षष्ठम श्लोक, प्रवचन

अब है कि जब सुषुप्ति हो जाती है, गहरी निद्रा में सो जाते हैं तो आप वहां रहते हैं कि नहीं ? यदि आप वहाँ पर रहते हो तो उसका ज्ञान होना चाहिए । वहां तो कोई ज्ञान होता ही नहीं । अतः यदि वहां ज्ञान नहीं होता है तो शून्य ही मानना पड़ेगा । यदि आत्मा प्रकाश रूप हो तो सुषुप्ति में ज्ञान होना चाहिए, सुषुप्ति में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता है । खाली शून्य रहता है । इसलिये आत्मा का स्वरूप, जगत का स्वरूप शून्य ही माना जाये । यह जो शू्न्यवादी का कथन है, इस शंका को दूर करने के लिए अगला श्लोक है---

राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।६।।

                   यह जो चेतन पुरुष है, उसका स्वरूप क्या है ? 'सन्मात्रः'सत्ता मात्र है वह । सत्ता मात्र ज्ञप्तिस्वरूप है । जब सत्ता मात्र है, ज्ञप्तिस्वरूप है तो सुषुप्त कैसे हो जाता है ? कहते हैं "करणोपसंहरणतो"--जब करणों का उपसंहार हो जाता है । जाग्रत में तो बाह्य करण भी हैं हमारे पास । अन्तःकरण भी हमारे पास है । बह्यकरण और अन्तःकरण एवं विषय को लेकर के सारा का सारा व्यवहार होता है जब हम सो जाते हैं तब क्या होता है ? ये बाह्यकरण तो सो जाते हैं । नेत्रादि सब बंद हो जाते हैं शरीर भी पड़ा रहता है, मन उस समय जाग्रत रहता है । मन सारा का सारा निर्माण कर लेता है, तब सारा का सारा व्यवहार होने लगता है । पर जब मन रूपी करण का भी उपसंहार हो जाता है तब आप सुषुप्ति में चले जाते हैं । विशिष्ट प्रकाश उस समय नहीं रहता, पर अपने सामान्य प्रकश में रहता है । बल्ब के माध्यम से विशिष्ट प्रकाश मालूम होता है, और बल्ब का माध्य छूट जाये तो तो यह प्रकाश विद्युत रूप में रहता है, प्रकाश नहीं जाता है । जब विशिष्ट प्रकाश रहेगा तो विशिष्ट प्रकाश का प्रकाश्य प्रकाशक भाव रहेगा ।

           करण के उपसंहार हो जाने पर यः पुमान्--सुषुप्तोऽभूत्-- यह कहा था कि सो गया । श्रुति कहती कि "स्वपिति" अपने में चला गया वह बहिर्मुखता छोड़ दिया ।वह गया कहां ? श्रुति कहती है-- स्वपिति-- सो रहा है-- स्वं अपिति-- अपने में चला गया है वह । अपने वास्तविक घर में आकर बैठ गया, व्यवहार छोड़ दिया । व्यवहार क्यों छोड़ दिया ? व्यवहार न छोड़े तो थक जायेगा । व्यवहार तो इसको थकाता है । जाग्रत में, स्वप्न में हम शक्ति तो खर्च ही करते हैं, थकते हैं । यह भ्रम होता है कि शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध से हमको पोषण मिलता है । यदि हमको पोषण मिलता तो हमको सुषुप्ति में जाने की आलश्यकता नहीं थी । थक जाता है तो अपने स्वरूप में चला जाता है । वहां से इसकी बैटरी चार्ज हो जाती है । फिर जाग्रत और स्वप्न में खर्च करता है । फिर बैटरी कमजोर हो जाती है । यहां तो खर्चा ही खर्चा है । यहाँ से कुछ मिलता है नहीं, तो फिर स्वरूप में चला जाता है । मन को स्वरूपस्थ कर देता है-- "तदा सौम्य सता सम्पन्नो भवति" --- इसकी बैट्री चार्ज हो जाती है । फिर जाग्रत स्वप्न में खर्च करता है, यही खेल चल रहा है । इसका कहते हैं-- सुषुप्त । सुषुप्त संज्ञा होती है, कैसे होती है ? क्या उदाहरण है ? कहा देखिए आकाश में सूर्य है, सूर्य का प्रकाश हो रहा है । चंद्रमा है चंद्रमा का रात्रि में प्रकाश हो रहा है ।दिन में सूर्य का प्रकाश होता है । कभी कभी ग्रहण लग जाता है । तो ग्रहण लग जाता है, तब क्या सूर्य का प्रकाश खत्म हो जाता है ? बादल से सूर्य ढक जाये तो सूर्य का प्रकाश खत्म हो जायेगा ? अरे ! बदल भी उसी प्रकाश से प्रकाशित हो रहा है, भाई ! राहु भी प्रकाशित हो रहा है सूर्य प्रकाश से ही । राहु जो सूर्य को ढका हुआ है वह भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित हो रहा है, पर हमको लगता है कि सूर्य गायब हो गया है । राहु खा गया है उसको । राहु क्या खायेगा उसको ? राहु भी उसी से प्रकाशित है । सूर्य के प्रकाश में कोई अन्तर नहीं है, हमारे नेत्र से ग्रहीत नहीं हो रहा है । ठीक इसी प्रकार सुषुप्ति में हो रहा है । इसी प्रकार--- "राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशः"  राहु से ग्रस्त दिवाकर माने सूर्य, इन्दु माने चंद्रमा, उसके समान । यहाँ राहु क्या है ? "मायासमाच्छादनात्"--- अज्ञान रूपी जो माया है उसने आच्छादित कर लिया है । मन इन्द्रिय सभी को आच्छादित कर लिया है तो मालूम होता है आत्मा आच्छादित हो गया ।

               "करणोपसंहरणतः" करणों के उपसंहार हो जाने से "यः सन्मात्रः पुमान्" अर्थात प्रकाश रूप है वह "सुषुप्त अभूत्" उसकी सुषुप्त संज्ञा होती है । वह सुषुप्त कहा जाता है वह नहीं सोता है । करण के उपसंहार से सुषुप्त हो जाता है । यह आपने कैसे जाना उस समय था ? अपने अनुभव में सब लोग देखैं-- कभी भी अपने विषय में किसी को शंका नहीं होती कि मैं नहीं था, किन्तु मैने कुछ नहीं जाना, सुख से सोया । पर उसको कभी शंका नहीं होती कि मैं नहीं था । जागने के बाद किसी को शंका होती है कि मैं नहीं था ? वह कहता क्या है ? मैं बाहर से काम करते करते थक गया था, फिर मैं आया, फिर मैं सो गया, फिर कुछ भी भान नहीं रहा, बड़ी गहरी निद्रा आयी, ऐसे सुख से सोया हूँ । अब जगा हूँ । जो जाग्रत में व्यवहार कर रहा था उसी ने सपना देखा, वही सपने में गया और वही सुषुप्ति में गया । और वही जग करके कहता है कि मैं नींद में सो गया था, मुझे कुछ भी भान नहीं रहा । यह माया का आच्छादन है, अज्ञान है । सुख क्या है ? सुख स्वरूपगत-- निरायास सुख है, क्योंकि जाग्रत एवं स्वप्न में तो खर्चा ही खर्चा था वहां तो थकान थी, सुषुप्ति में थकान नहीं है, खर्चा नहीं है तो स्वरूपगत सुख का अनुभव करता है । सुषुप्ति से फिर जाग्रति में आ जाता है ।

             जो तीन कमरों में घूम रहा है तीनों कमरों से अलग होगा कि नहीं होगा ? वह तीनों कमरों से अलग है ।वह जाग्रत वाला भी नहीं है, स्वप्न वाला भी नहीं है और सुषुप्ति वाला भी नहीं है । तीनो से पृथक न हो तो एक से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में कैसे जायेगा ? इसीलिए जग कर कहता है--- "यः प्रबोधसमये प्रागस्वाप्समिति प्रत्यभिज्ञायते" जो जागने पर इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा करता है वही मैं हूँ । ऐसा नहीं कहता कि जाग्रत में मैं दूसरा था, स्वप्न में मैं दूसरा था फिर सो गया तो मैं तीसरा हो गया । अब चौथा उठा हूँ । ऐसी प्रत्यभिज्ञा किसी को नहीं होती । ऐसी पहचान नहीं होती है । कैसी पहचान होती है ? जो जाग्रत में व्यवहार कर रहा था । इसी तरह प्रत्यभिज्ञा होती है । प्रत्यभिज्ञा पर कल विचार आयेगा । स्मृति और प्रत्यभिज्ञा में क्या अन्तर होता है उसको कल बताएंगे । यह प्रत्यभिज्ञा होती जो मैं जाग्रत में व्यवहार कर रहा था वही मैं सपने में था । वही मैं गहरी निद्रा में सोया कुछ भी भान नहीं था वही मैं जगा हूँ । इसका मतलब जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति में जो आपकी उपाधि है उस उपाधि वाले आप नहीं हैं । इससे आप जब अपने को पृथक् देखेंगे तो आपको परिच्छिन्न कौन करेगा ? आपका व्यापक स्वरूप स्वतः सिद्ध हो जाता है । तीनो अवस्थाओं से पृथक् ज्ञात होता है । "यः प्रत्यभिज्ञायते" किसको प्रत्यभिज्ञा हो रही है ? यहाँ देखिए "यः प्रत्यभिज्ञायते" । यहाँ कर्मकर्तरि प्रयोग है, इसको पहचान करने वाला जान लिया जाता है, पहचान वाला हो जाता है । ऐसा नहीं कि उसकी किसी ने पहचान नहीं की । पर वह स्वयं प्रकाश हो गया । वह स्वयं ऐसा पहचान वाला हो गया कि मैं ही जाग्रत में था, मैं ही स्वप्न में था, मैं ही सुषुप्ति में गया । इस लिए प्रत्यभिज्ञायते कर्मकर्तरि प्रयोग है ।ऐसा बोध जिसका हो जाता है, स्वतः इस रूप में जो प्रकाशित हो जाता है वह ही दक्षिणामूर्ति गुरुतत्त्व है, उसको हमारा नमस्कार है ।

                   गत श्लोकों की कुछ और जानकारी देंगे । पिछले दो श्लोकों का भी एक एक विवेचन कर लेना चाहिए । शरीर (मैं आत्मा) नहीं हो सकता । क्यों नहीं आत्मा हो सकता ? दृश्यत्वात्, जड़त्वात्, भौतिकत्वात्-- यह दृश्य है, "यह" जाना जा रहा है, जो दृश्य है वह "यह'" मैं नहीं हो सकता । इसलिए शरीर आत्मा नहीं हो सकता । "यह" जड़ है । आत्मा तो चेतन है । "यह" मुर्दा के समान पड़ा रहता है । "यह" कुछ भी नहीं जानता । फिर आत्मा कैसे हो सकता है ? रूपादि वाला जगत । आत्मा अशब्द, अस्पर्श, रूपादि से रहित है । अतः यह आत्मा नहीं हो सकता ।  "यह" अवयव वाला है आत्मा निरवयव है, इसलिये यह आत्मा नहीं हो सकता है । "यह" भूतों का कार्य है, आत्मा भूतों का कार्य नहीं हो सकता है । जैसे घट आत्मा नहीं है ऐसे "यह" शरीर आत्मा नहीं है ।

                    कहो कि प्राण को आत्मा मानने में क्या दोष है ? क्योंकि लोक में देखा जाता है कि जब तक प्राण रहते हैं तब तक इसको रखा जाता है। प्राण निकल गया तो फिर जला देते हैं । प्राण ही इससे निकल गया तो प्राण ही आत्मा हो सकता है । प्राण आत्मा नहीं हो सकता है । आत्मा का मुख्य गुण है जानने वाला । सुषुप्ति में हम सो गये, इन्द्रियां सो जाती हैं प्राण जगता रहता है, पर चोरी हो जाये तो प्राण को कुछ भी पता नहीं रहता है । यदि प्राण जग रहा है तो उसको मालूम होना चाहिए । यदि प्राण आत्मा होता तो उसको जान लेना चाहिए था । इसलिए प्राण आत्मा नहीं है । दूसरी बात कहो प्राण सर्वश्रेष्ठ है राजा है । अरे प्राण राजा कैसे है ? यदि राजा काम में लगा रहे तो नौकर सो जायेंगे ? यदि प्राण इसका राजा हो तो प्राण नित्य काम में लगा हुआ है और इन्द्रियां सोई हुई हैं, तो नौकर सोयेंगे थोड़े ही । इसलिये प्राण राजा नहीं हो सकता । तो यह जीवात्मा संकल्प करता है कि मैं सो जाऊं, इन्द्रियां उसके संकल्प से सो जाती हैं, उसके संकल्प से सोती हैं । इसलिए प्राण आत्मा नहीं हो सकता है । क्षणिक बुद्धि में जो ज्ञान है वह आत्मा क्यों नहीं हो सकता ? तो बुद्धि क्षणिक है, तुम क्षणिक मानते हो, पूर्वपर का परामर्श कौन करेगा ?  अरे ! प्रथम क्षण प्रथम आत्मा, दूसरे क्षण दूसरा आत्मा, तीसरे क्षण तीसरा आत्मा हो जायेगा तो पूर्वपर का परामर्श कौन करेगा ? एक ही क्षण में तो उसकी उत्पत्ति एवं विनाश हो जाता है । कल मैने व्यवहार किया फिर मैं सो गया । कल हमने द्वितीय श्लोक कर लिया था, आज तृतीय श्लोक पढ़ रहे हैं ।इस प्रकार का परामर्श कौन करेगा ? प्रतिदिन तो नये नये काम होंगे, आत्मा नया होगा । इसलिये बुद्धि भी आत्मा नहीं हो सकती ।है शून्य तो आत्मा कहा ही नहीं जा सकता है ।

                  भाष्यकार भगवान कहते हैं कि ये शून्यवादी इतने भ्रष्ट हैं कि वे आकाश को मुठ्ठी में बाध ले जाना चाहते हैं । अरे ! आकाश को तुम कैसे बांधोगे ? इधर तुम कहते हो "शन्यम् आसीत्" शून्य ही था । शून्य से ही उत्पन्न हुआ सब शून्य ही है । अरे ! शून्य को जाना किसने ? जानने वाला तो शून्य से भिन्न होगा कि नहीं ? शून्य का प्रकाशक कौन है ? जो प्रकाश है वही आत्मा है ।।  👉इसलिए आत्मा की खोज करनी हो तो एक लक्षण समझकर रखना चाहिए "जानने वाले का नाम आत्मा है ।" यहाँ पर यही जानना चाहिए । यहां पर यही खोजना चाहिए कि जो जाना जा रहा है वह अनात्मा है, जो जानने वाला है वह आत्मा है, आत्मा को जानने के लिए अन्य प्रकाश की जरूरत नहीं है । इसलिए वह स्वयं प्रकाश है ।

                 साक्षात् अपरोक्ष के विषय में हमने पहले ही चर्चा कर ली थी । नाड़ियों के उद्भव का जो केंद्र है उसको हम संक्षेप में आज संकेत कर देते हैं । हमारे शरीर में मूलाधार नामक एक नाड़ियों का केंद्र है । वह गुदा के भाग से दो अंगुल ऊपर, मेढ्र भाग से दो अंगुल नीचे ये जो चार अंगुल का भाग है उसके मध्य में एक केन्द्र है जिसको हम मूलाधार कहते हैं । मूलाधार एक ऐसा केन्द्र है जहाँ से सभी प्रकार की नाड़ियों का उद्भव होता है । ये नाड़ियां शरीर में व्याप्त हैं । कर्म कराने वाली, ज्ञान कराने वाली ये सभी नाड़ियां वहीं से निःसृत हैं । शास्त्र में उनकी संख्या बहुत आती है-- बहत्तर लाख, बहत्तर हजार, दो सौ एक ऐसी कुछ करके हैं । एक सौ एक नाड़ी मुख्य मानी गई हैं । उसके मध्य से निकली हुई एक सुषुम्णा नाड़ी है ।जिसका इस ब्रह्मरन्ध्र से संबंध है और उस नाड़ी का संबंध ब्रह्मलोक तक है । सूक्ष्म है, जैसे शब्द सुनते हैं, शब्द का संबंध वहां तक होता है । विभान्न प्रकार की नाड़ियां हैं, उसी से सभी प्रकार की व्यवस्था अलग अलग चलती है । अब इस विषय में थोड़ी बात कल बता देंगे फिर आगे का प्रसंग लेंगे ।

             विचार दक्षिणामूर्ति स्तोत्र का चल रहा है । कल इस प्रसंग में तीन श्लोकों की बात कही गई थी । पहले में यह प्रसंग आया था कि एक प्रकाशात्मक सत्ता है तो एक समान सब भासित होना चाहिए, दूसरी बात कि ऐसा क्यों मान लिया जाये कि सभी पदार्थ अपने अपने प्रकाश से ही प्रकाशित हो रहे हैं ? उसका उत्तर दिया था कि सभी एक ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं । हम पहले बता चुके हैं कि बुद्धि में दो भाग हैं एक ज्ञान भाग एवं एक क्रिया भाग ।उसी से ज्ञानेन्द्रियों का संबंध है उसी से कर्मेन्द्रियों का संबंध है । ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के माध्यम से वही प्रकाश विभान्न प्रकार के विषयों को प्रकाशित करता है । इसलिए एक ही प्रकाश से सब के सब प्रकाशित हो रहे हैं । उदाहरण दिया--एक घड़ा हो, बहुत बड़ा हो उसमें प्रकाश के लिए बहुत से छेद बना दिये जायें और उसमें एक महाप्रकाश रख दिया जाये और छेदों से बाहर एक ही प्रकाश भिन्न भिन्न दिशाओं में जाता है और भिन्न भिन्न प्रकार का प्रतीत होता है उसी प्रकार यहाँ भी एक ही आत्मप्रकाश है, उसी के माध्यम से इन्द्रियां प्रकाशित कर रही हैं । आत्म प्रकाश से भिन्न दूसरा प्रकाश नहीं है ।

                 ज्ञान शक्ति जो अन्तःकरण में है उसके माध्यम से उसकी ज्ञाता संज्ञा हो जाती है । वही ज्ञात-- कर्ता करके यहाँ प्रतीत होता है ।

                 इसमें एक विस्तार में सुरेश्वराचार्य भगवान ने अपने वार्तिक में लिखा है उसमें नाड़ी संबंधी कथन का विस्तार किया है । शरीर के मध्य भाग में मूलाधार चक्र है उसी सं संबंधित होकर के नाड़ियों का पूरा जाल है । वह नाड़ी जाल ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों के कार्य में सहयोग देता है । नाड़ी जाल के अन्दर से रक्ता संचार होता है और उसी से यह सारी की सारी प्रक्रिया चलती है । उसमें सुषुम्णा नाड़ी का संबंध किस प्रकार ब्रह्मरन्ध्र से है ? इडा का, पिंगला का कैसे वायु से संबंध है ? अन्य विभिन्न प्रकार की नाड़ियां किस प्रकार विभिन्न प्रकार के कार्यों में सहयोग देती हैं ? इसका विस्तृत वर्णन है । पर पूरे का तात्पर्य यही निकला कि एक ही प्रकाश विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से सारे जगत को प्रकाशित कर रहा है । अब उसमें अनुभूति बता दिया कि "जानामि' मैं की व्याप्ति के बिना "यह" संभव नहीं होता है, तो "मैं" पूर्व में सिद्ध होता है "यह" पश्चात सिद्ध है । "मैं" के बिना यह की सिद्धि नहीं है । इसलिए "जानामि के अन्दर जो अनुभूति है "मैं" की, उससे यही निर्धारित होता है कि जानने वाला एक ही है दूसरा नहीं ।
                   दूसरे मे यह बता दिया कि उस परमेश्वर की मायाशक्ति विलक्षण है । बड़े बड़े विद्वान उसमें मोहित हो जाते हैं और विवेक से रहित होकर भिन्न भिन्न प्रकार का निश्चय कर लेते हैं । कोई शरीर को ही आत्मा मान लेता है तो कोई मन को ही आत्मा मान लेता है । कोई क्षणिक बुद्धि को आत्मा मान लेता है, कोई शून्य को आत्मा मान लेता है । इस प्रकार विभिन्न प्रकार का भ्रमजाल मायाशक्ति ने उत्पन्न करके रखा है । तब तक यह साधक जगत से वैराग्य प्राप्त करके गुरु की शरण में नहीं जाता है तब तक माया की आवरण शक्ति दूर नहीं होती है उसको भ्रम बना रहता है । संदेह से रहित नहीं होता है । इसके बाद एक प्रश्न आया था शू्न्यवादी का कि यदि कोई नित्य आत्मा होता तो सुषुप्ति में भासित होना चाहिए, पर सुषुप्ति में तो कोई ज्ञान नहीं होता इसलिए यह निर्धारित होता है कि शून्य ही सबकी उत्पत्ति का हेतु है । शून्य से उत्पत्ति कैसे होगी ? कहा-- सभी क्षणिक है, सभी शून्य है । चार भूतों के परमाणु भी क्षणिक हैं । वे सारे व्यवहार के लिए पंचस्कंध माते हैं-- रूप स्कंध, विज्ञान स्कंध, संज्ञा स्कंध, संस्कार स्कंध और वेदना स्कंध । ऐसे पंचस्कंध उनका सिद्धांत है । उसी के आधार पर सारा व्यवहार मानते हैं ।

               उसमें रूप स्कंध क्या है ? विषय और इन्द्रियां ये हैं रूप स्कंध और इनका जो ज्ञान हो रहा है उनकी दृष्टि में यह विज्ञान स्कंध है । संज्ञा स्कंध में जाति आदि हैं, गुण हैं । जैसे आपने गौ एक संज्ञा कर दिया, उसमें गोत्व जाति रहेगी, उसमें लाल, सफेद, काला आदि गुण रहेगा ।वह चल रही है, चलती हुई गाया का क्रिया से संबंध हो जायेगा, इस तरह संज्ञा स्कंध मानते हैं । राग, द्वेष, पुण्य, पाप ये संस्कार स्कंध हैं । वेदना स्कंध में सुख, दुःख और मोक्ष को मानते हैं । ये कहते हैं पंचस्कंध हैं, यद्यदि ये क्षणिक हैं फिर भी पंचस्कंध के माध्यम से सारा व्यवहार चलता है । पर यदि आप शून्य मान लेंगे तो । इनका संघात, इनका संपर्क कौन बनायेगा ? बिना चेतन के तो इनका संपर्क बन नहीं सकता । चेतन कोई हो तो बहुत प्रकार के अवयव होने पर भी एक विवेक पूर्ण ढंग से नियोजित कर सकता है । वहां पर जहाँ कोई चेतन सत्ता है ही नहीं, एक शून्य ही है तो वहां संघात योजना क्यों है ? तुम्हारी दृष्टि से जब सब शून्य ही है तो तपस्या काहे को करते हो ? जब कुछ है ही नहीं तो तपस्या काहे के लिए ? इत्यादि सारी चीजें हैं, मुख्य चीज है कि चेतन के बिना नियमित प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । व्यवहार में एक नियमित प्रवृत्ति देखी जाती है । वह बिना चेतन के संभव नहीं है । इस प्रकार यहाँ बता दिया कि जैसे सूर्य राहु से आच्छादित हो जाता है तो मालूम होता है कि सूर्य नहीं है, पर सूर्य नहीं है यह बात नहीं है । वह राहु भी सूर्य से प्रकाशित हो रहा है । बादल से सूर्य ढक जाये तो हम कहते हैं सूर्य नहीं है । अरे ! सूर्य कैसे नहीं है ?.बादल भी उसी से प्रकाशित हो रहा है, आवरण भी उसी से प्रकाशित हो रहा है । आवरण का राहित्य भी उसी से प्रकाशित हो रहा है । आत्मा का अपलाप कोई नहीं कर सकता । सबको आप हटा सकते हैं, सबका आप निषेध कर सकते हैं । अपना निषेध करेंगे आप ? निषेध करने वाला कौन रहेगा ?  सबका तो निषेध किया जा सकता है पर स्व का निषेध नहीं किया जा सकता, क्योंकि स्व का निषेध कौन करेगा ? जो निषेध करेगा वही स्व होगा ,वही आत्मा होगा । इसलिए वह चाहे कोई भी पक्ष हो स्व का निषेध करने में समर्थ नहीं है तो स्व का निषेध करने वाला बौद्ध दर्शन विवेकी के द्वारा अग्राह्य है ।

              अपने यहाँ एक बहुत बड़ी विलक्षणता है, बुद्ध को हम अवतार मानते हैं और बौद्ध दर्शन का खंडन करते हैं । बुद्ध ने जो उपदेश दिया वह दर्शन नहीं है, जो उपदेश दिया वह ग्राह्य है । उनका उनका उच्चकोटि का तपोमय जीवन आदर्श है । पर अपने यहाँ भगवान भी वेद विरुद्ध बात करे तो अमान्य है । वेद भगवान का प्रकट किया हुआ संविधान है । संविधान के विरुद्ध वह भी नहीं बोल सकता । जब संविधान बन जाता है तब संविधान बनाने वाला भी संविधान के विरुद्ध नहीं बोल सकता । ऐसे वेद रूपी संविधान भगवान ने सृष्टि के आदि में प्रकट किया, जीवों के कल्याण के लिए वह हमारे लिए संविधान है । हम सभी बातों को उसी पर कसते हैं । उसके अनुकूल है तो मान्य है, अनुकूल नहीं है तो मान्य नहीं है । उसके प्रतिकूल नहीं होना चाहिए । भले ही उसमें नहीं कहा गया हो.। जितना प्रतिकूल भाग है उतना हम नहीं मानेंगे । उसमें भी चार भाग हैं सौतान्त्रिक, वैभासिक, योगाचार, माध्यमिक । सौत्रान्तिक बाह्य को मानते पर सब क्षणिक मानते हैं । क्षणिक होने से बाह्य पदार्थ अनुमेय है, ऐसी उनकी मान्यता है । वैभाषिक कहते हैं कि बाह्य पदार्थ है और वह प्रत्यक्ष है । अनुमेय और प्रत्यक्ष मानने वाले होने से सौत्रान्तिक और वैभाषिक सर्वास्तित्ववादी कहे जाते हैं, विज्ञानवादी कहते हैं बाह्य वस्तु कोई है ही नहीं, एक क्षणिक विज्ञान है उसका प्रवाह चल रहा है । घट ज्ञान, पट ज्ञान, मठ ज्ञान, प्रवाह चलता है ।एक क्षण में ही उत्पन्न हो के नष्ट हो जाता है, उसका प्रवाह है । "वही है" यह प्रत्यभिज्ञा भी भ्रम है यह भ्रम से मालूम होता है । उनकी दृष्टि कोई आत्मा भी है तो वह क्षणिक है वे क्षणिक विज्ञान को आत्म रूप करके मानते हैं । पर शून्यवादी तो मानते ही नहीं । ऐसे चार विभाग उनके दर्शन में हैं ।

              चार विभाग बुद्ध ने नहीं बनाये । उन्होंने तो उस समय की जो कुरीतियां थीं, उन कुरीतियों को दूर करने के लिए उपदेश किया और वह उपदेश मानव जीवन से संबंधित उपदेश है । वह शास्त्री उपदेश था । उसका विरोध नहीं है । पातंजलयोगदर्शन है । उसका सारा का सारा प्रक्रिया भाग हमें स्वीकार है । उसको अपने साधन में लेते हैं ।पर सिद्धांत में जो अनेक पुरुष-प्रकृति का स्वातंत्र्य है प्रकृति में कर्तृत्व और पुरुष में भोक्तृत्व यह जो भेद है इन तीन बातों को वेदान्त स्वीकार नहीं करता । क्योंकि श्रुति के विरुद्ध पड़ता है । बाकी सारी चीजें हम स्वीकार करते हैं । यह जो प्रक्रिया है यह समझने की बात है ।सिद्धांत की बात जहाँ पर आती है तो वैदिक सिद्धांत के विरुद्ध कोई भी बात आती है तो हम उसको स्वीकार नहीं करते हैं । पर साधन अंश, जीवन का आदर्श बुद्ध जी के जीवन का जो आदर्श है, महावीर के जीवन का जो आदर्श है, तपस्या है, तपस्या को सम स्वीकार करते हैं । आदर्श के रूप में स्वीकार करते हैं ।

                   बहुत इसमें । विचार शैली अलग अलग होने पर भी जीवन आप देखेंगे तो सबक त्यागमय है । संसार से विरक्त हैं । एक आदर्श जीवन दिखाई देता है । खंडन की जो प्रक्रिया है वह सिद्धांत की दृष्टि से होती है । साधना की दृष्टि से उसकु खंडन नहीं होता है । यह बात ध्यान में रखनी चाहिए । यहां कहा कि जो सन्मात्र परमात्मा है जब करण का उपसंहार हो जाता है तब सुषुप्त के समान मालूम होता है । करण का ज्ञान नहीं होता उस अवस्था का भी प्रकाश होता है । तभी यह जग करके कहता है मैं जगा, मैं बड़े सुख से सोया कुछ भी भान नहीं हुआ । वहां जो आत्मा का अस्तित्व न हो तो प्रत्यभिज्ञा कैसे होती ? यह जो प्रत्यभिज्ञा होती है, यह प्रत्यभिज्ञा ही आत्मा के सर्वत्र अस्तित्व को सिद्ध करती है और इसी से सिद्ध होता है कि सभी स्थितियों में आत्मा है ।

             वह कहता है कि मैं ही जग रहा था, काम करते करते थक गया, फिर लेट गया, निद्रा आ गई, फिर सपना देखा, फिर पता नहीं कब गाढी निद्रा में चला गया, मैं ही अभी उठा हूं । जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति जो तीनों अवस्थाओं का अनुभव करने वाला है ये तीनो अवस्थाओं से पृथक है । यहाँ तीनो अवस्थाओं का परस्पर संबंध नहीं है । जाग्रत में स्वप्न नहीं है, स्वप्न में जाग्रत नहीं है, सुषुप्ति में स्वप्न नहीं है, स्वप्न में सुषुप्ति नहीं है, यह तीनो एक दूसरे में नहीं हैं । पर आत्मा का अस्तित्व तीनो में है इसलिए आत्मा तीनो अवस्थाओं से भिन्न हुआ । "मैं" का जो अर्थ हुआ वह तीनो अवस्थाओं से भिन्न हुआ ।

क्रमशः -----

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