पञ्चम श्लोक
देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः,
स्त्रीबालान्धजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणे,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।५।।
कोई कहते हैं-- “देहं अहं इति विदुः" शरीर मैं हूँ । दूसरे कहते हैं ‘प्राणं' प्राण मैं हूँ । तीसरे कहते हैं “अपि इन्द्रियाणि" इन्द्रिय सहित जो प्राण है वह आत्मा है, आत्मा है माने अहमिति, यही मैं हूँ । अन्य कहते हैं “चलां बुद्धिं" यह जो चल बुद्धि है यही आत्मा है, अहमिति । दूसरे कहते हैं “शून्यं" यह शून्य ही सबका स्वरूप हो सकता है । ये कौन कहते हैं ? कहते हैं कि “भृशंवादिनः भ्रान्ताः" बहुत बोलने वाले, अपनी बुद्धि को बहुत भारी उत्कृष्ट मानते हैं । शास्त्रार्थ करने करने के लिए सदा प्रयासरत रहते हैं, बकबक करने वाले वादी हैं । वादी माने झगड़ा करने वाले । ऐसा क्यों बोलते हैं ? कहते हैं भ्रान्त हैं । अभ्रान्त ज्ञान एक होता । भ्रान्त ज्ञान बहुत होते हैं । इनमें परस्पर लड़ाई होती है । कहते हैं शरीर आत्मा है । कहते हैं नहीं प्राण आत्मा है । आपस में लड़ते हैं कहते हैं इन्द्रियां आत्मा हैं ।, तो इन्द्रियां कुछ हैं ही नहीं । खाली बुद्धि ही है यही आत्मा है और यह क्षणिक है । कहते हैं कुछ भी नहीं तुम लोग फालतू झगड़ा करते हो । आत्मा वात्मा कुछ है ही नहीं । सब भ्रान्ति है ।“भ्रान्ता भृशं वादिनः" इसकी उपमा-- इनकी सादृश्य--समानत किसके साथ दी जा सकती है ? कहा-- चार के साथ इनकी समानताएं हैं-- “स्त्रीबालान्धजड़ोपमाः ....." पहली उपमा स्त्री के साथ है । माताएं तो नाराज हो जायेंगी पर नाराज नहीं होना चाहिए । स्त्री शरीर में जीव को मोह ज्यादा होता है । स्त्री शरीर में मोहशक्ति विशेष रूप से प्रकट होती । न प्रकट हो तो कार्य नहीं हो सकता । क्योंकि उसका पार्ट ही वैसा है ।
कोई कोई ऐसी है स्त्री शरीर में जो मोह रहित होकर गार्गी की भांति आत्मभाव में प्रतिष्ठित होकर के पुरुष भाव में प्रतिष्ठित हो जाती है । पर स्त्री शरीर का जो पार्ट है बालक को गर्भ में धारण करना, फिर बालक को पालना, पालन करके उसको बड़ा बनाना । घर संभालना है उसको । घर में संग्रह नहीं करेगी, सामान फेंकती रहेगी तो घर कैसे चलेगा ? घर संभालने के लिए भी उसको मोह करना पड़ता है । उसको व्यवहार निभाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है । मोह शक्ति ज्यादा होती है एवं शरीर अध्यास ज्यादा होता है । शरीर की तरफ विशेष ध्यान जाता है । शरीर के श्रृंगार आदि में ज्यादा ध्यान जाता है ऐसी स्त्री शरीर रूपी उपाधि की प्रकृति है । वह जो शरीर को ही आत्मा मानते हैं उनको तो ऐसा मानना चाहिए कि जैसे स्त्री शरीर वाली को शरीराध्यास ज्यादा होता है, क्योंकि उसका पार्ट शरीराध्यास का ही है ।इसी प्रकार उसकी उपमा समझ लेना चाहिए । यह उनकी दशा है जो शरीर को दिन रात संवारते रहते हैं । शरीर को दिन रात खिलाने पिलाने में लगे रहते हैं ।
जवानी अवस्था में बहुत लोग लगे रहते हैं, चाहे पुरुष शरीर में हो चाहे स्त्री शरीर में हो । कहीं एक बाल पकेगा तो उसको उखाड़ कर फेंक देंगे कि कहीं लोग हमें बूढ़ा न समझा लें । अरे ! तुम शरीर ही नहीं हो तो बूढ़े कहाँ से हो जाओगे ? कोई लक्षण ऐसा आ गया कि इसकी जवानी ढ़ल रही है, तो झट उस लक्षण को दूर कर देते हैं । जवान ही दिखना चाहिए । सुन्दर ही दिखना चाहिए । आजकल तो सुना है मशीन बनी है । मशीन से खींचखांच कर उसको ठीक कर देते हैं, यहाँ तक झुर्रियों को भी खींचखांच कर ठीक कर देते हैं । पाउडर लगा लगा कर ऐसे दिखते हैं कि हमारा चेहरा बहुत सुन्दर है । यह सब शरीराध्यास है चाहे पुरुष करे चाहे स्त्री करे पर स्त्री प्रकृति है । इसी प्रकार चार्वाक दिन भर इसी में लगा रहता है ।भाष्यकार भगवान कहते हैं-- “शरीरं पोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ।" जो रात दिन शरीर पोषण में ही लगा है फिर भी वह चाहता है कि मैं आत्मा का दर्शन करूँ । तो उसकी स्थिति क्या है ? नदी पार करना चाहता है पर एक ग्राह वहां दिखा उसको लकड़ी समझा और उस पर बैठ गया, सोचा हम नदी पार कर लेंगे-- “ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ।" जैसे वह पार नहीं कर सकता है, बीच में डूब जायेगा । ऐसे जो शरीर के पोषण में रात दिन लगा रहने वाला है वह आत्मदर्शन नहीं कर सकता । चार्वाक शरीर को ही आत्मा मान लेता है । उसको आत्मा का दर्शन कहाँ से होगा ?
दूसरी उपमा दी बालक की । बालक को क्या होता है ? हमेशा यह होता है कि वह खाने पीने में ही, इन्द्रिय पोषण में ही लगा रहता है । उसको ज्यादा विवेक नहीं होता । उसको दो चार दस दिन टीवी के सामने बैठा दो तो टीवी नहीं छोड़ेगा । उसमें इन्द्रिय पोषण और प्राण पोषण से अधिक अलग विवेक नहीं होता ।वह यह नहीं सोचता कि हमारा नुकसान क्या होगा ? उसको यह थोड़े ही पता है कि अधिक टीवी देखने से आंख खराब हो जायेगी, उसको पता नहीं लगता । वह रोयेगा वहीं बैठने के लिए जहाँ के लिए आपने निषेध किया है । तो बालक के समान-- जैसे बालक पूर्वापर का विचार नहीं रख सकता । इसी प्रकार जो प्राण को इन्द्रिय को ही आत्मा मानते हैं वे विवेक रहित बालक हैं ।वह अपना कल्याण कैसे करेंगा ?
कहा-- “चलां बुद्धिं" जो दिया है ऊसके लिए कहा अन्धे के समान। अरे ! तुम क्षणिक मानते हो...! बुद्धि को क्षणिक मानते हो उसी को आत्मा मान लेते हो, आत्मा तुम्हारा हो गया क्षणिक । अब दूसरे क्षण रहा ही नहीं वह । जैसे अन्धे को कुछ रूपादि दिखाई नहीं देते ऐसे तुमको इतना भी नहीं दिखाई देता है कि एक क्षण में जब आत्मा नष्ट हो जायेगा तो पूर्वापर का परामर्श कौन करेगा ? अन्धे को जैसे लाल पीले का भेद नहीं दिखाई देता है ऐसे तुमको इस प्रकार का नहीं दिखाई देता तो तुम अन्धे के समान हो । कहा शून्यवादी ?.कहा शून्यवादी तो पत्थर के समान है । उसकी बुद्धि तो इतनी जड़ है कि इधर कहता है “शून्यमासीत्" मात्र शून्य था । अरे इधर तो कहते हो शून्य था, तो बिना जाने कैसे कह दिया तुमने ? यदि जाने तो शून्य से अलग सिद्ध हो गया कि नहीं ? वह तो पत्थर के समान है । इसलिए कहा-- “स्त्रीबालान्धजड़ोपमाः" । यह हमने अलग अलग लगा दिया ।इसलिए सभी उपमाएं सभीझ के साथ लग जाती हैं । चार्वाक भी जो देह को आत्मा मानने वाला है वह भी “स्त्रीबालान्धजड़ोपमाः" है । प्राणेन्द्रिय को आत्मा मानने वाला भी “स्त्रीबालान्धजड़ोपमाः" है । जो विवेक रहित है और क्षणिक बुद्धि को आत्मा मानने वाला है वह भी स्त्रीबालान्धजड़ोपमाः" है और शून्य मानने वाला भी ।
मैने एक एक को लगाया था, एक एक की संगति जरा ठीक प्रतीत हो रही थी । इसलिए लगा दिया था । सुरेश्वराचार्य भगवान ने अलग अलग नहीं लिया, सबको एक साथ लिया । देखिये "भृशंवादिनः" बहुत बकबक करने वाले हैं । हां भाई ! इतने बड़े बुद्धिमान लोग इतने बुद्धिमान लोग जो दर्शन के कर्ता हैं आप उनकी बातों को ऐसे ही ऐसे ही उड़ा दिये । वे तो पढ़े लिखे लोग हैं उनको आपने कह दिया "स्त्रीबालान्धजड़ोपमाः" इतनी बड़ी गाली दे दी आपने उनके लिए, यह तो ठीक नहीं है । यह जो माया शक्ति है न परमेश्वर की उसके विषय में कहा-- ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा । बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ।।" यह महामाया का स्वरूप ही ऐसा है क्या किया जाये । "मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोह" यह माया शक्ति का खेल है । बड़ा भारी मोह उत्पन्न कर देती है । केवल साधारण लोगों में ही नहीं, विद्वानों में भी कि मैं बड़ा ज्ञानी हूँ । भयंकर मोह उत्पन्न कर देती है । यह देखा जाता है ।
एक बार गीता भवन में गीता जयंती थी, उस समय महात्मा बहुत आ जाते हैं । बाकी सब व्यवस्था तो ठीक रखते थे, पर सबसे बड़ा झगड़ा प्रवचन के लिए समय का था । सभी महात्मा बोलना चाहते हैं और दो घंटे का समय था । झगड़ा वहां पर यही कि हमको समय नहीं दिया, समय नहीं देना था तो बुलाया क्यों ? एक महात्मा ने तो जिद ही पकड़ ली । जो ऋषि जी थे उन्होंने कहा कि इनको पांच मिनट का समय दे दो । महात्मा जी आये और कहा किस विषय पर बोलूं ? तो उन्होंने कहा आजकल क्रोध की समस्या ज्यादा है, आप उसी विषय पर कुछ बोल दें । विद्वान तो थे ही । क्रोध में कितने दोष हैं, इसके कितने नकारात्मक पक्ष हो सकते हैं-- उसके विषय में तमाम श्लोकों की झड़ी लगा दी । क्रोध से इतना खून सूख जाता है, तो बुद्धि ऐसी हो जाती है, तो मन ऐसा हो जाता है इन्द्रियों का बल क्षीण हो जाता है, यह क्रोध महाशत्रु है । अब चार मिनट बोले थे । उन्होंने इशारा कर दिया माइक जरा दूसरे विद्वान के सामने रख दो । जब माइक दूसरे विद्वान के सामने आया तो उनको स्टेज पर ही जोर से क्रोध आ गया, बहुत जोर से क्रोध आया कि समय से पहले ही माइक हटा दिया । बहुत जोर से क्रोध आ गया उन लोगों पर । लोग बड़े जोर से हंसने लगे । तो यह "मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोह" । व्यक्ति क्रोध को, अहंकार को अपनी बुद्धि से वश में नहीं कर सकता । गुरु की कृपा, ईश्वर की कृपा के बिना अहंकार को तोड़ना बड़ा कठिन है । दक्षिणामूर्ति गुरुतत्त्व की जब कृपा हो जाये तभी यह टूट सकता है, नहीं तो इसका टूटना बड़ा कठिन है । इसलिए कहा है हे साधो ! महाव्यामोह है । मायाशक्ति का खेल है ।
कृष्णावतार में ब्रह्मा को व्यामोह हो गया । ये कृष्ण भगवान कैसे हो सकते हैं ? ऐसों ऐसों को भी व्यामोह हो गया । कितना ज्ञान है पर व्यामोह हो गया । देखिए विष्णु-ब्रह्मा में बड़ा संघर्ष हुआ । ज्योतिर्लिंग उनके संघर्ष में ही प्रकट हुआ था । मायाशक्ति ऐसी ही है । अहंकार कहीं भी हो सकता है । यहाँ तक कि ज्ञान का भी अहंकार हो जाता है, समाधि का भी अहंकार हो जाता है ।गीता में कहा है-- "सुख सङ्गेन बध्नाति ज्ञान सङ्गेन चानघ ।" सात्विकता का अभ्यास किया जाता है तो उसका भी अहंकार हो जाता है । यही सबसे कठिन है । इसको तोड़ना कठिन है । यह गुरु की कृपा के बिना, ईश्वर की कृपा के बिना । तोड़ नहीं सकते ।
गोस्वामी जी कहते हैं-- श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई ।। देखो ! अहंकार को तोड़ने के लिए सारे ममत्व को तोड़कर व्यक्ति साधु होता है । साधु को इसका भी, त्याग का भी अहंकार होता है । सामान्य कोई बनना नहीं चाहता है । गृहस्थ होकर के सामने बैठ गया । प्रणाम नहीं किया मुझे । अरे बाबा ! अहंकार छोड़ने के लिए साधु हुए हो । इसने प्रणाम नहीं किया, प्रणाम नहीं किया यही तो तोड़ना है । "मानापमानयोस्तुल्यं"....। अपने महाराज जी कहते थे कुंए में एक मुर्दा गिर गया । दुर्गंध आने लगी । अब क्या करें ? किसी ने कहा केवड़े का फूल छोड़ दो । केवड़े का फूल छोड़ दिया । सुगन्धा आने लगी । सुगंध भी कब तक काम करेगी ? किसी ने कहा पानी निकाल दो । पानी तो निकाल दिया पर मुर्दा नहीं निकाला । फिर पानी में दुर्गंधि तो आयेगी ही । ऐसा ही चित्त रूपी कुंआ है, जिसमें अहंकार रूपी मुर्दा खड़ा हो गया है । वह हर जगह संकट उत्पन्न कर देता है । हर जगह दुर्गंध आती है । यह साधन जप तप तो बहुत करता है, पर उस मुर्दे को नहीं निकालता । साधन करने पर भी मुर्दे को नहीं निकालेगा तो कैसे बचेगा ? तब इसको क्रोध आ ही जायेगा । काम आ ही जायेगा । मोह आ ही जायेगा । इस मुर्दे को जब तक न जलावे, न निकाले तब तक समस्या का अंत नहीं होगा । चाहे वह सिद्ध ही क्यों न हो जावे । एक ही जगह उसका नाश हो सकता है । यह जब संपूर्ण आश्रय छोड़कर गुरु की शरण ले ले, जब भगवान की शरण ले ले तब भगवान की तरफ से ही निकलता है । अपनी तरफ से कोई नहीं निकाल सकता है "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षायिष्यामि मा शुचः ।।" जब सब तरफ से आस छोड़कर "गुरुमेवाभिगच्छेत्" गुरुशरण में ही चला जायेगा और सारा आधार छोड़ देगा । गुरु की कृपा ईश्वर की कृपा जब होती है तब इसमें अद्भुत परिवर्तन हो जाता है । इससे अहंकार गल जाता है तब इसका कल्याण होता है ।
कहा कि "मायाशक्ति-विलासकल्पितमहाव्यामोह" है । उसको संहार करने वाला जो कृपाशक्ति संवलित परमेश्वर है वही दक्षिणामूर्ति है, ऐसे गुरुतत्त्व को यह सीमित अहंता समर्पित है,उनको प्रणाम है । ये बात कह दिया कि "देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः ।" यह पूर्व पक्ष था । ये सब कैसे ? "अहमिति" । बड़ी बड़ी बात करने वाले हैं पर भ्रान्ता हैं । यह भ्रान्ति कैसे हो गई ? अरे भाई ! यह मायाशक्ति ऐसी ही है । बुद्धि के साथ कितना भी सूक्ष्म हो अहंकार तो रहेगा ही अब जहाँ भी अहंकार रूपी मुर्दा खड़ा है । वहां आपको तत्त्व में समर्पित नहीं होने देता । इसीलिए जब गुरु की शरण में चला जाता है, आश्रित हो जाता है तब उस पर कृपा हो जाती है, यही है भगवान की कृपा ।इसी क नाम है शक्तिपात । तब उस पर शक्तिपात हो जाता है । तब गुरु के अंदर की शक्ति उसके अंदर चली जाती है । इसलिए वह गुरु बन जाता है ।
शंकराचार्य भगवान कहते हैं कि गुरु की उपमा पारस से नहीं दी जा सकती । पारस लोहे को सोना बनाता है पर पारस नहीं बना सकता है । गुरु अपने साथ रहने वाले योग्य अधिकारी को गुरु बना देता है । गुरु अपना स्वरूप प्रदान कर देता है । गुरु तत्त्वीभूत कर देता है । जहाँ किसी प्रकार से समस्या का स्वर्श ही नहीं है । इस समय भी आपके स्वरूप में किसी का स्पर्श नहीं है, पर आपका "मैं" वहाँ लीन नहीं है । शरीर आदि को लेकर के "मैं" यहाँ पर खड़ा रहता है, इसलिये सारी की सारी समस्या की प्रतीति होती है । इस प्रतीति का नाश करने वाला गुरुतत्त्व दक्षिणामूर्ति ही है और वह अहंकार का संहार करने में कुशल है, इसलिये वह कुशल मूर्ति है । अहंकार पूर्वक कोई भी साधन उसका नाश नहीं कर सकता है । ऐसे गुरुमूर्ति को नमस्कार है ।
क्रमशः -----
ॐ
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें