसरा नहीं करेगा ।

                   जैसे आप देखते हैं एक प्रकाश है, इधर आप फिल्म रख देते हैं, इधर से प्रकाश फेंकते हैं, जैसा वहां चिह्न बना है वैसी वहां आकृति दिखाई देगी । दूसरे प्रकाश की आकृति नहीं दिखाई देगी । पर आकृति में कौन दिख रहा है ? वह प्रकाश ही उस आकृति के रूप में दिखाई दे रहा है । वह एक ही प्रकार भिन्न भिन्न आकृति के रूप में दिखाई देता है ।दूसरी चीज जो पर्दे पर है ही नहीं, प्रकाश ही है । पर वह प्रकाश सम क्यों नहीं दिखाई देता है ? उस प्रकाश को बाहर निकलने के लिए जो माध्यम है वह माध्यम विषम है । माध्यम विषम होने के कारण वह प्रकाश भिन्न भिन्न दिखाई देता है । दिखाई देता प्रकाश ही है दूसरा नहीं दिखाई देता । इसी प्रकार बुद्धि में जो प्रतिफलित ज्ञान है---आत्मप्रकाश, वही इन्द्रियों के माध्यम से अलग अलग प्रकाश अलग अलग विषयों को प्रकाशित करता है । जैसे विद्युत बल्ब रूपी यंत्र से प्रकाश कर रही है और पंखे रूपी यंत्र से क्रिया कर रही है  । टेपरिकॉर्डर के साथ वही विद्युत संबंधित होने पर शब्द हो रहा है । वही लाउडस्पीकर से संबंधित होकर आपके पास शब्द पहुंचा रही है । विद्युत एक ही है दो नहीं । इसी प्रकार वह एक ही ज्ञान, एक ही शक्ति है । बुद्धि में प्रतिफलित चेतना है । वही विभिन्न प्रकार के यंत्रों के माध्यम से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का ज्ञान करा रही । अनंत प्रकार का बोध कराने में हेतु वही है इसी को कहा--- “नानाछिद्रघटोदरस्थित"-- जिसमें बहुत छिद्र बने हुए हैं । ऐसा एक बहुत बड़ा घड़ा है उसके उदर में स्थित है--- महादीपक, बड़ा भारी दीपक । उसी दीपक की प्रभा चारों तरफ से जा रही है । इसी प्रकार “यस्य ज्ञानं" जिस आत्मा का, जिस परमेश्वर का ज्ञान चक्षुरादि करणों द्वारा स्पंदित है, वह बुद्धि में पहले प्रतिफलित होता है । फिर चक्षुरादि करणो द्वारा बाहर शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि अनेक विभिन्नताओं को प्रकाशित करता है । इसलिए स्वतः घटपटादि प्रकाशित नहीं हो रहे हैं । ये आत्मप्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं । सूर्य भी आत्म प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है । जड़ (सूर्यादि) प्रकाश की जरूरत इसलिये पड़ती है कि नेत्र रूपी गोलक हैं उसको जड़ प्रकाश की जरूरत है । श्रोत्र रूपी गोलक को दिशा की जरूरत है, पर इसकी जरूरत होने पर सूर्य भी प्रकाशित नहीं कर रहा है । सूर्य भी उसी प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है । उस प्रकाश के बिना सूर्य भी प्रकाशित नहीं होता । जैसे सूर्य जब उदय होता है तो सारी प्रवृत्ति आरंभ हो जाती है, तो प्रवृत्ति का हेतु हुआ सूर्य प्रकाश । इसी प्रकार बुद्धि में आत्मज्ञान प्रतिफलित होता है तो करणा आदि की सारी प्रवृत्ति का हेतु बन जाता है । इसी प्रकार-- बहिः स्पन्दते ।

                अब दूसरी बात ध्यान दीजिये-- यह जगत स्वयं प्रकाशित कभी नहीं होता । अनुभव में भी नहीं । क्यों ? जब आप कहता हैं घटमहं जानामि-- मैं घट को जानता हूँ । तो इसका अर्थ क्या है ? जानने वाला ज्ञानकर्ता पहले सिद्ध हो गया कि नहीं ? पहले जानने वाला सिद्ध है कि जो जाना जा रहा पहले वह सिद्ध है ? पहले “मैं" सिद्ध है कि पहले “यह" यह सिद्ध है ? बात विचारणीय है । “मैं" पूर्व सिद्ध है । “मैं" के बिना यह की सिद्वि कभी नहीं हो सकती । “मैं" पूर्व सिद्ध है “यह पश्चात सिद्ध है जो जाना जा रहा है वह माया कल्पित है वह कैसे सिद्ध होगा ?वह जानने वाले आप से सिद्ध हो रहा है ।आपकी सिद्धि के बिना जगत की सिद्धि कभी नहीं हो सकती । परम सिद्धि आत्मा है-- इससे बड़ा सिद्ध और कोई नहीं । लोग सिद्धि की खोज करते हैं पर आपके स्वरूप से बढ़कर सिद्धि और कोई नहीं । उसी में तो लोग सिद्ध हो रहे हैं, सारा का सारा जगत सिद्ध हो रहा है ‘जानामि' पर विचार करना चाहिए जानामि में दो भाग दिखाई दे रहे हैं । एक जानने वाला, दूसरा जो जाना जा रहा है । एक क्षेत्रज्ञ और एक क्षेत्र है । एक “मैं" और एक “यह"  इस प्रकार का विभाग दिखाई दे रहा है । उसमें “मैं" कौन है ? यह वही है जिसको श्रुति ने 'तत्सृट्वा तदेवानुप्राविशत्' कहा है ।

                 श्रीभगवान ने गीता के तेरहवें अध्याय में दो श्लोकों में यह बात बहुत स्पष्ट करी दी है । कहा कि-- “इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रम्" यह शरीर क्षेत्र है । खेत तो तुम नहीं जानते हो ? शरीर कैसे हो सकते हो ? इदं जो है वह क्षेत्र है, इदं माने यह । जो भी यह हो सकता है वह क्षेत्र है । “यह" को जानने वाला-- जानामि, ‘यह' को जानने वाले का नाम क्षेत्रज्ञ है । तुम क्षेत्रज्ञ और रह क्षेत्र है । अब दोखो शरीर भी जाना जा रहा है यह भी यह हो गया । मन भी जाना जा रहा है-- आप कहते हो मेरा मन आज बहुत चञ्चल है । यदि आपने मन को जाना नहीं तो कैसे कह दिया मेरा मन चंचल है ? वहां भी 'जानामि' चला जाता है । कहा--आज हमारी बुद्धि डगमग हो गई, बहुत विचार करके गया पर बुद्धि डगमगा गई बुद्धि को किसने जाना ? वहां भी ‘जानामि' आ गया । यह जानने वाला अलग ही रह जाता है । जो भी जाना जाता है उससे जानने वाला अलग ही हो गया ।अब दो ही विभाग हो गये । एक ‘मैं' और एक ‘यह' । एक जानने वाला और एक जो जाना जा रहा है ।

                अब प्रश्न यह है कि जब दो ही विभाग विश्व में कर दिये गए तो प्रत्येक शरीर में जानने वाला अलग अलग है या ऐक ही है ? दूसरा-- ईश्वर को आप कहाँ रखोगे आप ? जगत तो यह बन जायेगा, अब ईश्वर को ‘यह' में रखोगे या 'मैं' में रखोगे ? दो ही विभाग हुए क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तो ईश्वर को कहाँ रखोगे ? उत्तर में भगवान ने कहा-- “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत" जीव ही खतम हो गया । ईश्वर कहा है सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ । जैसे यह कहें सभी घड़ों का सूर्य मैं ही हूँ । अब ईश्वर से अतिरिक्त क्षेत्रज्ञ तो रहा नहीं, अर्थात सभी का स्वरूप ईश्वर ही हुआ । अब ‘मैं' और ‘यह' विभाग अभी रह गया, पर मैं का स्वरूप ईश्वर हो गया, मैं का स्वरूप अब परिछिन्न नहीं रहा फिर भी जीव को बीच में परिछिन्नता की भ्रान्ति पता नहीं कहाँ से हो गई ?  ईश्वर कहता है कि सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं ही हूँ, जानने वाला मैं ही हूँ, दूसरा जानने वाला कहाँ से आ गया ? जानने वाला तो दूसरा है ही नहीं, मैं ही हूँ । अब ‘यह' और ‘मैं' फिर रह गया । यहाँ पर विचार करके देखें ‘मैं' पूर्व सिद्ध है ‘यह' पश्चात सिद्ध है । बिना ‘मैं' की सिद्धि के ‘यह' की सिद्धि नहीं हो सकती । इसलिये ‘यह' ‘मैं' में कल्पित है । क्योंकि उसकी सिद्धि 'मैं' के बिना नहीं है और ‘मैं' में जो यह का विरोधीपन मालूम हो रहा है वह भी कल्पित है, क्योंकि अब यह रहा ही नहीं, ‘मैं' में कल्पित हुआ तो ‘यह' का विरोधीपन जो मालूम हो रहा है ‘मैं' में यह कल्पित है ।इसी को कहा गया है “क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम ।"

              ये क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग जिस प्रकाश में दिखाई दे रहे हैं वही आधार है उसका, वही ब्रह्म है, वही शंकर है । यहाँ देखो वही है । यहाँ देखो बुद्धि में प्रतिफलन हुआ, उसी से ज्ञाता और कर्ता हुआ । इन्द्रियों के माध्यम से वही प्रकाश अनंत रूपों में प्रकाशित हो रहा है । यह निर्धारित कर दिया । जानामि---यह देखिए । आपका स्वरूप पहले अभिव्यक्त है । हम लक्षित नहीं करते । एक महात्मा हैं । वृद्ध हैं । एक सभा में उन्हें अध्याक्ष बना दिया । शाम का समय था । बोलने वाले तो समय का ध्यान नहीं रखते । दस बज गये थे ।अध्यक्ष की बारी सबके अन्त में आती है । अब लोग उठकर के जाने लगे । तो उन्होंने कहा कि भाई ! जाने वाले जल्दी चले जायें क्योंकि मुझे तो कुछ बोलना नहीं है । मुझे तो खाली ब्रह्म का साक्षात्कार कराना है । जो लोग जा रहे थे वो लौट आये । महात्मा जी ने कहा देखो ! क्या दिख रहा है आपको ? कहा-- चश्मा दिख रहा है । कहा-- चश्मा से अतिरिक्त कुछ दिख रहा है ? कहा आपका हाथ दिख रहा है । कहा और कुछ दिख रहा है ? प्रकाश देखे बिना, प्रकाश का साक्षात्कार किये बिना चश्मा दिख रहा है ? नहीं...! चश्मा प्रकाश से दिख रहा है । तुमको लग रहा है कि चश्मा दिख रहा है । अरे प्रकाश को देखे बिना चश्मा कैसे देख लोगो ? अर्थात पहले प्रकाश देखोगे, पश्चात चश्मा । इसी प्रकार बिना आत्मप्रकाश के सूर्य भी नहीं दिखता है, चन्द्रमा भी नहीं दिख सकता । कुछ भी नहीं दिख सकता है--- “तमेवभान्तमनुभाति सर्वं, तस्य भासा सर्वमिदं विभाति, जानामीति तमेवभान्तमनुभात्येतत् समस्तं जगत् ।" “जानामि" का अर्थ इस तरह करें-- आत्मप्रकाश से अनुगत होकर सारा का सारा जगत भासित हो रहा है । बिना उसके कुछ भी भासित नहीं हो सकता है ।ऐसा जो तत्त्व है, ऐसा जो प्रकाश है वही गुरुमूर्ति है इसी गुरुमूर्ति को अपना नमस्कार है । माने उसके चरणों में सीमित अहंता का समर्पण है । यही अभिहित नमस्कार है ।

                     प्रत्यक्षवादी चार्वाक की चर्चा चली थी । चार्वाक एक ही प्रमाण मानता है, वह है प्रत्यक्ष । एवं चार भूत मानता है, पृथ्वी, जल, तेज, वायु । इन चारों का संघात यह शरीर है इस शरीर में विशिष्ट संघात के कारण चेतना उत्पन्न हो जाती है । शायद आज का भौतिक विज्ञान भी इस सिद्धांत को मानता है क्योंकि शरीर से पृथक कोई आत्मा का अस्तित्व वह मानता नहीं । तो चार्वाक शरीर को ही आत्मा मानता है । मुर्दा शरीर को आत्मा नहीं मानता । किन्तु जिसमें चैतन्यता उद्भूत हो गई है, ऐसे शरीर को आत्मा मानता है । एक प्रमाण मनात है । दो पुरुषार्थ मानता है-- काम और अर्थ । धन कमाओ खूब, और विषय का उपभोग करो । मरण को मोक्ष मानता । वह आगे कहता है-- अरे भाई ! मैं बताता हूँ सुनो !  बलक का जन्म हुआ है तो शरीर को लेकर ही तो कहा जाता है कि बालक का जन्म हुआ है । संस्कार किसका हुआ ? शरीर का ही तो हुआ । सब कहते हैं कि संस्कार हुआ जीव का, जीव का क्या संस्कार करते हैं ? श्री का ही संस्कार करते हैं ।आशीर्वाद किसको देते हैं सौ वर्ष जियो ? आशीर्वाद किसको दिया तुमने ? शरीर को ही तो दिया ।

                  शरीर को लेकर के ही तो सारा कर्मकांड है । ब्राह्मण को यह कर्म करना चाहिए । क्षत्रिय को यह करना चाहिए । वैश्य को यह करना चाहिए । स्त्री का यह धर्म है । पुरुष का यह धर्म है । सारा का सारा तो शरीर को लेकर ही चल रहा है । प्रत्यक्ष तो आत्मा (शरीर) यहीं दिखाई देता है । इसी को लेकर के सारा का सारा व्यवहार होता है । इससे भिन्न कोई आत्मा कहां है ? आज का विज्ञान भी कहता है कि इससे भिन्न आत्मा हो तो तुम दिखाओ । लेबोरेटरी में हम जांच करेंगे । हमने सुना है-- अमेरिका में किसी ने दो लाख डालर का पुरस्कार रखा है, तकि शरीर से भिन्न कोई आत्मा को दिखा दे तो उसको ये दो लाख डालर दिये जायें । हो सकता है कोई धोखा देकर के कभी ले भी जाये ।  अरे ! माया में क्या नहीं होता ? यह बताओ आत्मा 'यह' होता तो तुम्हारी लेबोरेटरी में जांच हो सकती थी, पर ‘मैं' की जांच कौन करेगा ? 'मैं' की जांच कैसे होगी ? जांच करने वाला भी 'मैं' होगा । फिर 'मैं' की जांच कैसे होगी ? और 'मैं' एक ही है फिर जांच कैसे ?

                 कहते हैं-- यह शरीर ही आत्मा है, दूसरा कहता है केवर शरीर को ही आत्मा नहीं माना जा सकता । प्राण चलता हुआ जो शरीर है उसे ही आत्मा माना जा सकता है  क्योंकि प्राण के साथ ही ‘मैं' अन्वित हो रहा है, शरीर को कौन कहता है ‘मैं' ? बहुत कम लोग कहते हैं जिनकी बुद्धि बड़ी चंचल है वे कह सकते हैं । लोग शरीर को मैं कहा करते हैं । मेरा शरीर दुर्बल हो गया है ऐसा कहते हैं । पर ‘मैं' शरीर को कैसे कहें ? हां ! कभी ज्यादा मोह हो जाये ।

               एक महात्मा ने एक घटना सुनाई थी । एक सज्जन थे भांग खाते थे । टहल करके आये तो भांग ज्यादा चढ़ गई थी । हाथ में लाठी थी । बहुत देर तक विचार किया कि यह (लाठी) मैं हूँ या यह(शरीर) मैं हूँ ? अन्त में निर्णय किया कि यही(लाठी) मैं हूँ । फिर लाठी को विस्तर पर लेटा दिया और स्वयं लाठी के स्थान पर खड़े हो गये । थोड़ी देर बाद नौकर आया और देखा सेठ जी को ज्यादा चढ़ गई है, तो जाकर कहा-- सेठ जी ! सेठ जी !! तो सेठ जी ने कहा चुप चुप बाबू जग जायेगा । तो ऐसा मोह हो जाये, तो शरीर को आत्मा भले ही मान ले, पर शरीर को कैसे आत्मा माना जा सकता है ? इसीलिए कहा शरीर आत्मा नहीं है । यह जो प्राणयुक्त जो रहता है वही आत्मा है । प्राण को ही पिपासा होती है, यह खाने वाला आत्मा, पीने वाला आत्मा है । इसमें प्राण से युक्त जो शरीर है वही आत्मा है ।

                तीसरे लोग कहते हैं-- देखो ! इसमें प्राण कुछ भी नहीं, यदि इन्द्रियां न हों तो प्राण क्या करेगा ? वह आत्मा कैसे हो सकता है ? इसलिए इन्द्रियों को भी उसके साथ जोड़ना है । इन्द्रियां प्राण शरीर मिलकर के आत्मा है । इन्द्रियों को लेना पड़ेगा नहीं तो ज्ञान ही नहीं होगा । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध का ज्ञान नहीं होगा । जिसको ज्ञान ही नहीं हो रहा है वह आत्मा कैसे होगा ? इसलिये इन्द्रियों को उसके साथ रखना चाहिए । अन्य लोग कहते हैं इसको छोड़ो बाहर कुछ है ही नहीं । जैसा तुम्हारी बुद्धि में ज्ञान होता है वैसा ही दिखता है । दोखो-- स्वप्न में बाहर कहां रहता है ? तुम्हारी बुद्धि ही पूर्व संस्कारों से घटपट रूप धारण कर लेती है । अतः बाहर मालूम होने लगता है । बाहर कुछ है ही नहीं । इसलिए जो चल रहा है बुद्धि है यह क्षणिक आत्मा है, इत्यदि । कोई कहते हैं यह सब चक्कर छोड़ो यह सब शून्य है । यह सब कुछ है ही नहीं, तुम समझ ही नहीं सकते, आत्मा कोई है यह तुम समझ ही नहीं सकते । तर्क की कसौटी में कसो तो सभी के सभी खत्म हो जाते हैं ।  सारे चित्र खत्म हो गये तो पर्दे के समान शून्य बचा, और तो कुछ बचा नहीं । ऐसे करके पूर्वपक्ष बहुत उपस्थित हो जाते हैं, उसका उत्तर देते हैं----

क्रमशः ------


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