अष्टम श्लोक, प्रवचन
विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसंबन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितॄपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामित-
स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।८।।
"य एष पुरूषो" यः कौन है ? वही सृष्टि के आदि में जो है, वह आपका स्वरूप है । "एष" कौन है ? एष यही है इस परिच्छेद को लेकर के "य एष" वही यही है, दूसरा नहीं । जिसने अपने स्वातंत्र्य से अपने स्वरूप पर अनन्त सृष्टि प्रकट किया है, वही यह है, वही आप हैं दूसरा नहीं । कहते हैं वही हम हैं फिर बंधन काहे का हो गया ? इसमें कहीं बन्धन आयेगा ? "सो माया बस भयउ गुसाईं" गोस्वामी जी कहते हैं-- वो है तो गुसाईं, है तो स्वामी सबका । वह तो ईश्वर है, ईश्वर का अंश ईश्वर है । पर माया बस भयउ, माया के बस में हो गया । उसकी इच्छा खेलने की हुई तो माया उससे खेलाने लगी । खेलो जब तक तुम्हारी इच्छा है तब तक खेलाऊंगी तुमको । अनन्त जन्म से माया खेला रही है । जब खेलना बंद करना चाहेगा तब माया की हिम्मत नहीं है इसको खेलाने की । जब तक आप जगत में खेलना चाहेंगे तब तक जन्म मरण का खेल बंद होने वाला नहीं है । पर जब आप ऊब जायेंगे, खेलना बंद करना चाहेंगे, जगत में नहीं रहना चाहेंगे तो मायादोष की हिम्मत नहीं है । यह बंधा कैसे ? गोस्वामी जी बड़ा सुन्दर उदाहरण देते हैं-- "बंधेउ" इस नहीं कहते गोस्वामी जी कि माया ने इसे बांधा । स्वयं बंधा है इसने अपने से ही अपने को बांधा है-- बंधेउ कीर मर्कट की नाईं ।
कीर को पकड़ने के लिए एक तरह की चर्खी होती है । कीर एक किनारे बैठ जाता है । उसके पीछे दाना रखते हैं, कीर के बैठते ही वह चरखी उलट जाती है उसका मुख ऊपर की ओर हो जाता है । वह सोता है मैं चरखी छोड़ दूंगा तो गिर जाऊंगा । वह चरखी को पकड़ कर चिल्लाने लगता है । जिस समय वह चिल्ला रहा है उस समय भी उसमें उड़ने की सामर्थ्य है । विचारणीय बात यह है कि उसमें उस, समय भी उड़ने की सामर्थ्य है कि नहीं ? है-- पर उड़ने की सामर्थ्य भूल गया । उसने सोचा-- छोड़ा तो गिरा । छोड़ा तो गिरेगा कैसे ? तुम्हारे पास तो अनंत आकाश में उड़ाने के लिए पंख हैं । दूसरा उदाहरण दिया मर्कट का । छोटे मुख का घड़ा गाड़ देते हैं जमीन में, उसमें दाना रख देते हैं । आकर के बंदर देखता है और दोनो हाथ उसमें छोड़ देता है, दोनो मुठ्ठी भर लेता है, अब दोनो मुठ्ठी भर गई तो घड़े से निकलती नहीं । छटपटाता बहुत है । मुठी नहीं खोल सकता वह ? उसको मुठी खोलना नहीं आता ? चने का लोभ मुठ्ठी खोलने नहीं देता । अब बताओ बंदर या वह कीर बंधा है ? बंधा नहीं है, पर बंधे के समान हो गया आप बंधे नहीं हैं, पर आपने अपने को माया के वश में कर दिया है । माया खेला रही आप खेलो । कभी ऊपर जाओ, कभी नीचे जाओ । जब तक खेलने की इच्छा है तब तक खेलो ।
भूत, आपके मन में भूत आ गया तो क्या करोगे ? श्रुति भी यही कहेगी । अब यहाँ पर उपाय करना भी बड़ा कठिन है । कोई चीज वास्तव में हो तो उसे हटाना सरल है कोई चीज है ही नहीं तो उसको निकालना कठिन है । महात्मा लोग एक दृष्टांत देते हैं । एक राजकुमार था । वह लेटा हुआ था उसको एक सपना आया कि सांप उसके मुख में घुस गया है वह जगा तो देख पेट में दर्द हो रहा है अब उसे घबराहट शुरू हो गई कि सांप हमारे पेट में घुस गया है, काट रहा है । अब काट रहा है तो दर्द बढ़ेगा ही । दर्द उसका बढ़ता गया । भोजन छूट गया । एकदम हड्डी हड्डी दिखने लगी । राजा ने बहस दवाई कराई पर कोई दवा काम नहीं आई । एक महात्मा आये तब राजा क्या करे ? वह रोया । महात्मा ने कहा जरा देखूं । अकेले में बात करूंगा । अकेले में उससे बात किया । महात्मा जी बराबर पूछते कि क्या कोई स्वप्न आया था ? कोई स्वप्न आया था ? अन्त में उसने कहा-- हां महाराज ! स्वप्न आया था और एक सांप पेट में घुस गया था । महात्मा ने कहा जरा लेट जाओ । कहा-- ओहो...! देखा यह सांप का मुख है, यहाँ ज्यादा दर्द होता है ? हां महाराज ! यहीं तो दर्द हो रहा है । वह काट रहा है, भयंकर पीड़ा हो रही है । महात्मा ने कहा-- यह उसकी पूंछ है, यहाँ तुमको दर्द कम होगा । अब वह झट समझ गया कि ये महात्मा हमारे मर्ज को ठीक से समझ रहे हैं । कहा-- कोई बात नहीं, चिंता मत कर हम निकाल देंगे । शाम को जुलाब दिया और राजा से कहा-- नौकर को बोल दो जहाँ शौच जाता है वहां पर एक सांप मारकर फेंक दे । सबेरे महात्मा आये पूछा दवा ने काम किया ? अरे महाराज ! रात भर दस्त, उठा बैठा नहीं जाता । कहा-- देखें जरा-- लेट जा तू । देखा पेट कहा सांप तो निकल गया, सांप तो मर गया, गया बहर । जा लाठी लेकर देख सांप निकला कि नहीं । वहां पर जाकर देखा तो सांप पड़ा है । कहा-- महाराज इतना बड़ा सांप । सांप न घुसा, न निकला, पर घुसना भी स्वीकार करना पड़ा और निकलना भी । महात्मा ने निकाला कि नहीं ?
इसी तरह जो घुसा हुआ सांप है वह है ही नहीं, पर घुस गया । तब श्रुति को दुनिया भर का उपाय करना पड़ता है ।यह जप करो, यह तप करो, यह नियम करो ऐसा करो । जब उस साधन को करता है तब उसको थोड़ा विश्वास हो जाता है कि कुछ हम ठीक हो रहे हैं । उसकी इसी बिमारी के लिए वैराग्यादि उपदेश, गुरुसंपत्ति, मोह निवृत्ति का कथन "तत्त्वमसि" आदि महावाक्योपदेश है । अरे भाई ! तत्त्वमसि उपदेश क्या है ? वह तो है ही । पर सारा माया में किया जाता है । यदि आपको बंधन है तो बिना उपदेश किये निकलने वाला नहीं है । माया में दोनो होते हैं ।
आपह माया क उपदेश झूठा होगा । जैसे मान लीजिए एक व्यक्ति ऐसा है जिसने अपने पिता के पिता को नहीं देखा और देखना चाहता है । आप फोटो रख देते हो । फोटो झूठा है या सच्चा ? पर वह फोटो से ऑकलन कर लेगा कि नहीं ?.फोटै झूठा है, शरीर जला दिया गया है, कैसे दिखाओगे ? फोटो वह पिता के शरीर का ऑकलन कर लेता है । इसी प्रकार यह माया में उपदेश हो रहा है । इसी प्रकार माया कहते हैं यह कहानी अकथ है से वास्तविक पदार्थ लक्षित हो जाता है । इसीलिए उपदेश मायिक होने पर भी सत्य की फोटो है, क्योंकि सत्य को सीधे शब्दों में नहीं पकड़ा जा सकता है इसलिए श्रुति निषेध मुख से निर्देश करती है । आपको इंगित करके दिखाती है जो दिखाया नहीं जा सकता है । इसी को गोस्वामी जी कहते हैं--- "सुनहु तात यह अकथ कहानी" कहते हैं यह कहानी अकथ है । अकथ है तो क्यों कहोगे, कैसे कहोगे ? फिर कहते हैं--- "समुझत बनै न जाइ बखानी" शब्द का विषय नहीं बन सकता है, पर सावधान रहें तो समझ सकते हैं ।
कहते हैं ‘जीव’ अब आपने क्या समझा ? ईश्वर का टुकड़ा जीव । फिर तो टुकड़ा होते होते ईश्वर खतम हो जायेगा । ईश्वर अंश हमने कह दिया तो आपने उसे लक्ष्यार्थ रूप से जाना, न कि वाच्यार्थ रूप से ईश्वर तो निवयव है टुकड़ा हो नहीं सकता तो फिर ईश्वर अंश कैसे बना ? हां ! ऐसे बनेगा कि आपने एक हजार घड़ा पानी भरकर रख दिया उसमें एक हजार सूर्य दिखने लगेंगे । वह सूर्य का अंश । सूर्य अपनी जगह वैसा का वैसा ही है और अंश अपनी जगह । किन्तु अंश का प्रथक अस्तित्व नहीं है, वह सूर्य रूप ही है । इसलिए “समुझत बनै न जाइ" इसी बात को कहते हैं--- “मायापरिभ्रामितः य एष पुरुषः" आपका स्वरूप परमेश्वर ही है । पर एष करके कहा कि कार्य करण संघात म़े बंधा हुआ पुरुष है, अपने स्वरूप को याद नहीं रखता है, स्वरूप में उसकी प्रतिष्ठा नहीं है, किन्तु कार्य--कारणतया वह देखता है । जगत रूपी कार्य है किसी कारण से उत्पन्न हुआ है । मिट्टी से घड़ा उत्पन्न होता है, पिता से पुत्र उत्पन्न होता है । इस वस्तु से यह वस्तु उत्पन्न होती है, सारे जगत को कार्य कारण के रूप में देखने लगता है । एक से अतिरिक्त है ही नहीं, उसमें कार्य कारण कहाँ से बनेगा ?
"माया परिभ्रामितः" माया से परिभ्रमित होकर ऐसा दिखाई देता है यह स्वामी है, मैं सेवक हूँ, देवता लोग हमारे स्वामी हैं, हम लोग इनका पूजन करेंगे, पूजा करने से देवता लोग हमको ऐसी वस्तु देंगे । ये मालिक हैं हम नौकर हैं--- इसी रूप में जगत दिखता है, क्योंकि स्वरूप नहीं दिख रहा है । ये पुत्र है मैं पिता हूँ-- ये जगत के शब्द ऐसे ही प्रयुक्त होते हैं । जैसे यह पिता है, एक दिन उसी को पुत्र कहा गया था । पहले वह पुत्र था अब पिता हो गया, कौन सा सच्चा है उसमें ? अरे ! ये शब्द है । एक जैसी शब्दावली है । एक मिट्टी में शब्दावली है-- यह घट है, यह कुल्हड़ है ।
दीपावली मनाते हैं । शक्कर की मिठाई बनाते हैं । यह घोड़ा है, यह हाथी है, यह देवता है, यह राक्षस है । क्या है ? घोड़ा दिखता है पर शक्कर है इसी प्रकार हाथी, राक्षस देवता दिखता है पर शक्कर है । उसको कहो कि एक किलो हमको घोड़ा दे दो, तो आपको गधा दे दे तो नहीं लेंगे, पर कहे कि चाहे एक किलो गधा ले लो, या घोड़ा हाथी, राक्षस, देवता ले जाओ दाम वही अर्थात शक्कर में ही ये सब व्यवहार है रहे हैं ।
यह राहु का सिर है, अरे ! सिर का नाम तो राहु है, शब्द मात्र यहाँ है । प्रधानमंत्री है एक दिन भूतपूर्व है गया । सारा का सारा खेल शब्दाडंबर है । एक उपाधि दे दो, दूसरी उपाधि दे दे, ऐसे यहाँ जगत व्यवहार चलता है । "शिष्याचार्यतया" जो पढ़ना चाहता है वह आचार्य के पास जायेगा, आचार्य का वह शिष्य हो गया । पढ़ाने वाला गुरु हो गया । महाराज ! हमको ज्ञान का उपदेश कर लीजिए । हम बड़े दुःखी हैं । ऐसा व्यवहार, ऐसा स्वप्न एवं जाग्रत में होता है । जाग्रत में भी दिन रात सोचता रहता है और स्वप्न में भी सोचता है । जैसे जाग्रत में करता है वैसे स्वप्न में करता है, क्यों करता है ? "मायापरिभ्रामितः" वह माया के वश में हो गया है । अब माया उसको खेला रही है । कभी उसको ऊपर फेंकती है, कभी नीचे फेंकती है, कभी पशु शरीर में डाल देती है, कभी मनुष्य शरीर में कर देती है, कभी देवता शरीर में कर देती है । जैसा कर्म संस्कार होता है, जैसा बीज होता है वैसी फसल उत्पन्न कर देती है । लेकिन कौन है यह ? सृष्टि के आदि में जो था वही है दूसरा नहीं है और माया परिभ्रामित होकर भिन्न भिन्न देख रहा है । देखो-- इतना भेद दिखाई दे रहा है व्यवहार में । भेद पर भेद भेद पर भेद । एक तो शरीर ही माया है । कभी पाउडर से तो कभी, कभी माला पहनकर, तो कभी श्रृंगार से अपने को सजाता रहता है । अपने को भूलकर इसे सजाना यही माया है । यह शरीर मेरा है, यह दूसरे का है, शरीर ही है, शरीर चिता पर पड़ा है, कहाँ से तुम्हारा हो गया ? पर व्यवहार ऐसा ही है । व्यवहार में सारा का सारा मायापरिभ्रमण है, अच्छा व्यवहार हो या खराब व्यवहार हो । शास्त्र के अनुसार व्यवहार है तो आप मूल की तरफ जायेंगे, इतना अंतर है । पर मायाा दोनो है । जैसे सांप घुसा वह भी माया से भासित हुआ, सांप निकला यह भी माया से भासित हुआ ।
"स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः" मूल में संकल्प से सृष्टि उत्पन्न करता है । फिर माया के परवश होकर, विभिन्न प्रकार के संबंध जोड़कर के उसी संबंध में जीता मरता है । जगत म़े जन्म मरण का चक्कर काटता है । जब संसार की अनित्यता के संस्कार उद्भूत होने लगते हैं तो उस पर संत की, गुरु की, परमेश्वर की कृपा हो जाती है । उसको जगत पर शंका हो जाती है कि इतने दिन जगत पृ मोह किया, पर यहाँ तो कोई किसी को देखने वाला है ही नहीं । इतने दिन यहाँ मन लगाकर भारी उपद्रव कर दिया । उसको शंका हो जाती है, जगत को पढ़ने लगता है । जगत को पढ़ते पढ़ते देखता है यहाँ कोई अपना नहीं है । सबका अपना स्वार्थ का संबंध है यहाँ कोई अपना नहीं है । अपना तो कोई और है । परमेश्वर की तरफ घूम जाता है, गुरु से उसको ज्ञान प्राप्त होता है । उससे वह अपने वास्तविक परमेश्वर रूप में जग जाता है । तब उसकी सारी समस्याओं का समाधान हो जाता है । तब माया उसको छोड़ देती है ।
एक महात्मा बताते थे । कहते थे यह माया बड़ी सूक्ष्म है जब साधक घर छोड़ देता है, जगत को छोड़ देता है, परमेश्वर को पकड़ लेता है, जगत का ममत्व तोड़ देता है तोड़कर जंगल में चला जाता है । तब माया सोचती है कि एक पशु मेरे हाथ से निकल गया । वह सबको घुमा रही है । चरा रही है । कहती है कि एक पशु मेरा निकल गया । जैसे आपका बांधा हुआ पशु जंगल में चला जाये तो आप उसे ऐसे ही थोड़े छोड़ देंगे । उसके पीछे जाओगे, डंडा से घेरते हो चारा दिखाते हो । चारा क्यों दिखाते हो ? उसको पकड़ने के लिए । उसको चारा दिखाने का लक्ष्य है पकड़ना । माया पहले तो भय उत्पन्न कर देती है । बुखार ला देती है, सोचेगा खाने पीने को जंगल में नहीं मिलेगा इससे तो घर ही अच्छा था, फिर वह लौट आता है । वह देखती है कि अपने खूंटे पर आ गया ठीक है । पर कोई तगड़ा निकल गया, नहीं पीछे हटता है, तो कहती है इसको पकड़ना कठिन है समाधि में गये हुए उसके सामने सिद्धि फेंक देती है, फलतः उसकी सिद्धि हो जाती है । लोग कहते हैं बड़े सिद्ध महात्मा जंगल में रहते हैं । सारे व्यक्ति वहां पर जाते हैं मन्दिर छोड़कर । सिद्ध महात्मा, सिद्ध महात्मा, सिद्ध महात्मा, व्यक्ति जायेगा वहीं । वहां रखेगा जो उसके पास है, जब पैसा चढ़ाना शुरू तो पैसे का ढेर लग जाता है । इतने में आधि --- मानसिक चिन्ता आ जाती है । इसका क्या करना ? अस्पताल बनाना कि पाठशाला खोलना कि खोत खरीदना/खोदना । अब इसके आगे व्याधि शुरू हो जाती है, मायादोष निश्चिन्त हो जाती है । इन दोनों में पक्का निकला तो माया डर जाती है कि यदि मैने कोई विघ्न किया तो परमेश्वर हमको दण्ड देगा । उसको उसके अनुकूल व्यवस्था करके रखती है एवं सेवा में लग जाती है । इस दृढ़ निश्चयी साधक से भिन्न लोग " माया परिभ्रामितः" हैं । वह मायाधीश तत्त्व ही दक्षिणामूर्ति है । वही ईश्वर है वही इसका स्वरूप है और उसी स्वरूप में प्रतिष्ठित होने के लिए सारा साधन है ।
क्रमशः ------
ॐ
बाबा का दर्शन अमरकंटक स्थित आश्रम में हुआ। दुबारा लालसा हुई मिलने की परन्तु पता चला वे ब्रह्मलीन हो गये। तुरीयाश्रम के ब्रह्मचारी के हाथों यह पुस्तक स्वरूप गुरु जी का प्रवचन मिला।एक जीवन में एक बार भी ऐसे महापुरुष का दर्शन मिलना अलौकिक अनुभव रहा।
जवाब देंहटाएंबाल कृष्ण मिश्र
पटना