नवम श्लोक, प्रवचन



               हम लोग दक्षिणामूर्ति स्तोत्र के विषय में पिछले कई दिनों से विचार कर रहे हैं । आज उसका अन्तिम दिन है । दो श्लोक शेष हैं....

भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमा-
नित्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् ।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो
स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।९।।

                 कल बात आयी थी कि "माया परिभ्रामितः पुरुषः विश्वं पश्यति" । वस्तुतः यह जो जगत दिखाई दे रहा है, मायिक दृष्टि से दिखाई दे रहा है । जब स्वप्न का जग दिखाई देता है तब आपके ये नेत्र तो बंद रहते हैं, तो किसी न किसी नेत्र से दिखाई देता होगा कि नहीं ? वहां भी शब्द अलग सुनाई पड़ता है, रूप अलग दिखाई देता है, स्पर्श का अनुभव अलग होता है । ये इन्द्रिय गोलक तो काम कर नहीं रहे । तब शंका होती है कि स्वप्न में पदार्थ का ज्ञान कराने वाली इन्द्रियां कल्पित हैं या वास्तविक ? पर उनसे सारा व्यवहार हो रहा है, सारी की सारी अनुभूति हो रही है । जगने पर उनके अस्तित्व का अभाव होने से उन्हें कल्पित ही मानना पड़ेगा । उन्हीं कल्पित नेत्रों से स्वप्न के पदार्थों की अनुभूति होती है । वह अनुभूति उसी प्रकार से होती है जैसी अनुभूति हमको इस समय मायिक नेत्रों से हो रही है । अनुभूति में कोई अन्तर नहीं है । अब वहां से जब जागते हैं तो स्वप्न बाधित हो जाता है । बाधित हो जाता है माने उसमें मिथ्यात्व की अनुभूति हो जाती है । कि जो हमने देखा वह वास्तविक नहीं था । पर जब तक हम स्वप्न देखते हैं तब तक उनकी वास्तविकता वैसी ही होती है जैसी जाग्रत की । जगाने के बाद उसकी वास्तविकता नहीं मालूम होती है । उसकी स्मृति तो रहेगी पर उसकी वास्तविकता निकल जायेगी । यहाँ से-- जाग्रत सो सोकरके सपना देखते हैं और यहाँ जागते हैं तो बाधित हो जाता है । ठीक इसी प्रकार स्वरूप से सोकर हम व्यावहारिक सपना देख रहे । जब तक स्वरूप में नहीं जायेंगे तब तक बाधित नहीं होगा ।

              ये माया के नेत्र हैं । जैसे स्वप्न के नेत्रों से स्वप्न के पदार्थ दिखाई देते हैं वैसे ही मायिक नेत्रों से मायिक पदार्थ दिखाई देते हैं । यहाँ इन्द्रियां भी मायिक और विषय भी मायिक हैं । दोनो माया के साथ हैं ।  किन्तु स्वप्न म़े इन्द्रियां और पदार्थ मन के द्वारा कल्पित हैं, इसलिये विश्व जो दिखाई देता है वह माया से ही दिखाई देता है और माया से जो वस्तु दिखाई दे रही है वह वास्तविक नहीं है । हमारे अन्दर ज्ञाननेत्र बंद हैं ।मायिक नेत्र खुले हैं । स्वप्न में स्वप्न के नेत्र खुले थे माया के बंद थे, इसलिये स्वप्न के पदार्थ दिखाई देते थे, मायिक पदार्थ नहीं दिखते थे,पर अब आप जग गये तो मायिक नेत्र से मायिक पदार्थ दिखने लगे । वास्तविकता जिसमें दिखाई देती है । वास्तविकता की अनुभूति जिससे होती है वह ज्ञाननेत्र अभी बंद है सबके पास, मनुष्य मात्र के पास वह है ।वह बंद न हो तो मायिक व्यवहार नहीं बनता । मायिक व्यवहार बाधित हो जायेगा, जैसे-- माया का नेत्र खुल जाता है तो स्वप्न का नेत्र बाधित हो जाता है । बाधित हो जायेगा माने इसका रहस्य प्रकट हो जायेगा कि यह जैसा दिखाई दे रहा है वैसा है नहीं । जैसे स्वप्न का जगत दिखाई देता था पर वह था नहीं । ऐसे ज्ञाननेत्र खुलने के बाद क्या होगा कि इसमें यह प्रतीति होगी कि दिखाई तो देता है पर है नहीं । जबकि मायिक है माया से दिखाई दे रहा है । तो ये बाधित होता है ।

            अब नेत्र खुलें कैसे ? प्रश्न यह है । तो गोस्वामी जी उसका उपाय केवल यही बताते हैं-- श्रीगुरु पद नख मनिगन जोती । सुमिरत दिव्य दृष्टि हियं होती । दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवहिं जासू । उघरहिं विमल विलोचन ही के । उघरहिं शब्द का प्रयोग किया है । इसका मतलब पहले से हैं पर बन्द है । तभी तो खुलेगा मिटहिं दोष दुख भव रजनी के । सूझहिं रामचरित मनि मानिक । जहाँ पर जगत दिखाई दे रहा है वहीं पर परमात्मा है और जगत जो दिखाई दे रहा है वह बाधित हो जायेगा, 'मायिक' निश्चय हो जायेगा यह प्रक्रिया है । साधन दो प्रकार से चलता है, उस नेत्र को खोलने का साधन, वह 'गुरुकृपा दृष्टि' प्राप्त होता है । एक "काई विषय मुकुर मन लागी" दूसरे के मुख को देखने के लिए केवल नेत्र की जरूरत है और प्रकाश की जरूरत है । अपना मुख यदि देखना हो तो शुद्ध दर्पणा की भी जरूत है । अर्थात नेत्र, प्रकाश एवं स्वच्छ दर्पण होना चाहिए, तब आपको अपना मुख दिखेगा । जिस परमात्मा का आप दर्शन करना चाहते हैं वह अपना स्वरूप है । इसलिये उसके दर्शन के लिए ज्ञान नेत्र चाहिए । सामान्य चैतन्य प्रकाश सर्वत्र है । उसका कहीं अपवाद नहीं है । स्वरूप दर्शन के लिए आपको दर्पण चाहिए, वह दर्पण आपके पास है । वह है मन । यद्यपि आपका स्वरूप मन का विषय नहीं है, इसलिये मन से नहीं जाना जायेगा पर मन रूपी दर्पण में प्रतिफलित होगा । इसलिए मन स्वच्छ होना चाहिए । मन में सांसारिक व्यवहार करते करते काई जम जाती है । उस काई को निकालना अनिवार्य है । उस काई को निकालने के लिए ही मंत्रानुसंधान है । जितना मंत्रानुसंधान है, योग की प्रक्रिया है, वे सब हमारे मन की काई को दूर करती हैं और गुरु की कृपा से ज्ञाननेत्र खुल जाता है ।फिर अपना स्वरूपभूत जो परमेश्वर है उसका साक्षात्कार हो जाता है ।

            यहाँ पर यह बताया कि "माया परिभ्रामितः" पुरुष जो है 'यह' ही देखता है । क्या देखता है ? इस कार्य का कारण क्या है ? इससे यह भाव लेना कि जगत में कार्य कारण भाव को लेकर जितने विचार करने वाले दार्शनिक हैं, सब माया परिभ्रमित हैं, क्योंकि एक कार्य में कारण भाव की जो कल्पना है यह माया के बिना नहीं हो सकती । जितना संबंध हम जगत में बनाते हैं यह माया परिभ्रमित होकर ही बनता है । शरीर मायाकल्पित है, स्वरूप है नहीं । जगत का सारा संबंध केवल माया की मान्यता पर टिका हुआ है । इस प्रकार जो बंधन की अनुभूति है माया के कारण ही है । जगत बिना उत्पन्न हुए ही हमारे मन में घुस गया है, उसको निकालने के लिए शास्त्र जो उपाय करता है वो भी माया के अन्तर्गत ही है ।

              कल हमने दृष्टांत से बता दिया था कि व्यवहार मात्र मायिक है । इतना अंतर है जिसकी तरफ ध्यान दिलाया था, मायिक जितना व्यवहार है, उसमें जितना शास्त्र के अनुसार करते हैं वह भी मायिक है पर वह उपायभूत हो जाता है । वह शास्त्र छोड़ देता है तो वह और माया की ग्रंथि का हिस्सा बन जाता है । शास्त्र के अनुसार करते हैं तो हमारे जीवन में कर्तव्य की प्रवृत्ति का उदय हो जाता है । फलाभिसंधि टूट जाती है और हमारा जीवन ऊपर उठने लगता है । फिर हमारा जीवन एक तत्त्व के नजदीक आता है । विकल्प का शोधन होते होते आप अविकल्प में चले जाते हैं । तत्त्व अविकल्प है । बुद्धि आदि का विषय नहीं है, पर बुद्धि से शोधन होता है । शोधन होते होते हम अविकल्प में चले जाते हैं । अब यह है हम सुनते बहुत हैं, विचार भी करते हैं भावना भी करते हैं "अहं ब्रह्मास्मि" । अहं ब्रह्म..., पर माया तो ऐसी है कि वह अपना प्रभाव जमाती है, निकालती नहीं है । सोचते हैं कि हम ब्रह्म हैं, निर्धारित भी कर लेते हैं पर व्यवहार में तो माया छाई रहती है । झट "मैं" कहते ही शरीर आ जाता है । मेरा कहते ही झट परिवार आ जाता है, मेरा कहते ही झट बैंक बैलेंस आ जाता है । दुकान आ जाती है वह बुद्धि इतनी तेज आती है कि ब्रह्म तो भूल ही जाता है । तत्त्व निष्ठा नहीं रहती । क्या किया जाये ? यह बहुत लोगों की समस्या है, तत्त्व निष्ठा नहीं होती । जानने में कमजोरी नहीं है अन्दर से कमजोर है ।

             एक पूछते हैं कि भाई ! तेरा मन पढ़ने में ज्यादा लगता है कि खेलने या टी.वी देखने में । बालक तो सच्चा होता है तो बता देता है कि खेलने में, टी.वी. देखने में ज्यादा मन लगता है, लेकिन जब हम बालक से पूछते हैं कि मन किसमें ज्यादा लगना चाहिए तो बालक यह नहीं कहता कि टी.वी. देखने में लगना चाहिए, बालक यही कहता है पढ़ने में लगना चाहिए, पर उसको पढ़े हुए को पचाने की शक्ति नहीं है । इस ज्ञान को आत्मसात् करने की शक्ति नहीं है । अपनी कमजोरी व्यक्ति को साधक को स्वीकार कर लेनी चाहिए । यदि आप अपने को कमजोर अनुभव करते हैं माने ज्ञान के अनुसार जीवन धारित करने में समर्थ नहीं हो पा रहे हैं, कमजोर हैं । अरे भाई ! आप जानते हैं सत्य बोलना चाहिए । आप जानते हैं कि जीव का स्वभाव सत्य बोलने का होता है, झूठ बोलना किसी का स्वभाव नहीं होता । सत्य सबको प्रिय है यह आप सब जानते हैं । झूठ का अस्तित्व ही नहीं है इसलिए व्यक्ति झूठ बोलकर कहता है मैं सच बोल रहा हूँ । ये सब जानने पर भी सत्य नहीं बोल पा रहे हैं । यह जान लेने पर भी कि हमार स्वभाव सत्य बोलने का है । सत्य आप स्वभाव से बोलेंगे, झूठ के लिए कोई निमत्त चाहिए । आपके पास यदि कोई निमित्त नहीं तो आप सत्य बोलेंगे, झूठ कहां से बोलेंगे ? झूठ के लिए हमेशा निमित्त चाहिए । झूठ नैमित्तिक है । सत्य स्वाभाविक है । यह आप जानते हैं, पर सत्य नहीं बोल पाते हैं तो कहीं न कहीं से कमजोरी है कि नहीं ? आप अन्दर से कमजोर हैं । कमजोर हैं तो स्वीकार करना चाहिए । उसको झुठलाने से कैसे काम चलेगा ?

             चाहे कोई क्रोध पर कितना भी प्रवचन दे सकता है, "अहं ब्रह्मास्मि" पर कितना भी प्रवचन दे सकता है, पर अंदर से वह क्रोध को नहीं जीत पा रहा है, वह शरीराध्यास नहीं छोड़ पा रहा है, कमजोरी को झुठलाने से कैसे काम चलेगा ? इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि हम कमजोर हैं । अपने ज्ञान को पचा नहीं पा रहे हैं यह हमारी कमजोरी है । जब आप अपने ज्ञान को पचा नहीं पा रहे हैं अन्दर से कमजोरी कआ अनुभव करते हैं तो किसी समर्थ का चरण अहंकार छोड़कर क्यों नहीं पकड़ लेते ? पकड़ना चाहिए । परमेश्वर से बढ़कर और कौन संबंधी आपका हो सकता है ? परमेश्वर का चरण सच्चाई से पकड़ने में, परमेश्वर शरणागति प्राप्त करने में क्या अड़चन है ? अहंकार छोड़ना पड़ेगा, अहंकार छोड़े बिना शरणागति नहीं होगी ।परमेश्वर का चरण जब हम सच्चाई से पकड़ लेंगे तब आपका काम उधर से होगा । आप कुछ चाहते नहीं हैं, तत्वनिष्ठ होना चाहते हैं पर यह चाह चाह चाह नहीं है । यह जागतिक कोटि में नहीं आती । जगत का पदार्थ आप नहीं चाहते । बिना किसी चाह के परमेश्वर के चरण आप पकड़ते हैं परमेश्वर की सेवा में लग जाते हैं आपकी समस्या की चिंता कौन करेगा ? वह ही करेगा इसीलिए परमेश्वर सीधा कह देता है “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ।।” सच्चाई से जब परमेश्वर की शरणागति ले लेता है तब इसका काम उधर से होता है क्योंकि परमेश्वर की प्रतिज्ञा है "योगक्षेमं वहाम्यहम्" उसके लिए जो आवश्यक है परमेश्वर करेगा । शरीर के लिए..., चाहे अन्तःसाधना के लिए । इसलिये प्रश्न यहाँ है "कथं एवं विधां मायां निवर्तेत ?" इस प्रकार की माया जो "ज्ञानिनामपि चेतांसि...... बलादाकृष्य मोहाय....." ज्ञानियों के भी चित्त को मोहित करने वाली है वह कैसे निवर्तित है ? आप कमजोर पड़ रहे हैं माया निवर्तन के लिए । सच्चाई से परमेश्वर के चरण पकड़ लीजिये और उपासना में लग जाइये ।

               यह मत सोचिए कि हम ज्ञानमार्ग छोड़कर उपासना में लग जायेंगें तो नीचे आ जायेंगे । नीचे आ जायेंगे ऐसा मत सोचिये। ऐसा नहीं सोचना चाहिए । अरे ! सच्चाई से स्वीकार करें तो कर्म की कक्षा में भी आने से आपको संकोच नहीं होना चाहिए । यदि निष्काम कर्म के अनुष्ठान द्वारा आपने अपना अन्तःकरण शुद्ध कर लिया है पर बल आपके अन्दर नहीं है ताकत की कमजोरी है तो परमेश्वर का चरण आपको पकड़ना ही पड़ेगा, दूसरा कोई उपाय नहीं है । इसमें जो यह भय होता है कि हम ज्ञानमार्ग से नीचे कैसे उतर जायें ? अरे भाई ! ज्ञान पच नहीं रहा है तो आपको नीचे उतरना ही पड़ेगा, बिना उसके तो काम चलेगा नहीं । जगत तो "सत्यानृतमिथुनीकरण" से चलता है । यानि जगत में थोड़ा सच थोड़ा झूठ मिलाकर चल जाता है पर परमार्थ में नहीं चलेगा । क्योंकि आप सच्ची शान्ति चाहते हैं । बोलिए ? यदि आप सच्ची शान्ति चाहते हैं तो झूठ का अवलंबन लेकर सच्ची शान्ति प्राप्त नहीं कर सकते हैं । सच्चा सुख चाहते हैं तो झूठ का आश्रय लेकर सच्चा सुख नहीं पा सकते ।

            परमात्म मार्ग का आधार होता है सत्य । आपको सच्चाई से स्वीकार करना पड़ेगा झुठलाने से काम नहीं चलेगा । बहुत बार हम जीवन में अपने झुठलाते हैं । अंदर से हम अशांत हैं पर बाहर से ऐसा दिखते हैं कि हम शान्त हैं । पर झुठलाने से काम नहीं चलता । नारद जी जैसे पंडित सनत्कुमार के पास जाते हैं और कहते हैं-- "अधीहि भगवो ब्रह्म" हे भगवन् ! हमको ब्रह्म का उपदेश कीजिये । उन्होंने कहा कि पहले बताओ कि तुम क्या जानते हो ? पता लगने पर हम आगे उपदेश करेंगे । नारद जी ने कहा--ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेदो, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, निरूक्त, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, देव विद्या, भूत विद्या, ब्रह्म विद्या जानता हूँ । अरे ! सारी विद्या का ज्ञान है तुमको तो हम तुमको क्या उपदेश करें ? कहा-- मैं जानता हूँ, पढ़ा भी देता हूँ । कहा-- फिर ? कहा-- उसमें लिखा हुआ है और आप जैसे महापुरुष कहते हैं--"तरति शोकमात्मवित्" आत्म वेत्ता को शोक नहीं होता तथापि "शोचामि भगवन्" ।पर भगवन् मुझे शोक होता है . देखो इस सच्चाई को नारद जी ने स्वीकार किया शोक होता है, इसका मतलब आत्मज्ञान अपने को नहीं हुआ है । आत्मविद्या तो मैं जानता हूँ पर आत्मज्ञान नहीं हुआ है कि जो शोक मोह को पार कर दे ।इसको स्वीकार किया झूठलाया नहीं उन्होंने ।

             सनत्कुमार ने कहा-- तुम अक्षय राशि जानते हो पर तत्त्वज्ञ नहीं हो । आगे उपदेश किया । कहने का तात्पर्य यह कि सच्चाई को स्वीकार करना है । स्वीकार करके हमें परमेश्वर का आधार चाहिए । बुद्धि के आधार से तत्त्व प्राप्त नहीं हो सकता । परमेश्वर को हमको आधार बनाना ही चाहिए जीवन में । परमेश्वर का बल लेना चाहिए "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" आप अन्दर से कमजोर हैं तो ज्ञान को पचा नहीं सकते । इसलिये आपको परमेश्वर को जीवन का आधार बनाना पड़ेगा । उसी आधार रूप उपासना के लिए उपासना के लिए जो उपाय है उसे अगले श्लोक में बताया रहे हैं । इस माया के प्रभाव में हम कैसे न पड़ें, माया कैसे दूर हो, इसके लिए आपको अन्दर से बलवान बनना पड़ेगा । बलवान बनने के लिए ही हमारे यहाँ कहीं भी भगवान का पूजन होता है, चाहे मिट्टी का महादेव बनाकर पूजन कर लो, चाहे पत्थर का महादेव बनाकर पूजन कर लो, चाहे गोबर के गौरी-गणेश बनाकर पूजन कर लो क्योंकि सर्व रूप वही हुआ है ।

              बड़ा विलक्षण है । जब हम इस परंपरा में देखते हैं तो मूल तत्त्व निर्गुण निराकार है । एक ही तत्त्व है उस पर ही सारा का सारा विश्व कल्पित है । एकमेवाद्वितीयं तत्त्व हमको तब तक समझ में नहीं आ सकता है जब तक हमको यह जगत सत्य दिखाई दे रहा है । तब प्रश्न यह होता है कि जगत कहाँ से आया ? तब मूल तत्त्व में एक शक्ति मालूम होती है, एक स्वातंत्र्य मालूम होता है, उसमें ऐसी शक्ति है जो जगत को संकल्प मात्र से उत्पन्न कर दिया, तब उस तत्त्व का नाम हो जाता है सगुण निराकार । यह अपने यहाँ का ईश्वर तत्त्व है । ईश्वर तत्त्व सगुण है यानी शक्ति है । पर निराकर है । नाम रूप नहीं है । ईश्वर अनाम अरूप है उस ईश्वर तत्त्व का नाम रूप नहीं है । पर जगत के लोगों को उपासना करने के लिए पुराणों ने नाम और रूप रख दिया । शिव पुराण ने उसका नाम शिव रख दिया और रूप बना दिया-- कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेन्द्रहारम्" इसलिये शिव पुराण की दृष्टि से शिव से ब्रह्मा और विष्णु की उत्पत्ति हुई । विष्णु पुराण ने उसका नाम विष्णु रखा इसलिये ब्रह्मा और शिव की उत्पत्ति विष्णु से हुई । गणपति पुराण ने उसका नाम गणपति रख दिया तो गणपति से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की उत्पत्ति हुई और देवी पुराण के अनुसार देवी से ब्रह्मा, विष्णु और शिव की उत्पत्ति हुई ।

            अनाम अरूप परमेश्वर का नाम कोई भी आप रख सकते हैं । किसी भी रूप को लेकर आप उपासना कर सकते हैं । पर आप जब वहाँ पहुंचेंगे तो अनाम अरूप में पहुंच जायेंगे अर्थात वास्तविक स्वरूप निर्गुण निराकार में पहुंच जायेंगे, यह शोधन क्रम है ।इधर से शुद्ध होते होते आधार में पहुंच जायेंगे । उस परमेश्वर तत्त्व ने "एकोऽहं बहुस्यां प्रजायेय" उसने संकल्प किया कि मैं बहुत होकर प्रकट हो जाऊं । मैं खेलूं, लीला करूँ ।अब खेलने के लिए तो बहुत होना पड़ता है तब खेल होता है । राजा भी बन जाता है, नौकर बन जाता है, वक्ता भी बन जाता है, श्रोता भी बन जाता है, सभी बन जाता है, तभी तो खेल होगा, नहीं तो कैसे होगा । वह पुरुष भी बन जाता है, स्त्री भी बन जाता है इस प्रकार माया से बंध का सारा का सारा खेल हो रहा है । "बहुस्यां प्रजायेय" तो जो सारा विश्व हमको दिखाई दे रहा है यह उस परमेश्वर का सगुण साकार विग्रह है इसीलिए हमारे यहाँ उस परमेश्वर का कहीं भी पूजन हो जाता है । चहे मिट्टी या पत्थर के महादेव बनाकर पूजन करो या गोबर के गौरी गणेश बनाकार, क्योंकि वही सर्वरूप हुआ है ।

             सारा का सारा विश्व उसका सगुण साकार विग्रह है और वह सगुण निराकार ईश्वर तत्त्व है । उसका भी मूल स्वरूप निर्गुण निराकार है । निर्गुण निराकार को ही हम कारण भाव में लाकर सगुण निराकार कह देते हैं । सगुण निराकार ईश्वर माया शक्ति को लेकर संपूर्ण जगत में अपने को प्रकाट करता है खेलने के लिए सारे जगत में वही खेल रहा है । यहाँ भी प्रवेश हो गया इस शरीर में चैतन्य का । अब चैतन्य खेल रहा है, यही महादेव है, श्मशान में रहता है । इस शरीर से बड़ा श्मशान कोई मिल नहीं सकता, क्योंकि करोड़ों कीड़े हर क्षण इसी में मर रहे हैं, इसी में दफनाए जा रहे हैं । इससे बड़ा श्मशान हो नहीं सकताा । "श्मशानेष्वाक्रीड़ा" इस श्मशान में चैतन्य महादेव खेल रहा है । श्मशान से भले ही आप लोग डरें, पर सभी शरीर श्मशान ही है, इनमें महादेव खेल रहा है । कहने का तात्पर्य है कि चेतन ही सब जगह खेल रहा है । संपूर्ण विश्व ही उसका सगुण साकार विग्रह है । और वह परमेश्वर अपनी अनुग्रह शक्ति से कभी विशिष्ट अवतार का उदाहरण प्रस्तुत करता है। रामावतार, कृष्णावतार, शिवावतार, संतावतार । इनकी कृपाशक्ति निरंतर लगी रहती है जीव के कल्याण में और मायाशक्ति लगी रहती है निरंतर भुलाने में ।

           इन दोनों का खेल चल रहा है । मायाशक्ति आपको जगत में मोहित करती है और कृपाशक्ति आपको सतसंग में बैठकर आपको मोह से छुड़ाती है । ये दोनो चल रहे हैं । अब आपके ऊपर है कि आपकी बुद्धि किसको महत्व देती है ? आपकी कृपाशक्ति जिस दिन कृपाशक्ति को महत्व देगी उस दिन आपका मोह छूट जायेगा । जब तक मोहशक्ति का महत्व बना हुआ है तब तक जगत प्रिय लगेगा । श्रेय, प्रेय दो हैं आपके सामने । एक श्रेय है, के प्रेय है । प्रेय मन को प्रिय लगता है और श्रेय आपका कल्याण करने वाला है वह आपको बाहर से मीठा नहीं दिखता । वह कड़वी दवा होती है, रोग निवृत्ति के लिए कड़वी दवा पीनी पड़ती है । मिठाई तो खाने में बहुत अच्छी लगती है पर हित करती है, कटु दवा खाने में भले कटु लगे पर हित करती है । अब ये आपके हाथ में है कि हित का वरण करें या प्रिय का वरण करें । आप सुरुचि से ज्यादा प्रेम करते हैं कि सुरुचि से ज्यादा प्रेम करते हैं । सुनीति से जो पुत्र उत्पन्न होगा ध्रुव होगा, पर सुरुचि से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह उत्तम होगा,किन्तु मारा जायेगा । विनाश के मुंह में पड़ा रहेगा ।आप भागवत भी सुन चुके हैं, जब यह उत्तानपाद हो जाता है होश खो देता है, तब यह रानी सुरुचि से प्रेम करता है, सुनीति से प्रेम नहीं करेगा ।

            "श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतौ" ये दोनो आपके सामने हैं । आप किसको वरण करेंगे ? सारे के सारे अवतार कृपाशक्ति के माध्यम से हैं । हम कृपाशक्ति को वरण करते हैं कि मायाशक्ति का वरण करते हैं ? मायाशक्ति देखने में अच्छी लगती है और कृपाशक्ति शुद्ध तत्त्व है । वह लाल पीला नहीं होती ।आपको सफेद कपड़ा अच्छा लगता है कि रंगविरंगे, सोच लो । आजकल मैं देखता हूँ रंगविरंगे कपड़े पहने जा रहे हैं । अरे भाई ! सूत ही है न ? सूत यह सच्चाई है, रंग माया है । सूत के आश्रय के बिना रंग नहीं रह सकता है यह सच्चाई है । लोगों का मन ज्यादातर माया का वरण करता हुआ दिखता है, इसलिये संसार में मायिक पदार्थ ज्यादा दिखाई देंगे । सूत ही पहना जायेगा रंग नहीं पहना जा सकता है, पर आपकी दृष्टि रंग पर होती है सच्चाई पर नहीं जाती है, माया पर ही जाती है । इसलिए एक एक प्रकार के सामान बढ़ते जा रहे हैं । वह सब माया ही है वास्तविकता नहीं है । लोगों की दृष्टि माया म़े विशेष हो गई है । माया को तोड़े बिना तत्त्व में नहीं पहुंचा सकते ।

             यहाँ पर एक वैदिक उपासना है । महिम्न स्तोत्र में भी आया है । किसकी उपासना ? अष्टमूर्ति उपासना । इस सारे विश्व को आठ भागों में बांट लिया है- वे हैं पंचमहाभूत यानी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश । अन्य तीन हैं--- सूर्य, चंद्रमा और यजमान । सूर्य, चंद्र प्रत्यक्ष देवता हैं । और जीव भोक्ता पुरुष आठवां । पंचमहाभूत, सूर्य, चंद्र और पुरुष इन अष्टमूर्ति में सारा जगत विभक्त करते हैं । अष्टमूर्ति में विभक्त करके इनकी उपासना करते हैं उपासना दो प्रकार की होती है । जो परमार्थ का प्रेमी है वह अहंग्रहोपासना करता है । जब अष्टमूर्ति देखते हैं तब उनमें भगवत् भाव की ही भावना करते हैं । इसलिए पृथ्वी का भी पूजन कर लेते हैं, पृथ्वी को हाथ भी जोड़ लेते हैं । जल में स्नान करें तो देखे जल परमेश्वर की मूर्ति है, जल में डुबकी लगाइए तो देखिए अंदर से बाहर सब परमेश्वर तत्त्व है । परमेश्वर रूपी जल में हम अवगाहन कर रहे हैं, केवल मंत्र बोल दीजिए । अग्नि परमेश्वर मूर्ति है, इसमें तो तमाम आहुतियाँ दी जाती हैं । वायु में आप खड़े हो जाइए, वायु म़े परमेश्वर न हो तो प्राण कैसे चल सकता है ?.आकाश के बिना किसी चीज की स्थिति नहीं है । सूर्य चंद्रमा के बिना तो जीवन ही नहीं चल सकता और चेतन पुरुष न हो तो सब ढांचा ही बेकार है । यह जो अष्टमूर्ति का ध्यान है जब अहंग्रहोपासना होती है तो ध्यान करते करते परिच्छन्नता भूल जायेगी । आप विराट रूप हैं 'विश्वं शरीरं'  विश्व आपका शरीर हो जायेगा । जब विश्व आपका शरीर हो जायेगा तो आप में असीमित ताकत रहेगी । अहंग्रहोपासना अर्थात इस अष्टमूर्ति के अतिरिक्त जगत में कोई नहीं है और अष्टमूर्ति परमेश्वर रूप है । इसको परमेश्वर रूप मानकर हम उपासना करेंगे और ध्यान करते करते यह ही अपना शरीर हो जायेगा तो सर्वत्र अपनी व्याप्ति अनुभव में आयेगी ।

            उपासना में तीन बातें आवश्यक हैं । उपासना मन से होती है । जब तक आपका मन शुद्ध नहीं होगा संस्कारित नहीं होगा तब तक आप उपासना नहीं कर सकते । अरे ! सियाराममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी । बात ठीक है पर " सियाराममय जब जग जानी" में बहुत भावना करेंगे तो माता में भले परमेश्वर का दर्शन कर लें । वह भी आज के युग में दुर्लभ है ।पिता में बहुत ही संस्कार हो तो दर्शन कर सकते हैं । पर कुत्ते में भी आपको परमात्मा का दर्शन होगा ? डाकू में भी होगा ? स्वामी जी (कृष्णानन्द विरक्त) कह रहे थे आतंकवादी में परमात्मा का दर्शन कैसे होगा ? सर्वरूप वही बना है "शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः" आप भक्तों की लीला में भी देखते हैं । कि पंढर पुर में सब लोग अपनी अपनी रोटी बना रहे हैं । भगवान कुत्ते का रूप धारण करके आ जाते हैं जब कुत्ता बनकर भगवान आये तो डंडा ही खाना पड़ा । अरे ! कुत्ता बनकर भगवान भी आ जाये तो मार खानी पड़ती है कि नहीं ?  जैसा तुम स्वांग करोगे वैसा तुम्हारे साथ व्यवहार होगा । पर भक्त की दृष्टि बड़ी पैनी होती है । नामदेव जी भी रोटी बनाकर के रखे हुए थे और रोटी बना रहे थे । भगवान ने सारी रोटी उठा ली और लेकर भगे वे घी की कटोरी लेकर पीछे पीछे दौड़े कि "भगवन् ! उसमें घी नहीं लगा है रोटी गले में फंस जायेगी" ।बहुत दूर चले गये तो भगवान खड़े हो गए, तो भगवान ने कहा तुमने कैसे पहचान लिया मुझे ? कहा कि बालक माता को कैसे नहीं पहचानेगा ? आप कोई भी रूप बनाओ पर मेरी दृष्टि में आप छिप नहीं सकते । चाहे तो कुछ भी बनकरके आओ । मेरी दृष्टि से आप छिप नहीं सकते ।

                 देखो ! कहाँ गंगोत्री से जल लेकर रामेश्वर जा रही थी मंडली । बीच रेगिस्तान में गधा पड़ा हुआ है प्यास से मर रहा है । भक्त की दृष्टि कैसी होती है उन्होंने कहा-- महादेव तो यहीं आ गया, महादेव तो कण कण में है । वह रूप में ही नहीं, रूप का भेदन करके भी हमारी दृष्टि में आता है । कहने का तात्पर्य है कि ये पंचभूत, सूर्य, चंद्रमा और आत्मा ये अष्टमूर्ति हैं यहां पर अष्टमूर्ति की उपासना कही गई है । यह वैदिक उपासना है । इस प्रकार की उपासना करते करते आप तन्मय हो जायेंगे । तन्मयता की प्रतिष्ठा का हेतु रूप उपासना के लिए मनुष्यत्व होना चाहिए । मन शुद्ध होना चाहिए । मन शुद्ध नहीं होगा तो आपकी मांग रहेगी, किसी को भी पकड़ेंगे तो मांगेंगे कि कुछ जगत की चीज दो, तत्त्व कहां से मिलेगा ? अतएव योग की आवश्यकता है क्योंकि मन एकाग्र होना चाहिए । इसलिये पूरा योग शास्त्र का उपासना पूर्वक तत्त्वज्ञान में उपयोग है । यम, नियम, आसन, प्राणायम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि इसका उपयोग किसमें है ? इसी उपासना में है ।

            जब तक चित्त एकाग्र नहीं होगा तब तक अहंग्रहोपासक नहीं बन सकता, योगी नहीं बन सकता । इसलिए हयग्रीव जी कहते हैं "निर्मलनिश्चल अन्तःकरणोपेतो योगी" निष्काम कर्मानुष्ठान के द्वारा जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है और अष्टांग योग के द्वारा, उपासना के द्वारा जिसने अपने मन को निश्चल कर लिया है, वही तत्त्वज्ञान को पहचानने में समर्थ होता है । वह योगी होकर तत्त्वज्ञान तो तत्त्वज्ञान पचाने में समर्थ हो जायेगा । आप योगी हो जायें तो तत्त्वज्ञान पच जायेगा योगी होने के लिए आपको इसकी आवश्यता है । मन को एकाग्र करने के लिए, उपासक के लिए ये सारे के सारे साधन हैं और वे विस्तृत हैं आप भी जानते हैं । पातञ्जलयोग के अनुसार दूसरे बहुत ग्रंथ हैं जिनमें थोड़ी थोड़ी संख्या बढ़ घट जाती है ।  पांच यम हैं-- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह । पांच नियम हैं शौच संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्राणिधान । ये यम नियम आपके जीवन में प्रतिष्ठित होंगे तब आपके आसन, प्राणायाम इत्यादि तत्त्वज्ञान की ओर ले जायेंगे । यम नियम यदि प्रतिष्ठित नहीं तो आसन करें तो एक व्यायाम हो गया योग का साधन नहीं हुआ । आजकल लोग योग नहीं कराते आजकल योगा चल रहा है योग नहीं । योगा और योग में यही अन्तर है ।

            यम नियम प्रतिष्ठा पूर्व जब हम आसन को लेते हैं तब आसन आपके शरीर को निश्चल करके अन्तःकरण की एकाग्रता पूर्वक तत्त्व की ओर ले जायेगा । फिर प्राणों का नियमन करते हैं । तीन बातों का घनिष्ठ संबंध है व्यक्ति माने चाहे न माने प्राण का मन का वीर्य (ब्रह्मचर्य) का बहुत घनिष्ठ संबंध है । एक की पुष्टि से दूसरे के नियमन में सहायता मिलती है । जैसे आपको विद्युत में जाना हो, आपकी बुद्धि में विद्युत समझ में आ जाये, इसके लिए कोई न कोई आपको आधार लेना पड़ेगा, चाहे बल्ब को, चाहे प्रकाश को, चाहे क्रिया को आधार लीजिए । ऐसे आपको तत्त्व में पहुंचना है । तो प्राण का आधार लेना पडेगा या मन का आधार लेना पड़ेगा, क्योंकि "ज्ञानक्रिये शिवेनैक्यात् सङ्क्रान्ते सर्वजन्तुषु" ज्ञान शक्ति, क्रिया शक्ति, दोनो शिव के साथ एकीभूत हैं जैसे प्रकाश शक्ति और क्रियाशक्ति विद्युत के साथ एकीभूत होकर पंखे में अभिव्यक्त है वैसे ही समझना चाहिए । अतः सुरेश्वराचार्य भगवान कहते हैं "शिवत्वं केन वार्यते" शिव की अभिव्यक्ति को कैसे वारण करें ?

               कोई भाव प्रधान व्यक्ति है, कोई बुद्धि प्रधान व्यक्ति है । बुद्धि प्रधान व्यक्ति को विचार ज्यादा अनुकूल पड़ता है, भाव प्रधान व्यक्ति को उपासना अनुकूल पड़ती है । क्योंकि वह भावना कर सकता है, इसलिये उपासना का मार्ग आता है, विचार का मार्ग आता है । पर प्राण कआ सहयोग यहाँ भी रहेगा । विचार प्रधान में भी यदि भाव का योग और प्राण का योग नहीं रहेगा तो अपने लक्ष्य तक नहीं जायेगा । वहां भी भाव की स्वीकृति होगी । विचार से जिस तत्त्व का निर्धारण करेंगे भाव के द्वारा उसकी स्वीकृति होगी और वह विचार एकदम बैठेगा । जब आप प्राण इत्यादि के द्वारा मन को स्थिर करने में लगे हैं उस समय भाव से निष्ठा बनेगी । विचार प्रधान जो साधक है उसको भाव की भी जरूरत है, योग की भी जरूरत है । इसीलिए पहले पतंजलि ने क्रियायोग कहा, फिर क्रियायोग के बाद "ईश्वरप्राणिधानाद्वा" कहा । अरे ! इतना परिश्रम आपने बताया और इतनी सारी चीज ईश्वर शरणागति से कैसे सिद्ध होगी ? ईश्वर का आधार लेने मात्र से हो जाती है । नहीं तो योग करने से कितनी बड़ी कठिनाई है ? बहुत बड़ी कठिनाई है । पर ईश्वर प्राणिधान सहज नहीं है, यह अहंकार से नीचे नहीं आता ।

              मैं कह रहा था कि कोई साधन अपने यहाँ प्राण प्रधान, क्रिया प्रधान है, जैसे पातंजलयोग । पर विचार भी उसमें है, भाव भी है उसमें । इन दोनों की सहायता होगी साधना में । उपनिषद आदि के साधन विचार प्रधान हैं, पर यहाँ पातंजलयोग की आवश्यकता है, यहाँ भी प्राण प्रधान साधना की आवश्यकता है एवं भाव की भी आवश्यकता है । पर प्रधानता विचार की है । जो भक्ति का साधन है वह भाव प्रधान है, पर वहां भी उसकी परिणति विज्ञान में होनी चाहिए । जो भावना आपने करके रखी है वह जब अनुभव में पर्यवसान होगी तभी वह सिद्ध होगी, अतः दोनो की आवश्यकता है । ये तीनो मिलकरके साधन बनते हैं । शास्त्र में भले एक की ही प्रधानता हो । इस प्रकार के व्यक्ति भी दिखते हैं । जैसे देख लीजिए आप लोग कथा में रामकिंकर जी की भी आप कथा सुने होंगे और मुरारी बापू की भी कथा सुने होंगे । रामकिंकर जी की कथा में क्या विशेषता है ? मुरारी बापू की कथा में क्या विशेषता है ? रामकिंकर जी की कथा में कितनी भीड़ होती है ? मोरारी बापू जी की कथा में कितनी भीड़ होती है ? इससे जगत का ऑकलन कर लिया । रामकिंकर जी की कथा बुद्धि प्रधान है और वह बुद्धिमान की बुद्धि में चमत्कार उत्पन्न कर देती है । जब कथा में शब्द का अर्थ करते हैं तब बुद्धिमान जो है उसकी बुद्धि में चमत्कार उत्पन्न होता है उसी से प्रभावित हो जाता है । मुरारी बापू की कथा में बुद्धि का चमत्कार नहीं है, वहीं भाव का वातावरण बहुत बड़ा है । आज भाव प्रधान व्यक्ति न हो तो वहां इतनी भीड़ कैसे हो सकती है ? भाव प्रधान व्यक्ति ज्यादा है, ऐसा भाव का वातावरण बनता है कि जिसमें लोग झूमने लग जाते हैं । वहां भी भीड़ ज्यादा होती है । इसलिए बुद्धि प्रधान युग में भी भाव प्रधान लोग ज्यादा हैं । वहां एक ऐसा वातावरण बनता है संगीत आदि के द्वारा कि वहाँ व्यक्ति झूम जाता है । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि इन्हीं तीनो साधनाओं को लेकर ही हमारी सारी की सारी साधना---प्रक्रिया है ।

          यह निर्धारण हुआ कि उपासना के लिए भी पातंजलयोग के अनुसार मन को वश में करने की जरूत है, भले ही उपासना हो । खासकर अहंग्रह उपासना में । चित्त अपने को विश्वरूप में गृहीत करेगा । "विश्वं शरीरं" । विचार की, भाव की एवं योग की जरूरत है । साधक को इन तीनों कु जरूरत है । आपकी प्रकृति के अनुसार एक की विशेषता रहेगी । यहाँ बता दिया भू माने पृथ्वी, अम्भ है जल, अनल है अग्नि, अनिल है वायु, अबंर है आकाश, अहर्नाथ यानी सूर्य, हिमांशु यानी चंद्रमा, और पुमान् है पुरुष यानु जीव ये अष्टमूर्ति हैं । "इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्" । ये अष्टमूर्ति किसकी हैं ? जिसने मूल में संकल्प किया "बहुस्यां प्रजायेय" उसी की ये मूर्ति है । सारा विश्व उसी की मूर्ति है और वही आपका स्वरूप है  ।

               मुझसे सत्ता पा रहा है सारा विश्व एवं मुझसे प्रकाशित हो रहा है हमने ईश्वर रूप में संकल्प किया "बहुस्यां प्रजायेय" इसीलिये इतने रूप में प्राकट्य है हमारा । यह अहंग्रहोपासना है । "विश्वं शरीरं" विश्व के एक कण में आप अपनी अहंता टिकाये हुए हैं । ईश्वर भाव में रह करके जब आप देखेंगे तो सारे विश्व में आपकी व्याप्ति होगी विश्व आपका शरीर होगा । इस तरह की उपासना करते करते आप ईश्वरभाव में प्रतिष्ठित होंगे । उसके बाद क्या अनुभूति होगी ? कहते हैं-- “विमृशतां नान्यत्किञ्चन विद्यते यस्मात् परस्मात् विभो” जब आपमें इस प्रकार का विवेक उत्पन्न हो जायेगा । यह सारा जगत बाधित हो जायेगा । एक परमात्मा से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं । एक चिद्दर्पण रूप परमेश्वर में सारा विश्व भासित हो रहा है एवं दर्पण में दिखने वाले नगर के समान है और दर्पण में दिखने वाला नगर दर्पण से भिन्न नहीं होता । नगर से दर्पण का कोई संबंध नहीं है । दर्पण की सत्ता एवं प्रकाश ही उस नगर की सत्ता एवं प्रकाश है । उसी प्रकार आत्म तत्त्व है । आपका स्वरूप असंग ही है । आप अहंग्रहोपासना से जब ईश्वर रूपता को प्राप्त करेंगे तो यही लगेगा कि मुझसे अतिरिक्त कोई विश्व नहीं है ।

           आप कहते हैं विश्व नहीं है पर नेत्र से तो दिखाई देता है । अरे भाई ! दिखाई देने पर भी जानकारी एक बात होती है और यथार्थ बात अलग होती है ।आकाश में नीलिमा दिखाई देती है, आकाश तत्त्व को जब आप जान लोगे नीलिमा तब भी दिखाई देती है । दिखाई देने पर भी आप समझते हैं कि आकाश नीला नहीं है । हमारी दृष्टि जहाँ तक जाती है । वहां तक निलिमा दिखाई देती है पर होती नहीं है । बहुत बार दिग्भ्रम हो जाता है, मालूम होता है सूर्य का उदय पश्चिम से रहा है पर आपके अन्दर निर्णय होता है यही पूरब है जिधर से सूर्योदय हुआ है । नेत्र से दिखता है यह पश्चिम है । दिखता रहता है, पर उसमें मिथ्यात्व का निश्चय हो जाता है, किन्तु वह दिखना बंद नहीं होता  । हम बाराबंकी (उ.प्र.) जाते हैं । जाते हुए आज पचास साल हो गये, वहां पर हमें उत्तर दिशा पश्चिम दिशा मालूम होती है । दक्षिण दिशा पूरब दिशा मालूम होती है । नेत्र से दिखने पर भी हम अन्दर से यही समझते हैं कि पूरब यह ही है और पश्चिम यह ही है । पर नेत्र से उलटा दिखेगा ही । केरपानी (म.प्र.) जाते हैं वहां पर नर्मदा अपने को उत्तर ही दिखती है । आश्रम नर्मदा के उत्तर तट पर है पर अपने को नर्मदा जिधर है वही उत्तर दिखता है । नेत्र से दूसरा दिखने पर भी अन्दर से ज्ञान होता है कि यह जो हमको नेत्र से उत्तर दिखता है यह दक्षिण है । ऐसे से सारा विश्व अन्दर से दिखने पर भी अन्दर से एक अनुभूति होगी कि विश्व एक आत्मदर्पण से अतिरिक्त नहीं है, यह जान लेंगे । नेत्र थोड़े ही फूट जायेंगें । नेत्र फूट जायेंगे तो रूप नहीं दिखाई देगा ।

                ज्ञान तोड़ फोड़ नहीं करता, ज्ञान सच्चाई को प्रकट करता है । माया सच्चाई को भुलाती है । सच्चाई पर आवरण कर देती है । ज्ञान जैसा है वैसा दिखा देगा । अज्ञान दशा में जो सत् दिखाई देता था वह अब मायिक दिखाई देगा कि वस्तुतः नहीं है ऐसा बोध होगा--- विमृशतां यस्मात् परस्मात् विभोः अन्यत् न विद्यते । जब विवेक अन्दर उत्पन्न हो जाता है, गुरुकृपा उसको प्राप्त हो जाती है तब जिससे अन्य कुछ भी शेष नहीं रहता वही दक्षिणामूर्ति परमेश्वर अवशेष रहता । उसी को हमारी सीमित अहंता समर्पित है । उपक्रम में जो कहा था उसका उपसंहार किया है । उपक्रम यह था कि एक दर्पण, जिसमें माया से सारा का सारा संसार दिखाई दे रहा है उपसंहार में यह कह दिया कि इस प्रकार जब बोध होता है तब एक परमेश्वर तत्त्व ही उसको दिखाई देता है, बाकी जगत मायिक दिखने लगेगा । अब इसमें योगादि की आवश्यता यही है कि प्राण निश्चल होगा ।

          हमने आपको बताया प्राण मन और वीर्य । प्राण निश्चल होगा तो मन निश्चल होगा, मन निश्चल होगा तो सब निश्चल होगा । वीर्य स्थिर होगा तो मन दृढ़ होगा, बलवान होगा, स्थिर बनेगा । मन निश्चल होगा तो प्राण निश्चल होगा तो प्राण को लेकर कर के भी साधना की जाती है, क्योंकि मनुष्य के साथ प्राण का संबंध है । और ब्रह्मचर्य की तरफ इसलिए ध्यान दिया जाता है कि मन की चंचलता शिथिल हो जाती है । इन तीनो का आत्मानुभूति में एक साथ घनिष्ठ संबंध है । इसलिये तीनो की आवश्यकता समय समय पर शास्त्र प्रतिपादित करता है । इस रहस्य को साधक को समझ कर रखना चाहिए ।

              अब स्तोत्र तो हो गया, पर स्तोत्र के विषय में यह है कि इस स्तोत्र का यदि हम श्रवण करते हैं, इसके अर्थ का तन्मयाता पूर्वक, तत्परता पूर्वक करते हैं तो उसमें प्रतिष्ठित होते हैं । ज्ञान के लिए इन चीजों की बहुत जरूरत है--- "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं" यह पहली चीज है, श्रद्धा बड़ी प्रबल होनी चाहिए, श्रुति जो कह रही है गुरु जो कह रहा है वही वास्तविक है । हमारा सब अनुभव झूठा है, यह आपको पक्का होना चाहिए । हमारी समझ में नहीं आता कि इतना विलक्षण जगत दिखाई दे रहा है, पर समझ में नहीं आता कि एक ही तत्त्व है । साधक को बुद्धि में यह निश्चय होना चाहिए कि जब शास्त्र कह रहा है-- "एकमेवाद्वितीयं" तो शास्त्र की बात ही सत्य है । इसको श्रद्धा के बिना आप कैसे ग्रहीत करेंगे ? तर्क की बात हमने बता दी थी कि स्वप्न में आपके सामने बड़ी भारी समस्या आपके सामने आ गई है बड़ा अपमान हो रहा है और कोई महात्मा ने आपको कह दिया-- क्या दुःखी होता है सब सपना है तो आपको क्रोध आता है । पर जागने पर महात्मा की बात सच्ची होगी । आपका अनुभव झूठा हो जायेगा । किन्तु जब तक नहीं जागेगा तब तक व्यक्ति को अपने अनुभव पर बड़ा विश्वास होता है, चाहे वह झूठ ही क्यों न हो ? वह अनुभव झूठा हो गया कि नहीं ? आज हमारी अनुभूति विपरीत भले हो पर जब आप जगेंगे तो शास्त्र की बात ही सच होगी । हमारे अनुभव में सत् मालूम पड़ने वाली वस्तु को शास्त्र झूठा कहता है ऐसी स्थिति बिना श्रद्धा के आप कैसे स्वीकार करेंगे ? बुद्धि से स्वीकार नहीं कर सकते । श्रद्धा से ही आपको स्वीकार करना पड़ेगा ।

              एक भारी विडंबना जगत में है । जिसकी तरफ आप ध्यान रखियेगा । जब शरीर इन्द्रियों में शक्ति का उद्रेक रहता है, शक्ति कूदती है तो अनुभव नहीं रहता है, बुढ़ापे में जब अनुभव होता है तो शक्ति चली जाती है बुढ़ापे में अनुभव बहुत आ जाता है पर शक्ति नहीं है, आदत बिगड़ गई । एक जगह अनुभव है, एक जगह शक्ति है । उस अनुभव का यदि उपयोग हो तो शक्ति का अपव्यय न हो । गुरु में अनुभव है, शास्त्र में अनुभव है, शक्ति हमारे अन्दर कूद रही है । उस अनुभव से हमारी शक्ति परिचालित हो तो शक्ति का अपव्यय नहीं होगा ।नहीं तो हमारी शक्ति प्रतिक्षण क्षीण होती चली जायेगी, पर इसके लिए क्या उपाय है ? आज बालक के अन्दर शक्ति है पिता उसको दबाता है । कल वह विद्रोही बन जायेगा । पर श्रद्धा में विद्रोह नहीं होता ।

               एक श्रद्वातत्त्व ही ऐसा है कि जिसके आधार पर हम शास्त्र एवं गुरु के अनुभव ज्यों का त्यों अपनी शक्ति से मिला देते हैं । अब वह श्रद्धा कहाँ से लाई जाये ? श्रद्धा लानी नहीं पड़ती आपको । श्रद्धा मनुष्य को जन्म से प्राप्त है  । आपको छोटे में आप से कह दिया यह माता है आपने मान लिया, यह पिता है आपने मान लिया । कैसे मान लिया ? जिससे आपने माना वही श्रद्धा है आपके अन्दर कोई विकल्प पैदा नहीं होता ।कह दिया जाये यह हाथी है आपने मान लिया, यह कौआ है आपने मान लिया, यह मकान है आपने मान लिया, आपने मान लिया कि नहीं मान लिया ? जो कुछ हमने गृहीत किया है वह श्रद्धा से गृहीत किया है । पर आपको श्रद्धा का नाम स्कूल में अन्धविश्वास पढ़ा दिया गया, आपको भ्रमित कर दिया गया, आपने उसी अन्धविश्वास से मान लिया कि भारत में जो वेदशास्त्र हैं सब अन्धविश्वास से भरे पड़े हैं । न आप वेद पढ़े, न उपनिषद पढ़े, न कुरान पढ़े । ऋषियों ने इस बात को बहुत ध्यान दिया है । इसलिए आपकी जन्मजात श्रद्धा को सुरक्षित रखने के लिए उन्होंने बड़ा भारी ढ़ांचा तैयार बनाया । यह आपके पास अमूल्य संपत्ति थी जिसको आज की शिक्षा ने छीन लिया है । गुरु-शिष्य संबंध टूट गया । आज की शिक्षा ने आपको बुद्धिवादी बना दिया और आप अपनी अमूल्य शक्ति श्रद्धा से विचलित हो गये, उसको भूला गये । यद्यपि आज भी वह चीज काम कर रही है । हम उसी अन्धविश्वास से सभी चीज ग्रहीत कर रहे हैं ।

                    आप फैक्ट्री में देखने नहीं जाते कि दवा कैसे बनती है । विश्वास करते हैं आप । उसको अंधविश्वास से खाते हैं । बिना इस विश्वास के एक कदम व्यक्ति नहीं चल सकता है । विवाह करके आता है, पत्नी पर विश्वास नहीं करोगे तो क्या होगा ? तुम्हारे मन में आयेगा जहर दे दें कल । आप उसी अन्धविश्वास से कम कर रहे हो । जिस श्रद्धा को अन्धविश्वास करके उड़ाया गया वह हमारी बहुत बड़ी संपत्ति है । पर इस बुद्धिवाद ने हमारे अमूल्य तत्त्व को आवृत कर दिया है, हमको धोखे में डाल दिया है । "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं" ज्ञान किसको प्राप्त होता है ? ज्ञान श्रद्धा के बिना प्राप्त नहीं होता । वह श्रद्धा जब जाग्रत होगी है तब साधक अपनी बात को झुठला करके गुरु एवं शास्त्र की बात ऊपर कर देगा, श्रद्धा से पकड़ेगा तो धीरे धीरे लक्ष्य को प्राप्त करेगा ।

              "श्रद्धावांल्लभते ज्ञानं तत्परः" केवल श्रद्धा से भी काम नहीं चलेगा, आपको लक्ष्य के प्रति तत्पर हो जाना पड़ेगा "कार्यं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि" --- "तच्चिन्तनं तत्कथनं अन्योन्यं तत्प्रबोधनं, एतदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासं विदुर्बुधाः" । पर आप तत्पर तब तक नहीं हो सकते जब तक इन्द्रियों का निग्रह न हो । इसीलिये--- "तत्परः संयतेन्द्रियः" ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिं" ये तीन चीजें हम अपने जीवन में प्रतिष्ठित कर लेवें तो ज्ञान का उदय हो जायेगा । जिससे आपको ऐसी शान्ति प्राप्त होगी जो कभी विचलित होने वाली नहीं है। यह बात किसी भी ज्ञान के विद्यार्थी को समझना चाहिए कि यदि तुम सच्ची योग्यता प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें श्रद्धालु बनना पड़ेगा । तुमको तत्परतापूर्वक परिश्रम करना पड़ेगा और इन्द्रियों को वश में रखना पड़ेगा । बिना इसके सच्चा ज्ञान कहीं प्राप्त नहीं हो सकता । तो यह श्रद्धा है ।

क्रामशः ------

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