तृतीय श्लोक, प्रवचन


सृष्टि के कण कण में अनुस्यूत दक्षिणामूर्ति तत्त्व भगवत्स्वरूप संतवृन्द तथा आत्मस्वरूप श्रोत्रवृन्द ! हम लोग श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्र पर विचार कर रहे हैं । प्रथम श्लोक में एक बात सामने रखी गई थी कि सृष्टि के मूल में एक सत्ता है और चैतन्य है, ज्ञप्ति रूपा है । उसी में यह सारा का सारा जगत कल्पित है । दर्पण में प्रतिबिंब के समान उसकी स्थिति है । उसी से सारा जगत सत्ता एवं प्रकाश प्राप्त करता है । दूसरे श्लोक मे यह निर्धारण किया गया कि जब एकमेवाद्वितीयं तत्त्व है, वही सत्ता और चित् रूप है तो जगत उसमें प्रतीत कैसे हो रहा है ? यह बताया कि देखो वृक्ष जो दिखाई देता है वह उत्पत्ति के पहले सूक्ष्म एक बीज रूप में था । इसी प्रकार यह जो सारा का सारा जगत् उत्पत्ति से पहले परमात्मा रूप ही था । परमात्मा ही था थो जगत् कैसे आ गया ? माया शक्ति से आया । जैसे मायावी बिना सामग्री के बड़ा विलक्षण दृश्य उत्पन्न कर देता है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मायावी तो अपने स्वार्थ के लिए माया दिखाता है । उस परमात्मा का क्या स्वार्थ है इसके साथ ? “महायोगीव यः स्वेच्छया" मायावी का स्वर्थ अंश नहीं लेना । वह महायोगी के समान स्वतंत्र है उसमें एक स्वातंत्र्य शक्ति है ।स्वातंत्र्य शक्ति के आधार पर ही अनन्त शक्ति के रूप में प्रतिभासित होते हुए भी ज्यों का त्यों रहता है । जैसे दर्पण अनन्त प्रतिबंबों को धारण करते हुए भी ज्यों का त्यों रहता है । दर्पण की दृष्टि कोई प्रतिबिंब उत्पन्न हुआ ही नहीं । दर्पण में किसी प्रतिबिंब का कोई संपर्क आया ही नहीं, केवर ठोस दर्पण ही रहा । इसी प्रकार आपका जो स्वरूप है, संपूर्ण विश्व का जो स्वरूप है वह परमात्मा रूप ही है ।अनंत विश्व अनंत काल से उसमें देशकाल के अनुसार प्रतिभासित हो रहे हैं । फिर वहाँ अनेजत् ही है । उसमें स्पंद ही नहीं हुआ ।  उसमें किसी प्रकार का दृश्य उतपन्न ही नहीं हुआ, कभी दृश्य के साथ उसका संबंध ही नहीं हुआ । इसके बाद तीसरे श्लोक में बात आयी थी कि जगत् कैसा है ? “असत्कल्पार्थकम्" असत्कल्प है । असत्कल्प कहने का तात्पर्य हमने बता दिया था । थोड़े इनके अक्षरों को विचार करके फिर आगे बढ़ेंगें ।

                 जैसे वंध्यापुत्र असत् है । आकाश का पुष्प असत् है । असत् का प्रयोजन वहां पर है जहाँ पर वस्तु भी नहीं और दिखती भी नहीं है । असत् समान ही यह जगत् है  । जहाँ पर तुल्य-- समान कहा जाता है, वहां पर उसमें भिन्नत्व होता है, पर उसका बहुत बड़ा गुण उसमे रहता है । “तद्भिन्नत्वे सति तद्गत भूयो धर्मत्वम्"--- यह सादृश्य का लक्षण है । जगत में क्या सादृश्य है ? उसका जिसके समान यह है । यह दिखता है पर है नहीं । “है नहीं" यह सादृश्य है उसके असत के समान । वह दिखता नहीं है और है नहीं इससे वह तो समझ में आ जाता है, पर यहाँ पर बड़ी जटिलता हो जाती है । दिखता है पर है नहीं । यह सारा का सारा जगत दिखता है पर है नहीं । पर्दे पर सभी चित्र दिखते हैं, पर हैं नहीं और जो दिखता नहीं है वह पर्दा वहीं है । पर्दा ही चित्र के रूप में दिखता है । पर्दे के ही अस्तित्व से चित्र अस्तित्ववान हो रहे हैं । ठीक इसी प्रकार “यस्यैव सदात्मकं स्फुरणम्" उस सत् की सत्ता कैसी है ? सत् रूपा है । वहीं कहाँ पर चली गई है ? यह जो असत्कल्प सारा का सारा जगत है उसी में अनुस्यूत है । वह अनुस्यूत होकर उसको सत्ता और प्रकाश प्रदान कर रही है ।इस जगत की तो सत्ता ही नहीं है । पर अन्तर इतना हुआ कि दिखता है पर है नहीं । वंध्यापुत्र दिखता भी नहीं है और  है भी नहीं । तो वहां तो भ्रान्ति उतनी नहीं होती क्योंकि दिखता ही नहीं है । वहां बड़ी भारी भ्रान्ति होती है, क्योंकि यह दिखता है पर है नहीं ।

                 इस समस्या के समाधान के लिए ही गुरुकृपा है ।पर गुरुकृपा प्राप्ति के लिए गुरु के पास जायेगा कौन ? गुरु के पास वही जायेगा जिसका जगत से विश्वास उठ गया है,  कि इससे सारा काम नहीं चलेगा । इससे वैराग्य हो गया है तो गुरु के पास जायेगा अपनी समस्या के समाधान के लिए । दूसरा जिसे जगत से वैराग्य नहीं हुआ है वह गुरु के पास क्यों जायेगा ? इस जगत को मांगने के लिए गुरु के पास जायेगा, क्योंकि उसको तो इसमें सत्यत्व बुद्धि है । वह उस काम के लिए गुरु के पास नहीं जायेगा । गुरु का आश्रय कौन लेता है ? देखिए--- एक व्यक्ति है जो जगत का आश्रय लेकर गुरु के पास जाता है, जगत मांगने के लिए और एक व्यक्ति देखता है उसका जगत का आश्रय है नहीं, उसका जगत का आश्रय छूट गया है, क्योंकि उसने निर्धारित कर लिया है कि जगत मिथ्या है । जगत के आश्रय से हम अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । उसको अपने कार्य की सिद्धि के लिए जगत का आश्रय टूट गया है । वह गुरु का ही आश्रय लेता है । अतः गोस्वामी जी कहते हैं--- बिन गुरु होइ कि ज्ञान ज्ञान कि होइ बिराग बिनु । बिना गुरु के ज्ञान नहीं हो सकता, बिना ज्ञान के वैराग्य हो नहीं सकता । वैराग्य पहले होगा फिर गुरु का आश्रय लेगा ।

परीक्ष्य लोकान् कर्मचिन्तान् ब्राह्मणो निर्वेमायान्नास्त्यकृतः कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ।।

                जब जगत की परीक्षा कर लेगा तो जगत से वैराग्य हो जायेगा और जगत से वैराग्य होगा तो गुरु के पास जावेगा । जगत का आश्रय न लेकर गुरु का आश्रय लेगा । इसलिये यहाँ पर “आश्रितान्" शब्द है । “आश्रितान् बोधयति" गुरु का आश्रय ले लिया है तत्त्व का आश्रय ले लिया है ।तो उसका बोध कराता है ? कैसे बोध कराता है ? जो बुद्धि का विषय नहीं है उसका बोध कैसे करायें ? इसीलिये गुरु अपनी बुद्धि के बल पर बोध नहीं कराता है, श्रुति के बल पर बोध कराता है, स्वयं की बुद्धि सै कोई चीज स्फुरित नहीं होती, उसमें अहंता जरूर रहेगी । इस प्रकार बुद्धि का विषय बनाया नहीं जा सकता फिर बोध कैसे करायेंगे ? हाँ ! वह बोध कराता है परंपरा से । श्रुति जैसे बोध कराती है । इसीलिये कहा-- “वेद वचसा बोधयति ।" वेदवाणी के अलावा कोई वाणी नहीं जिसके द्वारा वह तत्त्व समझाया जा सकता है ।

                 एक उद्दालक नाम के ऋषि थे, उनका पुत्र था श्वेतकेतु बच्चे से प्रेम ज्यादा होने से पढ़ने नहीं भेजा तो पढ़ाई नहीं हुई ।आखिर उन्होंने सोचा ऐसे कैसे काम चलेगा ? गुरुकुल में पढ़ने के लिए भेज दिया । वहां से पढ़कर के आया तो बड़ा भारी अभिमान हो गया । यहाँ तक उसने अपने को इतना बड़ा विद्वान समझा कि गुरु को प्रणाम नहीं किया, पिता को प्रणाम नहीं किया । पिता ने देखा पुत्र बड़ा भारी विद्वान बन करके आया है । “विद्या ददाति विनयम्" । इसमें विनय आना चाहिए था पर विनय नहीं आया । अब इसका दोष कैसे दूर करें ? पिताजी बड़े विद्वान थे । उन्होंने कहा--तुम बड़े विद्वान होकर के आये हो, पर एक ऐसी विद्या है उसको भी पढ़ा गुरु जी से ? कहा कौन विद्या ? कहा-- जिस विद्या को जान लेने से कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है । एक विज्ञान से सर्व विज्ञान हो जाता है । ऐसी विद्या पढ़ा गुरू जी से ? उसने कहा ऐसा विज्ञान तो गुरु जी ने नहीं बताया । ऐसा लगता है गुरू जी को पता नहीं था ।नहीं तो हमको जरूर बताते, क्योंकि मैं उनका बड़ा प्रिय शिष्य था । कहा-- फिर तुम्हारी पढ़ाई तो अधूरी रह गई । कहा-- आप हो, आप पढ़ा दीजिये । नम्र हो गया, चरणों में गिर गया ।कहा वह विद्या है कारण विज्ञान से कार्य विज्ञान । एक मिट्टी के ज्ञान से सारे घड़ो का रहस्य ज्ञात हो जाता है । तो उसको विस्तार से बताकरके एक वाक्य में कहा-- “तत्त्वमसि" जो सृष्टि का आदि कर्ता है, जिसने संकल्प मात्र को लेकर के माया शक्ति से सृष्टि की और सृष्टि करके बुद्धि में प्रवेश किया । प्रवेश के बाद कार्य करण संघात को लेकर के जीव संज्ञा हुई जिसकी ।उसका श्वेतकमल के लिए उपदेश किया “तत्त्वमसि"--- बेटा तू वही है । यह जो स्वरूप शरीर रूप से हमको दिखाई दे रहा है वह हम नहीं हैं । तो हम क्या हैं ? हम एक हैं, हमारा वास्तविक स्वरूप तो परमेश्वर ही है ।श्वेतकेतु ने कहा कि ईश्वर तो सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है, हम तो यहाँ थोड़ी भी बात नहीं जान पाते हैं, किसी के मन की बात नहीं जान पाते ।

               कुछ बातें होती हैं कि जिसका वाच्यार्थ नहीं घटता है, उसको लक्षणा से समझना चाहिये । जैसे मान लीजिये कि कोई व्यक्ति किसी महात्मा की खोज के लिए हमारे पास आया और पूछा कि उस महात्मा की कुटी कहाँ है ? तो हमने कह दिया गंगा में है । हमने तो कह दिया कि गंगा में है लेकिन गंगा नाम है जल की धारा का, जल की धारा में तो कुटी हो नहीं सकती तो “गंगा में है" इसका वाच्यार्थ के साथ नहीं घट सकता तो लक्षणा से अर्थ लगा लेते हैं । आप समझ लेते हैं कि गंगा के किनारे । गंगा के किनारे हमने नहीं कहा, हमने कहा गंगा में है पर आपने उसका अर्थ क्या समझा ? गंगा के किनारे है आपने ऐसा अर्थ कैसे समझा ? वाच्यार्थ घटने से यही एक प्रकार की लक्षणा है । इसको कहते हैं-- जहत् लक्षणा । यानी वाच्यार्थ का पूरा परित्याग हो गया । लक्षणा तीर भाग में होती है । एक अजहत् लक्षणा है, जैसे हम वहां पर बैठे हुए हैं, वहाँ पर घी दूध रखा हुआ है ।आप आ गये । हमने कहा भाई ! जरा कौवे से बचाना । मैं अभी स्नान करके आता हूँ, मैं तो चला गया स्नान करने, अब बिल्ली आ जायेगी तो आप बचायेंगे कि नहीं ? हमने तो कहा था कौवे से बचाना पर बिल्ली आयेगी तो आप बचायेंगे कि नहीं बचाएंगे ? आप बचायेंगे क्योंकि आपने लक्षणा से उसका अर्थ किया है कि कौवे के समान घी, दूध को दूषित करने वाले जितने जीव हैं उन सबसे बचाना है । यह अजहत् लक्षणा है । आपने कौवे को भी ले लिया, बिल्ली को भी ले लिया, कुत्ते को भी ले लिया । कुत्ता बिल्ली तो हमने कहा नहीं था । आप यह कैसे लेते हैं ? लक्षणा से आपने क्षअर्थ लिय । उसका तात्पर्य यही है, कौआ तात्पर्य नहीं है, बल्कि घी दूध दूषित करने वाले सभी से रक्षा करनी है । यह अजहत् लक्षणा है । एक भाग त्याग लक्षणा होती है । जैसे मान लीजिए आप बीस साल पहले आप काशी में पढ़ते थे । वहां एक देवदत्त नाम का लड़का था । उससे आपकी दोस्ती थी ।अब पच्चीस बरस के बाद एकाएक आपको नागपुर में मिल गया । पहले तो आप पहचान नहीं पाये । जब बहुत ध्यान दिये तो पहचान गये--- अरे यह वही देवदत्त है । वही देवदत्त कैसे ? वह तो कम अवस्था का देवदत्त था । वह तो काशी वाला देवदत्त था । यह तो ज्यादा अवस्था का देवदत्त है और नागपुर वाला देवदत्त है । आपने कैसे कह दिया यह वही देवदत्त है ? यह अवस्था रूप उपाधि को आप छोड़ दीजिये, देश रूप उपाधि को छोड़ दीजिये, काल रूप उपाधि को छोड़ दीजिये तो वही देवदत्त है, जो देवदत्त आपके साथ पढ़ता था । इसको भाग त्याग लक्षणा कहते हैं । उपाधि भाग का त्याग करके देवदत्त भाग में एकता है । इसका नाम है भाग त्याग लक्षणा ।

              गुरूजी ने कहा--- देखो बेटा ! सृष्टि के आदि में जो परमेश्वर तत्त्व था उसने माया शक्ति को लेकर सृष्टि की । तो उस समय परमेश्वर माया शक्ति वाला था । फिर सृष्टि करके उसमें प्रवेश कर गया तो जीव भाव से यहां पर । यहाँ पर कार्य करण संघात वाला हो गया परमेश्वर । प्रवेश तो उसी ने कियख तो यह कार्य करण संघात वाला परमेश्वर है एवं वह माया शक्ति वाला परमेश्वर है । माया को हटा दो, इस कार्य करण संघात को हटा दो, इतने भाग को हटा दो तो परमेश्वर तो वही है । परमेश्वर तो दूसरा नहीं हो गया । परमेश्वर तो वही हुआ । तो यह भाग त्याग लक्षणा है । तो इस भाग त्याग लक्षणा से “तत्त्वमसि" का अर्थ होता है वह माने सृष्टि का कर्ता । त्वम् माने तू, कार्य करणा का अभिमान रखने वाला तू  । इन दोनों की एकता कैसे हो सकती है ? जीरो पावर का प्रकाश और लाख पावर के प्रकाश की एकता नहीं हो सकती, दोने समान नहीं हो सकते । पर दोनो बल्बों को तो विद्युत में दोनों की एकता है । दोनों में एक ही विद्युत है , जो जीरो पावर में विद्युत प्रकाश रूप में दिख रही है और जो लाख पावर के प्रकाश में दिख रही है । विद्युत में एकता कैसे होगी ? आपको बल्ब भाग छोड़ना पड़ेगा । एक ही विद्युत दोनो जगह है । श्रुति कहती है तत्त्वमसि । हे श्वेतकेतो ! यह जो तुमने कार्य करण संघात में अभिमान कर रखा है, वह छोड़ दो, एवं वहां जो करण रूपता की माया उपाधि है उसको अलग कर दो तो एक ही है दो नहीं ।

                  एक ही का दो नाम हो गया, एक ही ब्रह्म का दो नाम हो गया । मायोपाधि के कारण उसका नाम है गया ईश्वर, वह तत् पद का वाच्य हो गया । मलिन सत्व रूप अविद्या उपाधि के कारण, अन्तःकरण उपाधि के कारण उसका नाम हो गया जीव ।उसी का नाम जीव हुआ, जिसका का नाम ईश्वर हुआ । पर ईश्वर की उपाधि पूर्ण है इसलिए ईश्वर एक है, जीव की उपाधि छोटी छोटी है इसलिए जीव अनेक प्रतीत होते हैं ।परन्तु इस उपाधि को छोड़ने पर एक ही अवशेष रहा । उपाधिगत द्वैत निवृत्त हो गया इस लिए यहाँ पर “तत्त्वमसि" भाग त्याग लक्षणा के द्वारा "यो बोधयत्याश्रितान्"--- बोध करता है । किसको बोध कराता है ? जगत का आश्रय लेकर जो तत्त्व का आश्रय लेते हैं, गुरु का आश्रय लेते हैं उनको बोध कराता है वह बोध कराने वाला परमेश्वर दक्षिणामूर्ति है, उसे नमस्कार है ।

                  अब प्रश्न आता है कि एक ही प्रकाश है, सत्ता रूप प्रकाश है, तो ये विभिन्नताएं क्यों प्रतीत होती हैं ? उससे सबको प्रकाशित हो जाना चाहिए । शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध सबको प्रकाशित करे । तो समान प्रकाश तो दिखाई देते देता है । रूप का ज्ञान हो रहा है तो गंध का ज्ञान नहीं । जब गंध का ज्ञान होता है तो रूप का ज्ञान नहीं होता-- यह भेद ज्ञान कैसे होता है ? इसलिए क्यों न मान लिया जाये कि ये पदार्थ स्वयं प्रकाशित हो रहे हैं ?कहा--- नहीं ! स्वतः सन्तः प्रकाशन्ते भावा घटपटादयः ---यह घटपटादि भाव यदि स्वतः अपनी अस्तित्व से प्रकाशित होते,  तब फिर क्या होता ? यहाँ पर फिर ग्राह्य ग्राहक भाव बनता । वह भी ग्राहक हो जाता, वह भी ग्राह्य हो गया । सभी अपने को प्रकाशित करते । वह घट भी आपको जान लेते ।फिर तो सारी चीजों के विषय में अव्यवस्था हो जाती । इसी के उत्तर म़े कहते हैं कि यह प्रक्रिया कैसे बनती है ? आत्मा स्वयं प्रकाश है तो उसको सूर्य की क्या जरूरत ? उसको विद्युत की क्या जरूरत ? यदि वह स्वयं प्रकाश रूप है तो उसको आंख कान की क्या जरूरत ? सबको प्रकाशित कर देगा । इसका उत्तर देते हैं---

क्रमशः ------

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