सप्तम् श्लोक, प्रवचन
वह तीनो अवस्थाओं में अनुस्यूत रहा । तीनो अवस्थाओं में अनुस्यूत है, अतः तीनो अवस्थाएं उसी में कल्पित हुईं । इसीलिए वह आधारभूत दर्पण के समान है ।एक आत्मा से अगल अस्तित्व नहीं है । अब यह शंका यहाँ पर उद्भूत होती है कि आपने कहा-- "यः प्रत्यभिज्ञायते" यह प्रत्यभिज्ञा क्या है ? इस प्रत्यभिज्ञा शब्द पर जरा विचार करो । एक प्रत्यभिज्ञा दर्शन भी है । प्रमाण बताये गये हैं, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान शब्द अर्थापत्ति और अनुपलब्धि, किन्तु प्रत्यभिज्ञा नाम का प्रमाण तो कहीं प्रमाण में दिखाई नहीं देता है । हम प्रत्यभिज्ञा के नाम पर आत्मा का अस्तित्व कैसे मान लें ? प्रामाणिक होना चाहिए । प्रमाण से सिद्ध वस्तु ग्राह्य हो सकती है और प्रत्यभिज्ञा नाम का प्रमाण तो कहीं देखा नहीं गया । 'स्मृति' आता है, पर प्रमाण के रूप में नहीं आता है तो प्रत्यभिज्ञा स्मृति है या प्रत्यभिज्ञा स्मृति से अलग है ? "प्रत्यभिज्ञाबलात् आत्मा स्थायी निर्धार्यते यदि" सुरेश्वराचार्य भगवान कहते हैं प्रत्यभिज्ञा के बल से यदि आत्मा की नित्य स्थिति हो, आप निर्धारित करते हैं तो “प्रत्यभिज्ञा किसका नाम है” ? किं वा तस्याः करणं ? और उसका करण क्या है ? प्रत्यक्षादि प्रमाणों में प्रत्यभिज्ञा की गिनती नहीं है । अतः इस शंका को दूर करने के लिए अगला श्लोक है----
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।७।।
प्रत्यभिज्ञा तथ स्मृति में कुछ अन्तर है । क्या अन्तर है ? प्रत्यक्ष प्रमाण से आपको पहले अनुभव होगा । अनुभव जिसका होता है वह विषय एवं अनुभव बाद में हमारे सामने नहीं रहते । उसका संस्कार बुद्धि में रहता है ।उसी संस्कार को लेकर जब एकान्त में आप बैठते हैं, तो उसकी स्मृति होती है । संस्कार स्मृति होकर के प्रकट होता है । प्रत्यभिज्ञा ऐसा नहीं, प्रत्यभिज्ञा है पहचान । प्रत्यभिज्ञा में जो विषय आपको पहले था वही विषय अभी आपको प्रत्यक्ष को रहा है । "सोऽयं देवदत्ततः" के विषय में एक देवदत्त नाम का बालक था , जो आपके साथ पढ़ता था, आपका सन्मित्र था । २५वर्ष पहले आपके साथ काशी में रहा था । और आप २५ वर्ष बाद देख रहे हैं उसको । अब उसकी अवस्था बदल गई, उसका स्वरूप बदल गया, स्थान बदल गया, देश काल सब बदल गये । पर उसको सामने देख रहे हैं सोऽयं देवदत्ततः, वही देवदत्त है । यह प्रत्यभिज्ञा है । स्मृति में ऐसा नहीं है । पर प्रत्यभिज्ञा पहचान होती है, तो पहचान में वस्तु दूसरी उपाधि सहित हमारे सामने में है । पहले दूसरी उपाधि सहित हमारे सामने थी, किन्तु जब हम दोनो उपाधियों को हटा देंगे तब पहचान हो जाती है कि यह वही है, वह भागत्याग लक्षणा में होता है । सृष्टि के पहले परमेश्वर है जगत है नहीं । "तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेय" उसने संकल्प किया मैं शक्ति को लेकर बहुत हो जाऊं । बहुत स्वरूप लेकर प्रकट सो गया । फिर "तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्" के अनुरूप वह सृष्टि कर जहाँ अन्तःकरण था, अन्तःकरण में प्रतिफलित हो गया । प्रवेश कर गया । प्रतिफलित होने से उसकी उपाधि दूसरी हो गई । अब इस समय उसकी उपाधि क्या हो गई ? बहुत अन्तःकरण थे, बहुत अन्तःकरणों में वह आभास रूप से वह प्रतिफलित हुआ तब उसकी उपाधि कार्य करण संघात हो गई ।
जैसा हमने कहा था एक सूर्य है दस हजार घड़े में पानी भरकर रख दीजिये तो दस हजार सूर्य दिखेंगे । सूर्य का जैसे जल में प्रवेश है वैसे ही आत्मा का बुद्धि में प्रवेश है । सूर्य का जल में प्रवेश होने पर भी सूर्य ज्यों का त्यों है, उसी प्रकार बुद्धि में प्रतिफलित होने पर भी आत्मा ज्यों का त्यों है । जैसे दस हजार घड़े रूप उपाधि में भी सूर्य ज्यों का त्यों है । इसी प्रकार परमात्मा अनन्त रूपों में दिखाई देने पर भी एक ही है । अब इसको पहचान नहीं हो रही है अपने स्वरूप की, क्योंकि यह उपाधि से युक्त हो गया है । पहचान नहीं हो रही है, इसको बताया भी जाये कि तुम सूर्य हो तो यह मानने को तैयार नहीं है । कैसे मान ले ? एक घड़े के अन्दर परिछिन्न कंगाल कैसे मान ले कि मैं व्यापक सूर्य हूँ । पर जब गुरु की कृपा से, शास्त्र की कृपा से धीरे धीरे घड़े का संग, जल का संग एवं प्रतिभास भाव का परित्याग कर देता है कि "इसमें मैं नहीं हूँ" और जब बिंब में पहचान हो जाती है कि अरे ! यह मैं । बीच में भी वही था पहचान नहीं थी, पहचान हो गई, क्योंकि सृष्टि के आदि में उसी ने प्रवेश किया था, तब पहचानता है कि यह पहले वाला मैं हूँ । तब यह ही हो जाता है कि यही मैं हूँ । मैने प्रवेश किया था यह पहचान प्रत्यभिज्ञा है । यह स्मृति नहीं है, इतने काल मैं भूल गया था परन्तु अरे ! यही मैं हूँ, मैने ही तो सभी घड़ो में प्रवेश किया था । तब सर्वात्मभाव का उदय हो जाता है ।
"मैं" अनुसंधान चल रहा है । अब यहाँ अनुभव करिये कि मैं का स्वरूप क्या है ? आपका शरीर छोटा था धीरे धीरे बढ़ा, पहले शिशु अवस्था थी शरीर की, फिर बाल अवस्था, कुमार अवस्था, युवा अवस्था एवं वृद्ध अवस्था आ रही है । तो इसमें शुरू से ही एक मैं काम कर रहा है । जो "मैं" बालक शरीर में था, जो "मैं" शिशु शरीर में था, वही "मैं" युवा शरीर में हुआ,. वही "मैं" वृद्ध शरीर में होगा, वही "मैं" शरीर बदलते रहने पर भी नहीं बदल रहा है । ऐसा नहीं होता है कि शिशु शरीर में "मैं" दूसरा था, बाल शरीर में दूसरा था, युवा शरीर में दूसरा था, ऐसा कभी नहीं होता है । यही होता है कि "मैं" था । यदि शिशु शरीर से वृद्धावस्था तक शरीर में इतना परिवर्तन हो गया, वह शरीर रहा ही नहीं । विचारशील कहता है कि जो शरीर अभी है, दूसरे क्षण में वह शरीर नहीं है, क्योंकि यदि दूसरे क्षण में भी वही शरीर रहे तो कोई बूढा ही नहीं हो सकता है । परिवर्तन प्रतीत नहीं होता है, पर कुछ काल बाद प्रतीत होता है । परन्तु प्रतिक्षण परिवर्तन न हो तो कुछ काल बाद कैसे बदलेगा ? प्रतिक्षण इसमें परिवर्तन होते रहने पर भी "मैं" वही रहा है । शरीर बदलने में "मैं" बदला नहीं । इस शरीर को, दसरे शरीर को धारण करने में "मैं" कैसे बदल जायेगा ? एक कपड़ा निकालकर दूसरा कपड़ा पहनने से शरीर थोड़े ही बदल जायेगा । "बाल्यादिषु" बाल्यावस्था से लेकर वृद्धावस्था तक निरंतर परिवर्तन हो रहा है और इस परिवर्तन में जो "मैं" अनुस्यूत है वह एक ही है । इसी प्रकार "जाग्रदिष्वपि" जाग्रत अवस्था में जो आप हैं वही आप सपने में जाते हैं, दूसरा नहीं चला जाता है । जाग्रत अवस्था का अनुभव करने वाला और स्वप्नावस्था का अनुभव करने वाला अलग अलग है क्या ? ऐसा तो कोई मानने के लिए तैयार नहीं है । वह कहता है कि मैं जाग्रत अवस्था में था, आज स्वप्नावस्था में विलक्षण खेल देख लिया । फिर गहरी निद्रा में सो गया । देखिए अवस्थाएं एक दूसरे से अलग हो जाती हैं ।
शिशु अवस्था से बाल अवस्था अलग है, बाल अवस्था से युवावस्था अलग है, युवावस्था से वृद्धावस्था अलग है । पर बाल अवस्था में जो मैं था वही युवावस्था में है । युवावस्था में जो "मैं" था वही वृद्धावस्था में है । देखें "मैं" नहीं बदल रहा है । केवर अवस्था बदल रही है, एक अवस्था को दूसरी अवस्था में एकत्रित नहीं कर सकते । जाग्रत स्वप्न नहीं है, स्वप्न जाग्रत नहीं है । पर जाग्रत का जो अनुभव करने वाला है, वही स्वप्न का अनुभव करने वाला है । दूसरा अनुभव नहीं कर रहा है वही सुषुप्ति का अनुभव करने वाला है और फिर वही जाग्रत का अनुभव करने वाला है ।
जैसे तीन कमरे बना लीजिए आप, एक कमरे में आप सारा व्यवहार करते हैं, दूसरे कमरे में बैठकर सूक्ष्म विचार करते हैं, खाते पीते हैं । तीसरे कमरे में आप सो जाते हैं,तो आप कमरा तो नहीं हो जायेंगे । आप तीनों कमरों में अलग अलग रहेंगे कि नहीं ? इसी प्रकार "मैं" का जो अर्थ है, वह जाग्रत में व्यवहार कर रहा है, इस कमरे को छोड़कर स्वप्न कमरे में चला जाता है वहां अपने ढंग से व्यहवार करता है, अब उसके बाद तीसरे सुषुप्ति में चला जाता है वहां सो जाता है, फिर वहाँ से निकलकर चला आता है । इस तरह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में कौन पृथक हो गया ? आप । "मैं" ही पृथक हूँ आप तीनो अवस्थाओं से पृथक् हैं और तीनो अवस्थाओं से पृथक् हैं । इतना ही नहीं, किन्तु "सर्वास्ववस्थास्वपि" कोई बहुत गरीब हो गया, पर बाद में करोड़पति हो गया, जो बहुत गरीब था वही करोड़पति हुआ । क्या मालूम होता है ? ऐसा तो मालूम नहीं होता कि गरीब दूसरा था और करोड़पति दूसरा हो गया ।
जैसे तीन कमरे बना लीजिए आप, एक कमरे में आप सारा व्यवहार करते हैं, दूसरे कमरे में बैठकर सूक्ष्म विचार करते हैं, खाते पीते हैं । तीसरे कमरे में आप सो जाते हैं,तो आप कमरा तो नहीं हो जायेंगे । आप तीनों कमरों में अलग अलग रहेंगे कि नहीं ? इसी प्रकार "मैं" का जो अर्थ है, वह जाग्रत में व्यवहार कर रहा है, इस कमरे को छोड़कर स्वप्न कमरे में चला जाता है वहां अपने ढंग से व्यहवार करता है, अब उसके बाद तीसरे सुषुप्ति में चला जाता है वहां सो जाता है, फिर वहाँ से निकलकर चला आता है । इस तरह जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में कौन पृथक हो गया ? आप । "मैं" ही पृथक हूँ आप तीनो अवस्थाओं से पृथक् हैं और तीनो अवस्थाओं से पृथक् हैं । इतना ही नहीं, किन्तु "सर्वास्ववस्थास्वपि" कोई बहुत गरीब हो गया, पर बाद में करोड़पति हो गया, जो बहुत गरीब था वही करोड़पति हुआ । क्या मालूम होता है ? ऐसा तो मालूम नहीं होता कि गरीब दूसरा था और करोड़पति दूसरा हो गया ।
भयंकर बीमारी ने किसी को पकड़ लिया । मरणासन्न हो गया, फिर डाक्टरों ने इलाज किया । कुछ काल में धीरे धीरे ठीक हो गया । तो जो बीमारी का अनुभव कर रहा था वही स्वास्थ्य का अनुभव कर रहा है, दूसरा तो नहीं कर रहा है । सभी अवस्थाओं में अनुस्यूत एक ही है, जानने वाला । उसमें कोई बदलाव नहीं आ रहा है । यहां तक कि व्यक्ति पागल हो जाता है और कुछ काल बाद जब ठीक हो जाता है तब कहता है, मैं पागल हो गया था । ठीक हो गया हूँ । मैं को नहीं छोड़ता । मूर्छित हो जाता है पर कभी नहीं सोचता कि मैं नहीं था, यह कहता है कि मुझे कुछ पता नहीं था । सुषुप्ति से उठने के बाद किसी को शंका नहीं होती कि मैं नहीं था । वहां कुछ भान नहीं हुआ जगत का यह तो बोलेगा पर मैं नहीं था ऐसा नहीं कह सकता । मैं के विषय में किसी को कोई शंका नहीं होती ।
मैं का अस्तित्व नित्य है उसी अस्तित्व के आधार पर यह सारा का सारा जगत है, यह सब बदल रहा है, प्रतिक्षण चित्र बदल रहा है पर पर्दा नहीं बदल रहा है, वह ज्यों का त्यों है । बड़ी तीव्रगति से चित्र दौड़ रहे हैं पर पर्दा हिला तक नहीं । धू धू करके पर्दे पर अग्नि दिखी पर पर्दा गरम नहीं हुआ । बड़े बड़े बाढ़ के दृश्य आपने देखा पर पर्दा गीला नहीं हुआ । ठीक वैसे ही आपका स्वरूप है यह "मैं" वैसा ही है । इसमें कितने शरीर भासित हो गये, कितनी अवस्थाएं भासित हो गईं, कितने प्रकार का जगत भान हो गया, कितने प्रकार की परिस्थितियों का भान हो गया । कितने सुख दुःख का भान हो गया, ये सारा का सारा भान होने पर भी आप वैसे के वैसे ही हैं । इसी को कहते हैं "बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि" ये अवस्थाएं एक दूसरे से अलग होती हैं । एक अवस्था दूसरी अवस्था नहीं कही जाती है, स्वप्न अवस्था को जाग्रत और जाग्रत को स्वप्न नहीं कहते ।ये एक दूसरे से बिल्कुल पृथक हैं बाल अवस्था युवावस्था नहीं है । युवावस्था बाल अवस्था नहीं है । पर "अनुवर्तमानम्" एक तत्त्व इसमें अनुगत है । ये भिन्न भिन्न हैं, पर एक तत्त्व इनमें अनुगत है । कैसे जानें कि अनुगता है । अहं "मैं-मैं" शरीर में निरंतर स्फुरित हो रहा है । मैं ही दरिद्र था तो मैं ही धनी हो गया । ये "मैं" शरीर में अनुगत हो रहा है । "अन्तः अहमिति सदा स्फुरन्तम्" यही आपका स्वरूप है इस स्वरूप में प्रतिष्ठित होने के लिए जो उपाधि भाग टूट जाता है तो साधक की स्वरूप में प्रतिष्ठा हो जाती है । "मैं" का संबंध जब तक उपाधि से बना रहेगा । तब तक आप शुद्ध मैं में प्रतिष्ठित नहीं हो पायेंगे, और ‘मैं’ इन संपूर्ण उपाधियों से पृथक जब हो जायेगा तब अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जायेगा ।
बात तो इतनी है इस समय में भी आपके स्वरूप में कोई विप्लव नहीं है, आपके स्वरूप में कोई समस्या नहीं है । न होने पर भी जो समस्या का भान हो रहा है यह कैसे टूटे ? यह तो बड़ा मुश्किल है । इसका टूटना मुश्किल हो रहा है । स्वप्न में खा-पीकर बंद कमरे में सो गये कोई समस्या नहीं । पर आप स्वप्न में भूख का अनुभव कर रहे हैं । उस समय भी कोई समस्या है कोई ? पर अनुभूति हो रही भूख रूप समस्या की । यद्यपि समस्या नहीं है पर अनुभूति हो रही है । न हो और दिखाई दे, यही माया है । अब जो अनुभूति हो रही है वह कैसे मिटे ? तब तक समस्या की अनुभूति होती रहेगी जब तक जागेंगे नहीं । जागने के बाद ही समस्या का समाधान होगा । नहीं तो एक समस्या को मिटाओ तो दूसरी समस्या आ जायेगी । जब तक सोया है तब तक कौन समस्या उसके सामने प्रकट हो जाये इसका कोई निर्णय नहीं है । जागने के बाद कुछ नहीं । स्वरूप में सो करके यह अनुभव कर रहा है । जब तक स्वरूप में जागेगा नहीं तब तक समस्या का अन्त नहीं । अब सपने में भूख लगी है किसी ने खिला तो थोड़ी देर के लिए समस्या दूर हो गई, इतने में लगा कि बाघ आ रहा है उसे खाने के लिए । फिर समस्या हो गई, क्या करें ? जब तक आप "मैं" के वास्तविक स्वरूप में जागेंगे नहीं तब तक स्वरूप में समस्या न होते हुए भी आप समस्या के भान को रोक नहीं सकते । इतना है कि कुछ आधार बना लेंगे तो कुछ समस्या कम हो जायेगी, ऐसा हो सकता है पर वहां की समस्या का मूल तो बना हुआ है । दूसरी समस्या हो जायेगी । इसी समस्या के समाधान में हमारा समय बीत रहा है ।
पैसा नहीं है तो पैसा कमाने में लगा है, पैसा है तो दूसरी समस्या आ जाती है । लड़का कहना नहीं मानता तो दूसरी समस्या आ गई । पहले तो पैसे के लिए परेशान था, लड़का नहीं था तो लड़के के लिए परेशान था । बड़ा प्रयास किया तो लड़का भी हो गया । अब समस्या आ गई लड़का सुनता नहीं, लड़का स्वतंत्र हो गया समस्या तो है ही, अनुभव तो होगा ही । जब तक हम जागेंगे नहीं इस मिथ्या समस्या का समाधान नहीं होगा । यह समस्या तो बनी रहेगी । समस्या कर्म संस्कार के अनुसार घूमती रहेगी ।जैसे कर्मों का भोग होगा वैसी बुद्धि बनेगी, जैसी बुद्धि होगी वैसी समस्या बन जायेगी । समस्या होने में देरी नहीं लगती पुण्य कर्मों का भोग चल रहा है, इसी में एक पापकर्म का भोग आया फिर समस्या बन गई । शाम को समस्या नहीं थी सबेरे समस्या हो गई । कहने का तात्पर्य है समस्या का मूल कहां है ? समस्या को दूर करते रहने पर भी उसका पूर्णतः समाधान नहीं होता । वृद्ध लोगों से पूछ लो जन्म से लेकर वृद्धावस्था तक समस्या के समाधान में ही लगे थे । पर उनकी समस्या दूर हो गई क्या ? वृद्ध की समस्या दूर नहीं हुई । एक महात्मा से सुना एक जगह एक वृद्धाश्रम था । बड़ी सुविधा वहां पर है । सतसंग करना चाहो तो सतसंग है, टी.वी. देखना चाहो तो टी.वी. देखो । हमने कहा-- वहां तो कोई दुःख नहीं होगा वृद्धों को । क्या दुःख है? कहा महाराज पूछिए मत, रविवार के दिन किसी का लड़का आया वृद्ध से मालने, दूसरे का लड़का नहीं आया तो पागल हो गया, लड़का आया बहू नहीं आयी । हम तो गये नहीं पर पूछ कर पता लगाते रहते हैं । अब समझ लीजिए लड़का आया पल बहू नहीं आयी तो उसका सुख चला गया । हमारे प्रति उसका भाव ही नहीं है ।
किसी का लड़का बलफ लेकर आया और किसी का लड़का खाली हाथ आया । दुःख उत्पन्न हो गया । दुःख कहीं खोजना नहीं पड़ता है यह बड़ी विलक्षणा बात है । कहां कौन सा संस्कार उदय हो जाये पता नहीं होता । शायद बात स्वामी जी (प.पू.कृष्णानन्द जी विरक्त) ने सुनायी थी जहाँ ये वृद्धाश्रम देखने गये थे । कहने का तात्पर्य है कि समस्या का मूल नहीं खोजता व्यक्ति, क्योंकि "मैं" का अनुसंधान नहीं करता व्यक्ति कि "मैं" का वस्तविक स्वरूप क्या है ? "मैं" अपनी शुद्ध जगह बैठ जाये तो कोई समस्या नहीं है और "मैं" जहाँ अशुद्ध जगह बैठ जाये तो दुःख ही दुःख है ।जहाँ कचरा फेका जा रहा है वहां आप बैठ जायें तो शरीर शुद्ध कैसे रहेगा ? आप कितना भी चिल्लाएं, आप बैठे ही ऐसी जगह हैं । अब ऐसी जगह आप बैठे हैं तो शरीर आपका शुद्ध नहीं रह सकता । इस शरीर में आप बैठ जायें तो तो आपकी शुद्धि सब गायब हो जायेगी । इसमे सब तरफ से अशुद्धि ही है । अपने "मैं" को ऐसी जगह बैठा देते हैं जहाँ समस्या ही समस्या है । आपका जो स्वाभाविक "मैं" है वह ढक जाता है ।
आपका शुद्ध "मैं" दर्पण के समान है । पर आपने उसको बैठा दिया दूसरी जगह । और उस जगह की समस्या उसमें भासित होने लगी । इससे आप सुखी-दुःखी होने लगे, इतना ही है और तो कोई बात नहीं । अब यह कैसे दूर हो ? गुरु ही दूर कर सकता है । कब दूर कर सकता है जब जगत का भजन छोड़कर के । गुरु का भजन करता है । "भजतां" जब जगत का भजन छोड़ देता है । जब इसके अन्दर पक्का हो गया कि जगत हमारी समस्या का समाधान नहीं कर सकता है । तब आप गुरु की शरण में जायेंगे । किसके लिए ? गुरु के पास जो तत्त्व है वह पा लें उसके लिए । तब आप गुरु का भजन करेंगे । तब आप ईश्वर का भजन करेंगे । जब तक यह स्थिति नहीं होती तब तक आप ईश्वर का भजन नहीं करेंगे, स्थिति न होने के बावजूद भी यदि ईश्वर को पकड़ेंगे तो वह पकड़ जगत के लिए होगी । ईश्वर के लिए नहीं होगी । ईश्वर के लिए ही ईश्वर को पकड़ें इतना ध्यान दीजिये ।
एक व्यक्ति ईश्वर का भजन कर रहा है, बहुत एकाग्र दिखाई दे रहा है ऊसका उतना महत्व नहीं है । आप सौ माला जपते हैं, उसका उतना महत्व नहीं है । सौ माला क्यों जपते हो इसका महत्व है । हां भाई ! भारतीय परंपरा बहुत विलक्षण है । ओंकारेश्वर में एक महात्मा थे बहुत पहले की बात है, रात भर बैठ करके जप करते थे । हमने कहा यह महात्मा रात भर बैठकर जप करता है तो थोड़े दिन तक मैं देखता रहा फिर हमने पूछ लिया एक महात्मा से, तो उन्होंने कहा कि बायें साथ से जप करता है । हमने कहा-- दायें हाथ में चोटादि लगी होगी, कहा-- नहीं । हमने उससे पूछा तो उसने कहा कि उसका एक शत्रु है उसको मारना है, तो उसमें बायें हाथ से जप करने का विधान है । अतः बायें हाथ से जप करता हूँ । ऐसा महात्मा ने कहा । हमने कहा--अरे ! महात्मा रात रात भर बैठकर जप करता है पर क्यों करता है ? लक्ष्य क्या है ? यह जो सिद्धांत है उसको ठीक समझ के रखना चाहिए और सदा मानना पड़ता है ।
भारतीय परंपरा के जो सिद्धांत हैं इनको कोई काट नहीं सकता, ये तीनो काल में एक समान चलते हैं । आज देखिए एक सैनिक बीस शत्रु सैनिक को मार देता है उसको महावीर पदक मिलता है । कोई एक चाकू दिखा देता है तो उसको फांसी होती है । बीस को मार दिया, भून दिया है उसको महावीर पदका क्यों मिलता है ? देखो उसकी दृष्टि में बीस को मारा नहीं, बीस को मारकर भी नहीं मारा । भारतीय अहिंसा को समझने की आलश्यकता है । हिंसा ऐक वृत्ति है । जो इसको नहीं समझता उसको हिंसा एवं अन्य सभी के विषय में ढ़ोंग करना पड़ता है । हिंसा एक वृत्ति है । सीमा पर स्थित सैनिक ने किसी को नहीं मारा । उसने अपने कर्तव्य का पालन किया, देश की रक्षा की, उसे भारी पुरस्कार मिलना चाहिए-- मिलता भी है । एक ने चाकू दिखाया पर क्यों दिखाया ? उसको मारने के लिए, उसकी संपत्ति लूटने के लिए, इसकी दृष्टि गलत है । उसकी दृष्टि गलत नहीं है उसकी दृष्टि सही है इसलिये उसको महावीर पदक मिलता है । इसकी दृष्टि गलत है इसलिए इसको फांसी पर चढ़ा दिया जाता है ।
"भजतां" जो लोग जगत के लिए भगवान का भजन नहीं करते हैं, किन्तु भगवान के लिए, अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित होने के लिए । सचचाई से भगवान का भजन करते हैं, गुरु का आश्रय ले लेते हैं । तो गुरु उनको कैसे ज्ञान देता है ? "स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया" । मुद्रा शब्द आगम में रहस्यात्मक है । आगम में मुद्रा का अर्थ मोदयति द्रावयति इति मुद्रा । आप देखते हैं कि जब कोई भी व्यक्ति अपनी वाणी का प्रयोग करता है तो उसके हाथ में एक प्रकार के मुद्राबनती रहती है । वह बनाता नहीं है, वह जानबूझकर नहीं बनाता, पर हाथ एक स्थिति में चला जाता है, मूख एक स्थिति में चला जाता है । इसका मतलब है कि उसका कुछ न कुछ संबंध है कि नहीं ? उस बाहरी उपदेश का उस हाथ की स्थिति से संबंध है कि नहीं ? कुछ न कुछ संबंध न हो तो ऐसा होता क्यों ? ऋषियों ने बड़ा गहन अध्ययन किया है, उसी आधार पर मुद्राओं का प्रचलन हुआ । इस प्रकार हाथ की स्थिति हो तो ऐसे संस्कार को बल मिले । इसलिए ज्ञान को प्रत्यक्ष करने वाली मुद्रा की, किसी को मारने की मुद्रा की, किसी को मूक करने की मुद्रा की भी चर्चा आती है । ऐसी हाथ की स्थिति और शरीर की जो स्थिति है, उस प्रकार के ज्ञान धारण आदि में सहयोगिनी है । सामान्य रूप से ज्ञान मुद्रा का स्वरूप यह मानते हैं कि जिसमें अंगूठा और तर्जनी का योग रहता है, तीन उंगलियां फैली रहती हैं ।तो ये आपके अन्तःकरण को ज्ञानाभिमुख मोदन उत्पन्न करती हैं, और अन्तःकरण को ज्ञानानुकूल ढालती है । मोयति द्रावयति इति मुद्रा । जो आपके अन्दर लक्ष्यानुकूल मोदन उत्पन्न करेगी और फिर लक्ष्यानुकूल आपके अन्तःकरण को ढालेगी इसलिये वह मुद्रा है ।
दूसरी चीज आप ध्यान दीजिये, मुद्रा क्या है ? वस्तुतः ज्ञानी पुरुष का व्यवहार, उठना, बैठना आदि सब मुद्रा ही है । वह कुछ भी उपदेश न करे आप उसके साथ रहिए घंटा दो घंटा एक दिन दो दिन । उसके अन्तःकरण में जो ज्योति की स्थिति है, उस स्थिति में बैठकर के ही सारा व्यवहार हो रहा है सर्वात्म भाव उसका क्षण भर के लिए कभी टूटता नहीं है, स्वरूप स्थिति उसकी एक क्षण के लिए टूटती नहीं है ।उस स्थिति में बैठकर के जो व्यवहार हो रहा है वह कैसा होगा इसकी कल्पना हम नहीं कर सकते और उसका हो रहा है । जिस समय वह कर्ता दिखाई दे रहा है उस समय भी वह कुछ नहीं कर रहा है । जिस समय वह उपदेश देता दिखाई दे रहा है उस समय भी वह उपदेश नहीं दे रहा है, क्योंकि जो आपका अक्रिय स्वरूप है उसमे उसकी प्रतिष्ठा है । उसका सारा का सार व्यवहार एकत्व में लीन है । जैसे पहले बता दिया । "विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं" उसकी सारी स्थिति दर्पण में केन्द्रित है और उसको व्यवहार "दृश्यमान नगरी" में दिखाई देता है । इसलिए ज्ञानी की जै स्थिति है वही मुद्रा है
परशुराम जी जंगल में जा रहे थे, एक पेड़ के नीचे देखा एक अवधूत पागल के समान बैठा हुआ है । उसके शरीर में धूल लगी हुई है, वह धूल में बैठा हुआ है, पर उन्होंने ने जब ध्यान से उसकी तरफ देखा तो यह बैठा तो पागल के समान है पर इसकी मुद्रा ऐसी है कि तीनो लोकों का साम्राज्य इसके चरणों में पड़ा है ऐसा दिखाई देता है । चाहे वह व्यवहार करता रहे चाहे बैठा रहे, उसकी स्थिति ऐसी ही होती है । परशुराम जी ने सोचा-- अहो ! मैने क्षत्रियों को पराजित किया, राज्य ले लेकर ब्राह्मणों को दे दिया, इतने हमने यज्ञ किये लेकिन यह व्यक्ति जो धूल में बैठा है इसकी तरफ देखने से लगता है कि तीनो लोकों का साम्राज्य इसके चरणों में लोट रहा हो। । वे आकर्षित हो गये । अवधूत ढेला फेकने लगे पर देखा कि ढेला उधर से तो बराबर आ रहा है पर शरीर में नहीं लग रहा है । उन्होंने सोचा ये पागल नहीं है । बोले महाराज आपकी मुद्रा ऐसी कैसे ? आपकी स्थिति ऐसी दिख रही है कि तीनो लोकों का साम्राज्य आपके चरणों में है, यह कैसे आपको प्राप्त हुआ ? उन्होंने एक बात कही पर उनको समझ में नहीं आयी । अवधूत ने कहा-- "दत्तात्रेय तुम्हारे गुरु होंगे उनके पास जाओ ।" कहने का अर्थ है मुद्रा माने स्थिति । शारीरिक, ऐन्द्रिक, मानसिक जो स्थिति है वह स्थिति ही शिष्य में संक्रान्त होती हो जाती है । वही स्थिति उसके "मैं" को जगा देती है । यही वास्तविक "भद्रया मुद्रया यो भजतां स्वात्मानं प्रकटीकरोति" यह स्थिति का नाम है ।
जिस समय विन्ध्याचल बहुत ऊपर जा रहा था, उस समय देवता लोग अगस्त्य के आश्रम में पहुंचे । वहां की स्थिति देख कर देवता चकित हो गये । वहां देखते हैं कि बाघिन लेटी हुई है । उसका बच्चा दूध पी रहा है । इतने एक मृग का बच्चा आता है और उसके बच्चे को हटाकर दूध पीने लगता है, वह सिर उठाती है, देखती है और फिर लेट जाती है । उसके मन में उस बच्चे को हटाने की वृत्ति ही मन में नहीं उत्पन्न हुई । यह कैसे हुआ ? अहिंसा की प्रतिष्ठा है अगस्त्य जी म़े, उनसे संबंधित वह आश्रम है । उस आश्रम में हिंसा वृत्ति आ ही नहीं सकती । बाघिन म़े हिंसावृत्ति नहीं आ रही है ।ऐसे गुरु में ज्ञान की प्रतिष्ठा है । ज्ञान-- प्रतिष्ठा होने से वहाँ का वातावरण ज्ञानानुकूल है । इसका अनुभव कौन करता है ? जो संसार से एकदम टूट जाता है । जिसको संसार में गति नहीं दिखाई देती है । "भजतां" गुरु की शरण में चला जाता है । तो वहाँ बैठने मात्र से बिना उपदेश के उपदेश हो जाता है । "मौनव्याख्याप्रकटितपरब्रह्मतत्त्वम्" दक्षिणामूर्ति गुरुतत्त्व ऐसा है कि वह मौन से ही उपदेश कर देता है अर्थात उसके मौन से ही उपदेश हो जाता है । उसकी स्थिति ही उपदेश बन जाती है शिष्य को आत्मा में प्रतिष्ठित कर देती है । 'यो भजतां भद्रया मुद्रया स्वात्मानं प्रकटीकरोति, तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये । ऐसे दक्षिणामूर्ति को हमारा नमस्कार है ।
यहाँ पर इसके द्वारा आपको बता दिया कि एक "मैं" किस प्रकार सर्वत्र व्याप्त है और इसी में सारा का सारा जगत कल्पित है ये दोनो उसी की शक्ति हैं आवरण करना उसी की शक्ति है और हटा देना उसी की शक्ति है यही उस शक्ति की कृपा है । अनुभवामृत में ज्ञानेश्वर जी कहते हैं-- महादेव निरावरण हैं, उस पर कोई आवरण नहीं हो सकता, वह एकदम नंगा है उस पर किसी उपाधि का कोई संबंध नहीं है । उमा भगवती ने देखा कि मेरा पति निरावरण है । उसको अच्छा नहीं लगा । उसने नाम रूप का पर्दा, एक चद्दर छोड़ दी । अब सबको नाम रूप ही दिखाई दे रहा है । महादेव नहीं, पर नाम रूप का पर्दा जिस पर पड़ा है वही महादेव है ।सबको नाम रूप दिखाई दे रहा है । अब भगवती कृपा करे और नाम रूप का पर्दा खींच ले तो जहाँ नाम रूप दिखाई दे रहा है, वहीं महादेव दिखें । उसी पर्दा की सत्ता पर तो आपको चित्र दिखाई दे रहा है । पर चित्र में हामरी दृष्टि केन्द्रित हो रही है, वहां तक नहीं जा रही है । जब गुरुकृपा करेगा तो वह शुद्ध "मैं" उदित होगी, तब आप देखेंगे कि सारा विश्व मुझमें कल्पित हो रहा है ।
एक विचार मानसोल्लास में दिया है यदि इस शून्य को जगत का कारण मान लिया जाये तो शून्य सर्वत्र अन्वित होना चाहिए, क्योंकि कारय कार्य में अन्वित होता है । फिर आपको अनुभव होगा घट शून्य है । घटोऽस्ति-- घट है ऐसा नहीं होगा । 'घटशून्य' है ऐसा होगा । शन्य सर्वत्र है तो घट के साथ शून्य लग जायेगा, पट के साथ शून्य लग जायेगा और मठ के साथ भी शून्य लग जायेगा, पर ऐसा थोड़े ही होता है । "घटोऽस्ति" सत्ता की अनुगति देखी जाती है । शून्य की अनुगति कभी नहीं देखी जाती है । इसलिए शन्य नहीं हो सकता है जगत का कारण । दूसरी बात क्या है कि यदि प्रत्यभिज्ञा को भ्रम मानोगे तो जगत का व्यवहार कैसे चलेगा ? आज भोजन करता है, उसमें रस आदि उसको आता है, उसी आधार पर दूसरे दिन वही भोजन मांगता है । यदि प्रत्यभिज्ञा भ्रम है तो व्यवहार कैसे बनेगा ? पहले दिन के व्यवहार को जोड़ करके दूसरे दिन व्यवहार करता है । कल जो मीठा खाया था उसके साथ जोड़कर कहता है कि कल वाला है, भले ही न हो । झट प्रत्यभिज्ञा उसको आती है उसका अलाप कैसे कर सकते हो ? इसका अलाप करोगे तो व्यवहार कैसे करोगे ? कहा--भाई देखो— एक बात हमारी समझ में नहीं आती है । आपने कहा चिद्दर्पण से अतिरिक्त कुछ नहीं है तब बंधन किसको हुआ, मोक्ष किसको हुआ और व्यवहार कैसे हो रहा है ? चिद्दर्पण है ही नहीं यह सिद्धांत आप बनाते हैं । सारे विश्व को दर्पणदृश्यमाननगरी के समान मानते हैं और दर्पण में ही, आपके स्वरूप में ही विश्व कल्पित है तो बंधन किसको हुआ ? चेतन को बंधन हो नहीं सकता और जड़ तो है ही नहीं, तो बंधन का सवाल ही नहीं । जड़ में क्या बंधन होता है ? आत्मा शुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव चैतन्य ही है उसको बंधन होगा नहीं, कल्पित को तो बंधन होने का प्रसंग ही नहीं है फिर बंधन किसको होता है ? मूक्त कौन होता है ? स्वरूप तो नित्यमुक्त है । नित्यमुक्त हुआ तो मोक्ष किस काम का ? दुनिया भर के सतसंग का आयोजन किसके लिए किया जा रहा है । कौन सुनाने वाला है और कौन सुनने वाला है ? यह सारा का सारा व्यवहार कैसे हो रहा है ? इसका उत्तर देते हैं......
क्रमशः -----
ॐ
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