प्रथाम श्लोक, प्रवचन स्वामी रामानन्द सरस्वती जी महाराज ओंकारेश्वर


निवेदन―
            मेरे मन में बहुत दिनों से था कि महाराज श्री का लोक कल्याकारी श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्र पर प्रवचन नेट पर आत्म कल्याणार्थी जिज्ञासुओं के लिए उपलब्ध हो । किन्तु नेट का ज्ञान न होने ऐसा संभव न हो सका । आवश्यकता अविष्कार की जननी कहावत चरितार्थ हुई और हमें बिना किसी के सहयोग के यह ज्ञान अथक परिश्रम से प्राप्त हुआ । वैसे पीडीएफ बनाना घंटे भर का काम था तथापि  हमें जो पुस्तक प्राप्त हुई उसका चित्र लेकर पीडीएफ बनाना संभव न हो सका कारण कि अक्षर काफी दबे हुए थे, अतः यह विचार कर कि इसी बहाने एक बार फिर से पूरा प्रवचन पढ़ सकूंगा अतः लिखना प्रारंभ कर दिया । कुछ दिनों के लंबे परिश्रम के पश्चात हम सार्वजनिक उपलब्ध करा सके आशा है कि आत्मकामी इससे लाभ ले सकेंगे । यह श्रीशंकराचार्य जी का आगम प्रकरण है । प्राथमिक वेदान्त या अद्वैत में प्रवेश हेतु प्रत्येक सामग्री यहाँ पर उपलब्ध है।

              लेखन में यद्यपि हमने पुस्तक प्रिंट के अनुसार ही वाक्यों को हर हाल में रखने का प्रयत्न किया है तथापि कहीं न कहीं वाक्यान्तर स्वाभाविक है जिसके लिए मैं 🙏क्षमा प्रार्थी हूँ, तथापि मैं वचन देता हूँ कि मूल भाव में कोई अन्तर नहीं आया है ।

           सूचना:-- यह पुस्तक श्रीमार्कण्डेय संन्यास आश्रम ओंकारेश्वर (म.प्र.) ४५०५५४ से प्रकाशित है

                                                                                                     स्वामी शिवाश्रम 
                                           
                       
          सृष्टि के कण कण में अनुस्यूत परमेश्वर तत्त्व, आत्मस्वरूप सन्तवृन्द एवं श्रेत्रवृन्द-----

          आज आदि जगद्गुरु शंकराचार्य के एक स्तोत्र का, जिसका नाम "दक्षिणामूर्ति स्तोत्रम्" है पर विचार करने का अवसर प्राप्त हुआ है । इस में भाष्यकार भगवान ने आगम परम्परा के अनुसार "एकमेवाद्वितीयं तत्त्व" कैसे है ? इसको बहुत ही सुन्दर ढंग से निरुपित किया है ।

             शास्त्रों को जब हम देखते हैं तो जगह जगह यह बात आती है कि आत्मलाभ से बढ़कर, आत्मदर्शन से बढ़करके कोई लाभ नहीं है । श्रुतियाँ यहाँ तक कह देती हैं---- "इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति नोचेदिहावेदीन् महती विनष्टिः" कहा... मेरे पुत्रों ! मनुष्य का शरीर रहते रहते यदि मैं का अर्थ निर्धारित हो गया तो मनुष्य शरीर धारण करना सार्थक हो गया । लेकिन यदि हम दूसरे कार्य में लगे रहे और मानव जीवन का जो चरम लक्ष्य है,  उसको प्राप्त नहीं किया तो मानो हमने अपना बहुत बड़ा विनाश कर लिया, विनाश कर लिया मतलब ? फिर देवता शरीर मिल गया तो भोगों में लगे रहेंगे आत्मदर्शन का लाभ हो नहीं पायेगा यदि पशु शरीर मिल गया तो स्वयं भी पुरुषार्थ करने का साधन रह नहीं पायेगा और न ही दूसरा कोई पुरुषार्थ करायेगा, यही है महन् विनाश । वस्तुतः अपने यहाँ का जो शास्त्र है वस आप पर कुछ लादता नहीं है । मानव जहाँ पहुंचना चाहता है उसी का नाम अपने यहाँ परमेश्वर है, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति ऐसा आनन्द प्राप्त करना चाहता है जो सच्चा हो, कभी नाश न हो और अज्ञानी नहीं रहना चाहता है, ज्ञानपूर्वक उस आनन्द का दर्शन चाहता है, तो जहाँ प्रत्येक प्राणी पहुंचना चाहता है उसी का नाम अपने यहाँ परमेश्वर है, इसीलिये शास्त्र कहता है कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य परमात्म प्राप्ति है ।

             दूसरी चीज हम श्रुति देखते हैं तो "तत्सृट्वा तदेवानुप्राविशत्" ये मूल में बात आती है कि सृष्टि करके परमेश्वर इसमें प्रवेश किया । इसका मतलब है कि प्रत्येक के हृदया में परमेश्वर तत्त्व की व्याप्ति है । परमेश्वर सृष्टि के कण कण में प्रविष्ट है । इस शरीर के कार्य करण संघात के अन्दर भी प्रविष्ट है, तो प्रत्येक के अन्दर परमेश्वर का प्रवेश है । इसका मतलब है कि हमको परमेश्वर दर्शन हो सकता है, यह बात ध्यान में आती है ।

             अब इसमें जो विचार आयेगा वह इसी प्रकार के प्रश्नों को लेकर आयेगा ।, यह जगत् हमको प्रतीत हो रहा है, उसमें प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व अगल अलग मालूम हो रहा है, जैसे यह घट है, यह पट है, यह मनुष्य है, यह पुरुष है, यह स्त्री है, यह बालक है, यह बालिका है, यह वृक्ष है यह पत्थर है । प्रत्येक के साथ एक अस्तित्व का भान है ।यह जो अस्तित्व का भान हो रहा है इसके विषय में एक विचार है कि प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व प्रथक प्रथक है ? ये जितनी वस्तुएं दिखाई दे रही हैं वे अपना अपना अस्तित्व रखती हैं, या अस्तित्व में कल्पित हैं ? जैसे हम पर्दे चित्र देखते हैं तो चित्र तो दिखाई दे रहा है और उनका पृथक पृथक अस्तित्व प्रतीत होने पर भी पर्दे से अतिरिक्त उनका अस्तित्व नहीं है । एक ही अस्तित्व अनन्त अस्तित्व के रूप में प्रतीत हो रहा है । जैसे के आभूषण बनाते हैं तो आभूषण का नाम भिन्न भिन्न होता है, रूप भिन्न होता है, यह कटक (कड़ा) है, यह कुण्डल है इत्यादि । नाम भिन्न होगा, उसका रूप भिन्न होगा, परन्तु एक स्वर्ण अस्तित्व में इनका अस्तित्व कल्पित है इनका अस्तित्व पृथक पृथक होता है ? यह बात ध्यान में रखनी है । इसी अस्तित्व के कारण हमको भेद प्रतीति हो रही है, क्योंकि प्रत्येक के साथ एक अस्तित्व जुड़ा रहा है । इसमें यही विचार आयेगा कि एक अस्तित्व में सभी अस्तित्व कल्पित है । एक प्रकाश में सभी का प्रकाश कल्पित, यह चीज आयेगी ।

                दूसरी बात आयेगी कि आखिर ईश्वर शब्द हमारे सामने आता है और जीव शब्द हमारे सामने आता है । ईश्वर शब्द अलग मालूम होता है, जो सृष्टि करने वाला है वह ईश्वर है । जीव शब्द का अर्थ अलग मालूम होता है, जो बद्ध है वह जीव है । तो जीव-ईश्वर का भेद प्रत्यक्ष मालूम होता है । जो शब्दों का हमारे अन्दर ज्ञान होता है वह दो प्रकार का है--- ईश्वर एक है सर्वज्ञ है, जीव अल्पज्ञ है । जीव में सर्वकर्तृत्व है तो जीव मुश्किल से एक कुटी बना ले, आश्रम बना ले, एक मकान बना ले, इतना ही बना सकता है । ईश्वर नित्यतृप्त है तो जीव अल्पतृप्त अर्थात अतृप्त रहता है । तो ये सब प्रतीति हो रही है ईश्वर शब्द के विषय में, और जीव शब्द के विषय में । यदि एक ही तत्त्व हो तो यह भेद प्रतीति कैसे हो सकता है ? मान लो कि जब भेद हो ही गया तो ईश्वर हो ही कैसे सकता है ? जीव परिच्छिन्न दिखाई देता है, यह परिछिन्न जीव ईश्वर के समान व्यापक कैसे बन सकता है ? ये कई प्रकार की शंकाएं होती हैं जिनका समाधान इसमें आयेगा ।
               दूसरा..., मान लो जो आपका सत्य रूप है उसको भूलने से जीव भाव का प्राकट्य है, पर यह भूल तो अनादि काल से चली आ रही है, कोई एक दो दिन की भूल तो है नहीं । अब भूल ही गया तो अपने स्वरूप को जानेगा कैसे ? चलो..., अनन्त काल से जगत् में व्यवहार करता हुआ अपने मूल स्वरूप को जानेगा । अब मान लो कि वह जान भी गया तो उस चीज को जान लेने मात्र से क्या लाभ ? अरे ! हमने जान लिया कि आत्मा शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव है-- इससे क्या बना ?  भाई ! आत्मा शुद्ध, बुद्ध मुक्तस्वभाव है, जीव का स्वरूप परमेश्वर ही है, जीव ब्रह्म है-- ऐसा हमने जान लिया, शास्त्र से सुन लिया, और बुद्धि से भी जान लिया, पर ऐसा जानने से लाभ क्या होगा ? ऐसा तो हम जानते हैं, भारत के सभी लोग जानते हैं । यह आत्मा चेतन रूप है, आनन्द रूप है, पर दुःख तो रोज होता है, सुबह शाम थप्पड़ रोज लगता है । जान लेने पर क्या फल होगा ? कैसा फल होगा ? ये सब कई जटिलताएं जो जगत की हैं उन जटिलताओं का समाधान इस स्तोत्र में है । कई प्रकार से समाधान मिलेगा । जैसे आकाश में सूर्य है तो सूर्य का दो स्वरूपों में विचार करिये---- व्यापक प्रकाश, यह एक हो गया व्यापक प्रकाश का पुञ्जीभूत यह दूसरा रूप हो गया । एक व्यापक प्रकाश है क्योंकि सूर्य तो ऐसा नहीं है, वह एक जगह प्रकाशित होता है, सूर्य का एक व्यापक प्रकाश, सर्वत्र प्रकाश रूप है, वह प्रकाश किसका है ? जो सर्वत्र प्रकाश है वह सूर्य का एक रूप है और सूर्य का जो आकाश में पुञ्ज दिखता है वह सूर्य का दूसरा रूप है ।

              दस हजार घड़ा आप पानी भर कर रख दीजिये । दस हजार घड़ों में दस हजार सूर्य दिखाई देते हैं, यह सूर्य का तीसरा रूप है । तीनो रूप हमारे सामने प्रत्यक्ष दिखाई दे रहे हैं । अब घड़े के अन्दर जो सूर्य दिखाई दे रहा है उसके मन में कभी आवे कि मेरा वास्तविक स्वरूप क्या है ? यहाँ से जिज्ञासा आरम्भ होती है । इसके पहले तो जिज्ञासा थी ही नहीं । यहाँ से जिज्ञासा का आरम्भ है । जहाँ वह सूर्य दिखाई दे रहा है, जल में प्रतिफलित दिखाई दे रहा है, वहां भी सामान्य प्रकाश है । सामान्य प्रकाश वहां भी है पर जो प्रतिफलित प्रकाश है उस प्रकाश के अन्दर कभी जिज्ञासा हो कि मैं कौन हूं, मैं का अर्थ क्या है, मैं का वास्तविक अर्थ क्या है ? तो उसको कहां से चलना पड़ेगा ? पहले घड़े के साथ जो मैं का संबंध जुड़ा है, उसे काटना पड़ेगा । जल के साथ जो प्रतिबिंब का संबंध जुड़ा है उसको काटना पड़ेगा । जल और घड़े का मोह छोड़े बिना आगे की प्रगति संभव नहीं है । ऐसे ही यह स्थूल शरीर रूपी जो घड़ा है, उसमें जो सूक्ष्म शरीर रूपी जल भरा है, जो कि बूद्धि प्रधान, मन प्रधान है और उसमेँ जो स्वरूप का प्रतिफलन है, यही जीव भाव है । अब जीव अपने उसी दायरे में घूम रहा है,लेकिन किसी जीव में यानी किसी प्रतिफलित सूर्य में यदि जिज्ञासा हो जाये कि मैं का अर्थ क्या है ? तो उसे कई घाटियाँ पार करनी पड़ेंगी । ये दो का संबंध, दो का मोह तो छोड़ना ही पड़ेगा, छोड़े बिना, मैं को इनसे निकाले बिना तो आगे जा ही नहीं सकता और जिस समय अपने मूलस्वरूप में पहुंचेगा, ईश्वर में पहुंचेगा, सूर्य में पहुंचेगा उसके बाद क्या अनुभूति होती है ? उसके बाद उसमें सर्वात्मभाव प्रकट होगा सभी घड़ों में मैं ही हूँ, लेकिन जब तक वहाँ नहीं पहुंचता तब तक मैं उस स्वरूप में केन्द्रित नहीं होता । तब तक सर्वात्मभाव की भावना भले ही कर ले, लेकिन सर्वात्मभाव की वास्तविक अनुभूति नहीं होती । अपनी सूर्य रूपता में यदि "मैं"  भाव केन्द्रित हो जाये तो सर्वात्मभाव अपने आप आ जायेगा । पर ईश्वर में ये भाव अपने आप होते हैं "क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत" ईश्वर क्या कहते हैं ? सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं हूँ । अब जीव कहाँ रह गया बोलो ? वस्तुतः जिसकी इतनी भारी महिमा का हम अनुभव करते हैं, उसका ही अस्तित्व नहीं रह जाता है । जिस समय परमेश्वर कह देता है कि सभी क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ मैं हूँ, जानने वाला मैं हूँ, यानी एक ही "मैं"अनन्त के रूप में प्रतीत हो रहा है । एक ही तत्त्व उपाधि भेद से भिन्न भिन्न मालूम पड़ रहा है, वस्तुतः तत्त्व अभिन्न है ।

                दूसरी एक बात और समझ के रखेंगे तो आगे का श्लोक सरल पड़ जायेगा । यह बात तो समझ में आती है कि भाई ! घड़ा रख दिया और जल रख दिया तो सूर्य प्रतीत होता है और वह सूर्य मूल सूर्य से भिन्न नहीं है, पर घड़ा और जल तो भिन्न है कि नहीं ? अब विचार करके देख लीजिये कि घड़ा मिट्टी का बना है, मिट्टी माने पृथ्वी है, पृथ्वी उत्पन्न नहीं हुई थी तो वह किस रूप में थी ? जल रूप में थी क्योंकि पृथ्वी का कारण जल है और कार्य का कारण रूप में अवस्थान होता है । अरे ! घड़ा नहीं बना था तो मिट्टी रूप ही था, क्या अन्तर पड़ता है ? यह बहुत विलक्षण जाल है । मान लीजिये कि आप कहीं चले जा रहे । एक कुम्हार के घर के सामने से निकले वहाँ मिट्टी का ढेर बना हुआ था, लगा हुआ था । आप की दृष्टि पड़ी और आप चले गये  सायंकाल जब लौटे तो मिट्टी का ढेर नहीं था आपने कुम्हार से पूछा मिट्टी का ढेर कहाँ है ? कुम्हार ने क्या दिखाया आपको ? तमाम बर्तन बने हुए थे, मैदान में पड़े हुए थे, तो मिट्टी के ढेर को क्या कहता है ? उधर देखो..., उधर देखा मिट्टी का ढेर तो दिखाई नहीं दिया, मिट्टी के ढेर सारे बर्तन दिखाई दे रहे हैं । अब कह रहा है वह मिट्टी का ढेर कहाँ है ? तो कहा वो रहा, आप चले गये । जिसको मिट्टी का ढेर कहा था उसी को बर्तन कहा । अब आप चले गये इतने में वर्षा हो गई । वर्षा से सभी बर्तन गल गये । अब रात को इकठ्ठा करके सबेरे साफ करके रख दिया । अब दूसरे दिन जब सबेरे आप निकले तो जो विभिन्न प्रकार के जो बर्तन मैदान में थे अब दिखाई नहीं दे रहे हैं तो आपसे पूछा वो बर्तन कहाँ गये ? तो वह कहता है कि यह रहे अर्थात मिट्टी का ढेर । तो जगत् की चर्चा ऐसी ही है कि इसमें कुछ भी स्थिर नहीं है । सायं को ढेर को बर्तन के रूप में कह दिया और सबेरे जब  बर्तन को ढ़ेर के रूप में कह दिया ।

             👉यहाँ पर इस बात को ध्यान में लेंगे कि सर्वात्मत्व का उदय कैसे होता है ? ज्ञान कैसे होता है ? ज्ञान का फल कैसा होता है ? जीव ईश्वर कैसे होता है ?  हो नहीं सकता है । ईश्वर जीव कैसे कहा जाता है ? इन सारी बातों का समाधान आपको मिलेगा ।👈

            इसलिये पहला श्लोक आरम्भ होता है । एक बात विशेष ध्यान देंगे कि वेदान्त की प्रक्रिया में दृष्टान्त रज्जु सर्प का हमको सुनने को मिलेगा कि जैसे रस्सी मे सर्प कल्पित है, है रस्सी पर दिखाई देता है सर्प रस्सी से कहाँ भय है ? नहीं ! और सर्प कहीं से आया नहीं, पर रस्सी में जो सर्प की भ्रान्ति हुई उससे ऐसा भय उत्पन्न हो जाता है कि व्यक्ति मर भी सकता है । जो चीज उत्पन्न नहीं हुई उससे मृत्यु भी हो सकती है, यह विलक्षण है कि नहीं ? रस्सी में सर्प उत्पन्न हुआ नहीं पर हमको ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न हुई कि हृदय की गति रुक गई । जो सर्प उत्पन्न ही नहीं हुआ वह मृत्यु का हेतु कैसे बन सकता है ? "इसलिए ध्यान देने की बात है कि जब मानस में वस्तु बनती है उसी का हमारे साथ घनिष्ठ संबंध बनता है और उसी का सारा का सारा परिणाम हो जाता है ।" तो मैं कह रहा था कि जल से पृथ्वी उत्पन्न हुई, तो घड़ा पृथ्वी रूप है, पृथ्वी जब उत्पन्न नहीं हुई थी तो जल रूप में थी, जब जल उत्पन्न नहीं हुआ था तब पृथ्वी, जल अग्नि रूप थे, जब अग्नि उत्पन्न नहीं हुआ था तब पृथ्वी, जल, अग्नि वायु रूप थे, वायु उत्पन्न नहीं हुआ था तो चारो आकाश रूप थे वही आकाश घड़ा हुआ ।अब घड़ा होते ही एक घटाकाश उसकी संज्ञा हो गई । अब घड़े में आकाश हुआ कि आकाश में घड़ा घड़ा हुआ ? आकाश में घड़ा हुआ, आकाश ही क्रम से घड़ा हुआ । पर घर की प्रतीति होते ही घटाकाश संज्ञा हो गई । अब आप घटाकाश में आप दस सेर चना रख सकते हैं बीस सेर नहीं । जिस आकाश में सारा ब्रह्माण्ड समाया हुआ था उसने जब घट का रूप लिया तो घटाकाश संज्ञा हो गई । उस घटाकाश में दस सेर अनाज रख सकते हैं । दस लीटर पानी रख सकते हैं ।
             यह आत्मकथा है इसको समझियेगा, ये अलग कथा नहीं है, आपकी कथा है, प्रत्येक की कथा है, प्रत्येक के स्वरूप की कथा है । 👉विद्युत में अनन्त प्रकाश शक्ति है, पर जीरो का बल्ब लगा दिया तो विद्युत झख मार जाती है, क्या कर सकती है ?👈 आज हमारी यही दसा है तो इसमें हेतु इतना है और कोई हेतु नहीं है । मैं कह रहा था कि वेदान्त में रज्जु सर्प का दृष्टान्त बहुत आता है, आगम में एक दूसया है, आगम में प्रतिबिंब दृष्टान्त है । आधार को लेकर के "दर्पण-प्रतिबिम्ब न्याय" होता है । उसी दृष्टान्त को लेकर यहाँ पर पहला श्लोक आया है । मूल को हम पहले ले लें उसके विषय में फिर क्रम से विचार करेंगे ।

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं,
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।१।।


              विश्व को हम जानते हैं । यह अनेक आकारों में प्रतीत होने वाला है । इस विश्व के दो विशेषण यहाँ पर दिये गये हैं, एक है "दर्पणदृश्यमाननगरी" दूसरा है "निजान्तर्गतम्" यह विश्व कैसा है ? कहा-- कोई बहुत बड़ा दर्पड़ हो और उसमें पूरा नगर दिखाई दे रहा हो, तो जो नगर दिखाई दे रहा है, कौन नगर ? दर्पण में दिखाई देने वाला नगर । कहाँ दिखाई दे रहा है ? दर्पण में दिखाई दे रहा है । दर्पण से भिन्न मालूम हो रहा है, दर्पण एक है पर नगर का एक एक अवयव भिन्न भिन्न करके मालूम पड़ रहा है । दर्पण से अतिरिक्त खोजने जाओ तो मिलता नहीं, दिखता पूरा है ।

               आप किसी नदी के किनारे बैठ जाइए, बहुत दूर तक का जंगल उसमें दिखाई देगा और दूरी आपके बैठने की है ऐसी दूरी भी उसमें दिखाई दिखती है । वृक्ष अलग अलग दिखते हैं और उसी जाति के दिखाई दे रहे हैं, किन्तु जल से अतिरिक्त उधका कोई अस्तित्व नहीं है । अब यदि कहा जाए तो जल ही है, है जल पर दिखाई जंगल दे रहा है । ऐसे सारा का सारा विश्व जो हमको दिखाई दे रहा है वह जल में दिखाई देने वाले वृक्ष अथवा दर्पण में दिखाई देने वाले नगर के समान है । यदि नगर दर्पण में दिखाई दे तो यह बात समझ में आ जाती है, पर विश्व किस दर्पण में दिखाई दे रहा है ? यह बात समझ में नहीं आती अतः कहा-- "निजान्तर्गतम्" वह तुम्हारे स्वरूप में दिखाई दे रहा है । इस बात को कैसे मान लें ? स्वरूप में यदि दिखाई देता  है तो दर्पण में दिखाई देने वाला जगत जैसे दर्पण में दिखाई देता है, वैसे ही यदि स्वरूप में दिखाई देने वाला जगत है तो स्वरूप में दिखाई देता बाहर नहीं दिखाई देता । कहा--- हाँ ! बात ऐसी ही है कि देखिए स्वप्न सभी देखते हैं, स्वप्न का अनुभव सभी को है, स्वप्न जगत अन्दर रहता है कि बाहर रहता है ? आप सभी को कहना पड़ेगा कि अन्दर ही रहता है बाहर नहीं रहत है । बाहर रहे तो दूसरे को भी दिखाई पड़े । 👉स्वप्न जिस समय हम देखते हैं, वह स्वप्न दृश्य निद्रादोष से बाहर मालूम होता है, पर रहता अन्दर है । इसी प्रकार सारा का सारा जगत आपके स्वरूप में है, अन्दर है, पर माया दोष से बाहर दिखाई देता है ।👈

            इसी को यहाँ पर कहा--- "दर्पणदृश्यमान-नगरीतुल्यं निजान्तर्गतम् विश्वम् यथा निद्रया बहिः पश्यति तथा आत्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं पश्यति" इस समय सबकी दशा यही है । जैसे निद्रादोष से अन्दर का जगत बाहर प्रतीत होता है, इसी प्रकार मायादोष से "आत्मनि" अर्थात अपने ही स्वरूप में दिखाई देने वाला बाहर दिखाई दे रहा है । "आत्मनि पश्यति"---देखता है स्वरूप में परन्तु कैसा देखता है ? "बहिरिवोद्भूतं इव पश्यति" बाहर उत्पन्न हुए के समान देखता है ।

               इस दृष्टान्त में तीन बातें ध्यान देने की हैं---एक तो जो दिखाई दे रहा है वह दर्पण से भिन्न नहीं है, तो दिखाई देने वाला जो विश्व है अपने से भिन्न नहीं है । दूसरी बात जो ऐसा होने पर भी अपने से भिन्न के समान प्रतीत होता है । भिन्न प्रतीत होने पर भी जैसे कितना भी जंगल प्रतीत हो दर्पण में, कितना भी नगर प्रतीत हो दर्पण में, उसके साथ दर्पण का कोई संबंध बनता ही नहीं है । ऐसे ही आपने में अनन्तकाल से अनन्त विश्व प्रतीत हो रहा है, माया के कारण बाहर मालूम हो रहा है, लेकिन आपके स्वरूप के साथ उसका आज तक स्पर्श हुआ नहीं है । गीता में भगवान कहते हैं-- "मत्स्थानि सर्वभूतानि" 'मत्' शब्द आत्मवाचक है, "मत्स्थानि सर्वभूतानि" सारे प्राणी मुझमें हैं । आगे कहते हैं--- "न च मत्स्थानि भूतानि" मुझमें कोई नहीं है, पहले श्लोक में कहते हैं सारा विश्व मुझमें है, और दूसरे श्लोक मे कह देते हैं मुझमें कोई विश्व नहीं है । जैसा सारा विश्व दर्पण में दिखाई दे रहा है, पर दर्पण से पूछो तो दर्पत से पूछो तो दर्पण कहेगा अभी तक किसी विश्व का कोई संबंध तो हम जानते नहीं हैं । बाह्य दृष्टि से देखो तो सारा दृश्य दिखाई दे रहा है और दर्पण के भीतर बैठकर देखो तो कोई विश्व उत्पन्न ही नहीं हुआ । ये दोनो एक साथ है ।सारा चित्र पर्दे पर दिखाई दे रहा है और पर्दे में बैठकर देखो तो कोई चित्र उत्पन्न ही नहीं हुआ है । धू-धू करके पर्दे पर अग्नि जलती है पर पर्दा गर्म ही नहीं हुआ । तो कितनी विलक्षण बात है !!! कितना विलक्षण विज्ञान है !!! यही सत्य है, यही सच्चाई है पर माया कभी सत्य को देखने की सामर्थ्य नहीं रखती । "सच्चाई को स्वीकार करें, सबसे बड़ी समस्या आज यही है ।" माया की सबसे बड़ी समस्या यही है कि सच्चाई कभी स्वीकार करने नहीं देगी ।

                अरे ! शरीर चिता पर पड़ा है, जल जाता है । तुम रोज कहते हो कि पिताजी बैकुंठ गयो । पर सच्चाई स्वीकार कहाँ करते हो ? यह प्रत्यक्ष शरीर भी दिखाई देता है, यह पिता नहीं है, तुम भी कहते हो कि पिताजी बैकुंठ गये । इसका मतलब पिताजी शरीर नहीं हुए, शरीर यहीं जलाया गया । जाने वाला दिखा नहीं । वह जाने वाला साकार था कि निराकार था ? यह निर्णय भी नहीं है रहा है । सकार जो था वह जला दिया गया जाने वाला दिखा नहीं अतः निराकार था साकार होता तो दिखता । अब बताओ तुम निराकार हो कि सकार हो ? प्रत्यक्ष देखकर भी बोध नहीं होता कि "मैं शरीर नहीं हूँ ।" शरीर के नाश से मेरा नाश नहीं हो सकता । जब पिताजी शरीर नहीं हुए तो मैं शरीर कहाँ से हो जाऊँगा ? 👉जिसके अन्दर यह विज्ञान आ गया कि शरीर के नाश से मेरा नाश नहीं हो सकता है, तो उसका ऐटम बम भी क्या बिगाड़ लेगा ?

                परन्तु यह प्रत्यक्ष देखने पर भी माया इसको स्वीकार नहीं देती करने देती । देखो👉 सच्चाई है कि प्राण कोई दूसरा चला रहा है, सच्चाई है कि नेत्र किसी दूसरे ने बनाकर दिया है, पर यह सच्चाई होने पर भी जीव कहाँ इस सत्य को स्वीकार करता है ? यदि स्वीकार कर ले तो अहंकार कैसे करेगा ? इसका कहना तो एक मच्छर भी नहीं मानता फिर भी देखो अहंकार, यह अहंकार कैसा ? अच्छा अहंकारी बनो, यह अहंकारी भी नहीं रह सकता, विषय इसको खींच रहा है । यह पशु के समान खिंचा हुआ दौड़ रहा है, चेतन हो करके जड़ के पीछे पीछे दौड़ रहा है, इसका अहंकार कहाँ टिकता ? "जहाँ अहंकार है वहीं दीनता है ।" इधर तो अहंकार करता है, उधर विषय के पीछे गले में रस्सी बांधकर खींचा चला जाता है,उस समय अहंकार क्यों नहीं करता ? और दीन क्यों बन जाता है ? अरे ! तुम्हारा अहंकार टिकता भी कहाँ है ? मित्था अहंकार टिक भी कैसे सकता है । यह माया है जो जीव पूर्वापर विचार नहीं करता । माया का स्वरूप यही है, वह विचार नहीं करने देती । "विचार उत्पन्न हो जाये तो समस्या ही समाप्त हो जाये ।"

             कहा-- "मायया" यह माया के द्वारा जो भीतर है वही बाहर दिखता है । "निद्रया" जैसे निद्रा में अपने अन्दर का विश्व बाहर मालूम होता है इसी प्रकार माया से "निजान्तर्गतम् विश्वम्" निजान्तर्गत जो विश्व है 'बहिरिवोद्भूतं पश्यति ।' बाहर होता नहीं है बाहरे के समान दिखता है । यही देखता है । कौन देखता है ? वही । देखो इस भाव में--- "तत्सृट्वा तदेवानुप्राविशत्" वही प्रवेश करके ऐसा देखता है । घड़े के अन्दर वाला सूर्य अपने को कैसा देखता है ? घड़े वाला देखता है । यदि पानी लाल है तो लाल देखता है, पानी काला है तो काला देखता है, छोटा तो अपने को छोटा देखता है, पानी हिलता है तो अपने को हिलता देखता है, वह हिलता नहीं पर हिलता सा है ।

              बहुत विचारणीय बात है । देखो--- इस समय किसी के भी जीवन में कोई समस्या नहीं है । आप कहेंगे समस्या का अनुभव हो रहा है, समस्या कैसे नहीं है ? हम कहेंगे देखो-- आपको खिला-पिला कर सुला दिया गया है, पेट भरा है आपका कि नहीं ? कमरे के अन्दर आप सोये हैं कि नहीं ? अब आप सपने में जंगल में भटक गये, चार दिन से भूखे मर रहे हैं, तो जिस समय चार दिन से भूखा मरता हुआ अनुभव कर रहे हैं अपने को, उस समय भी पेट भरा हुआ है कोई समस्या नहीं है । देखो-- अपने अनुभव को बड़ा भारी प्रमाण जीव मानता है । पर मैं कहता हूँ कि आपका अनुभव कहाँ है ? जिस समय जो आप अनुभव कर रहे हैं उस समय भी समस्या है क्या ? उस समय भी समस्या नहीं है । इसलिए इस अनुभूति को प्रमाण नहीं माना जा सकता । उसी स्वप्न में मानलीजिए पुलिस ने आपको पकड़ लिया, उसने सोचा जंगल में कोई डाकू घूम रहा है, आपको हथकड़ी लगा दी । आपको आपके मोहल्ले से ले जा रही है । आप बड़े दुखी हो रहे हैं, लोग देख रहे हैं कि--- अहो बड़ा साधु बनता था, कोई न कोई खोट है तभी हथकड़ी पड़ी है इसको ।कितनी झेंप अब मन में आयेगी ? कोई महात्मा सामने से मिल जाये और कहे क्या दुःखी होता है यह सब तो सपना है, तो उस महात्मा पर क्रोध ही आयेगा कि ऐसे समय में मेरी हंसी उड़ा रहा है । पर जागने के बाद महात्मा की बात सच्ची होगी कि तुम्हारा अनुभव सच्चा होगा ? यह विचारणीय बात है । जागने के बाद तो महात्मा की बात सच्ची होगी कि यह सपना था, क्यों इस प्रकार दुःखी हो रहा था...! लेकिन जब तक जागा नहीं है जब तक उसको महात्मा की बात पटती नहीं । ऐसे ही जब हम जाग जायेंगे तब शास्त्र की बात सच्ची होगी हमारा अनुभव झूठा हो जायेगा । स्वरूप से सोकर के हम इस जगत का अनुभव कर रहे हैं । जिस समय हम यहाँ से जग जायेंगे तो शास्त्र की बात सच्ची निकलेगी-- "एकमेवाद्वितीयम्" हमारा भेद का जितना अनुभव है, सुख-दुःख का जितना अनुभव है, वह सारा का सारा झूठा हो जायेगा, लेकिन जब तक जीव जागता नहीं है तब तक अपने अनुभव को प्रमाण मानता है ।

            अब विचार इतना करना है कि सत्ता और ज्ञान क्या है ? सत्ता और ज्ञान जो हो रहा है इसमें अस्ति "है" इसका भी ज्ञान हो रहा है । सत्ता और स्फुरण ये दोनो प्रत्येक पदार्थ के साथ अनुस्यूत हैं । "है" करके, सत्ता है और उसका ज्ञान हो रहा है ।, ज्ञान के बिना तो "है" भी नहीं सकते । ये दोनो चीज सत्ता और ज्ञान में अनुस्यूत है । स्वप्न के जितने पदार्थ दिख रहे हैं उनमें एक है या अनेक सत्ता है ? यही मानना होगा कि एक ही सत्ता में सभी अनुगत है और एक ही प्रकाश से सभी प्रकाशित है । ठीक इसी प्रकार से यै जो सारे पदार्थ हैं एक ही सत्ता में कल्पित हैं । उसी सत्ता से सत्तावन हो रहे हैं । इसीलिये अस्ति रूपी जो सत्ता है वह सबके साथ अनुस्यूत हो रही है । "घट" है, "पट" है, घट खतम हो गया, पट का उदय हो रहा है । यह "है" उनमें भी चला गया । पट को जला दो तो राख है, वहाँ भी "है" गया । यह "है" हर वस्तु में होता चला गया । उसी "है" में, उसी एक अस्तित्व में ये सारी की सारी चीजें कल्पित हैं । एक स्वर्ण में सारे के सारे आभूषण कल्पित हैं । एक पर्दे में सारे के सारे चित्र कल्पित हैं । एक ही सत्ता में सब कल्पित है तो यह निर्धारित करना पड़ेगा कि जो सारा विश्व दिखाई दे रहा है वह एक सत्ता में कल्पित है और वह सत्ता ज्ञान सत्ता है, सत्ता ज्ञान है । सत्ता एवं ज्ञान एक ही है इसीलिये ज्ञान में सभी प्रकाशित हो रहे हैं, उसी की सत्ता में सभी प्रकाशित हो रहे हैं । तो जो यह ज्ञान रूपा एक सत्ता है उसी में सारा का सारा विश्व प्रकाशित हो रहा है ।

                 एक शंका किसी के मन में आ सकती है कि जो यहाँ पर दृष्टान्त जो कहा है---"दर्पणदृश्यमान-नगरीतुल्यम् । "लोक में हम कहीं भी प्रतिबंध देखते हैं तो हमारे मन में यही आस्था बनी रहती है कि कोई न कोई बिंब होना चाहिए, बिना बिंब के प्रतिबिंब नहीं होता है ।" यदि सारे जगत को आप प्रतिबिंब आप मान रहे हैं तो इसका बिंब भी आपको बताना पड़ेगा, "सारे जगत को आप प्रतिबिंब मान लें तो कहीं न कहीं (असली जगत) बिंब तो बताना पड़ेगा ।" यह एक प्रश्न उठता है । इस प्रश्न का उत्तर यह है कि प्रतिबिंब का लक्षण घट रहा है इसलिए हमने प्रतिबिंब कहा है । ऐसा कहा तो है, पर बिंब जो है उसे बताना पड़ेगा । पर बिंब तो हमको कोई दिखाई नहीं पड़ता, तो हम कहां से बतावें ?  फिर बिना बिंब के प्रतिबिंब कैसे हो गया ? अरे भाई ! तुम प्रतिबिंब का हेतु जानना चाहते हो ? अब मैं तुम्हें बताता हूँ कि बिना बिंब के भी प्रतिबिंब होता है । कोई शरीर है वह छूट गया उसको आपने अग्नि में भस्म कर दिया । राख भी ले जाकर प्रयाग में छोड़ आये । पर जब आप बैठते हैं तो मन में दिखाई देता है, उसकी स्मृति होती है । बिंब कहाँ है ? बिंब कहाँ गया ? बिंब की तो राख भी आप प्रयाग में छोड़ आये । आपके मन में कैसे दिखाई दे रहा है । अतः यह तो नहीं कह सकते कि बिंब के लिए प्रतिबिंब की आवश्यकता है ।

                 एक उपादान कारण होता है दूसरा निमित्त कारण । जैसे घड़ा बनाने के लिए मिट्टी उपादान कारण है, बिना मिट्टी के घड़ा नहीं बन सकता है । पहले चाक आदि लेकर घड़ा बनाते थे आज फैक्ट्री बना रही है । पर बिना उपादान के नहीं बनेगा । निमत्त तो दूसरा भी हो सकता है, उपादान की अनिवार्यता है, निमत्त तै कोई न कोई होता ही है । तुम बताओ बिंब प्रतिबिंब का उपादान कारण है या निमत्त कारण ? बिंब को उपादान तो कह नहीं सकते क्योंकि उपादान कार्य रूप में परिणत होता है और बिंब तो अगल ही रहता है कार्य रूप में परिणत नहीं होता । तो क्या बिंब निमित्त कारण हुआ ? निमित्त तो दूसरा भी हो सकता है । पर भाई ! माया शक्ति तो बिना बिंब के भी प्रतिबिंब प्रकट कर देती है ।

                 तीसरी बात जो जड़ दर्पण है, उसको अपने अन्दर प्रतिबिंब के लिए बिंब की जरूरत पड़ती है । पर जो चित्त दर्पण है ना.., चैतन्य दर्पण है वह बिना बिंब के प्रतिबिंब प्रकट कर देता है, यह उसकी विशेषता है । जो जड़ दर्पण है वह अपने को भी नहीं जानता है और प्रतिबिंब को भी नहीं जानता है । पर जो चित्त दर्पण है वह अपने को भी जानता है, अपने अन्दर भासित होने वाले प्रतिबिंब को भी जानता है । यही चैतन्य एवं जड़ में फर्क है । भूत हो चाहे न हो, पर एक चैतन्य कला में है । देखो, भूत आपके अन्दर दिखाई देता है ? बाहर हो चाहे न हो पर अन्दर दिखाई देगा । बिना बिंब के प्रतिबिंब दिखाई देगा चैतन्य दर्पण की यही महिमा है । जड़ दर्पण से यही विलक्षणता है कि वह अपने को भी जानता है और अपने अन्दर के प्रतिबिंब को भी जानता है । दोनो को जानता है । बिना बिंब के प्रतिबिंब चैतन्य में होता है । यहाँ पर यह बताया गया है कि सत्ता और प्रकाश एक ही है । एक ही सत्ता और एक ही प्रकाश रूप है, उसी में सारा जगत प्रतिफलित हो रहा है, माया के कारण बाहर मालूम हो रहा है । अब आप यदि सत्ता में पहुंच जायें, आपका "मैं" यदि सत्ता में पहुंच जाये तो कहीं समस्या नहीं है । आगम ऐसा मानता है कि जो चैतन्य है, परमात्मा है, उसमें एक स्वातंत्र्य है । यानी अनन्त रूपों में प्रतीत होते हुए भी अपने स्वरूप में ज्यों का त्यों रहना यह उसका स्वातंत्र्य है और उस चैतन्य दर्पण में आपकी अहंता टिक जाये तो कहीं खतरा नहीं होगा ।

                 एक बार एक विश्व प्रसिद्ध चित्रकार ने श्रीकृष्ण की महिमा सुनी तो वह चित्र लेने द्वारका पहुंच गया और सभा में प्रार्थना की कि भगवन् ! मैं आपका चित्र बनाऊंगा । भगवान ने सोचा बड़ा आश्चर्य है, बड़े बड़े योगी हुए हैं, समाधि लगाने वाले योगी हुए । हजारों वर्षों तक समाधि लगायी, पर मेरा चित्र आज तक कोई बना नहीं पाया । मेरा चित्र खींच नहीं पाया--- अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयोः" मेरा चित्र मन वाणी से परे है, मेरा चित्र आज तक कोई नहीं बना पाया । इसने तो बड़ा भारी दुस्साहस किया है, कहता है मैं आपका चित्र खींचूंगा । उस समय कैमरा था नहीं हाथ से चित्र बनाया जाता था । भगवान मुस्कुराये और कहा अच्छा भाई ! चित्र बना लो । उसने खूब ध्यान से देखा रेखाएं खींचा, रेखा खींचकर चित्र मन में बैठा लिया और अपने कमरे में चला गया । सात दिन बड़ा भारी परिश्रम किया और रंग भरकर के दरबार में ले आया, तो भगवान ने कहा चित्र बना लिया ? उसने कहा हाँ ! बना लिया । दिखाओ जरा सबको । तो चित्र खोला तो देव ने अपना रूप बदल लिया । अब वह चित्र की तरफ देखता है, देव की तरफ देखता है । उसने सोचा कहाँ गड़बड़ी हो गई ? उसे तो कुछ समझ में ही नहीं आया । भारी कंपन हो गया उसके हृदय में । सोचा मैंने जीवन में कभी धोखा नहीं खाया । बड़े बड़े राजाओं के चित्र मैने बनाये । इस दरबार में आकरके तो मूर्ख बन गया । फिर भी हिम्मत संभाला । कहा--- भगवन् ! गलती हो गई एक बार हमको अवसर और दीजिये  । भगवान ने कहा कोई बात नहीं । फिर देखा फिर रेखा खींची फिर जाकर सात दिन खूब परिश्रम करके बनाया और बनाकर दरबार में ले आया, तो देव ने अपना रूप बदल लिया । फिर देखा तो उसको बड़ा भारी झटका लगा । सोचा कि एक बार तो और प्रयास करें । पर तीसरी बार भी जब फेल हो गया तो वह पागल हो गया । पागल के समान हो गया ।

                 घूमते घूमते जंगल में एक महात्मा के पास पहुंचा । महात्मा ने कहा इतना दुःखी क्यों है ? उसने कहा महाराज ! विश्व में मैं कभी हार नहीं खाया, पर आपके राजा के पास आकर बहुत सारा चित्र बनाया, हार गया । महात्मा ने कहा--- बेटा तू राजा का चित्र बनाना जानता है पर देवता का चित्र बनाना नहीं जानता । तब उसको थोड़ी शान्ति मिली, कहा---देवता का चित्र दूसरी तरह बनता है ? महात्मा बोले हाँ ! देवता का चित्र तो अलग ही प्रकार से बनता, ऐसे नहीं बनता । हाँ महाराज ! हमको सिखा दीजिये, देवता का चित्र कैसे बनता है ? मैं तो नहीं जानता कि आपके यहाँ देवता हैं । महात्मा ने कहा--- हाँ वे देवता हैं, वे राजा नहीं हैं । वे देवता हैं उनकी फोटो ऐसे नहीं बनती, उसको महात्मा ने बैठाया । धीरे धीरे एक बहुत शुद्ध दर्पण बनाया । उसने सोचा इस दर्पण के ऊपर कोई चित्र महात्मा बनवायेंगे । बहुत शुद्ध दर्पण तैयार हो गया । महात्मा ने कहा देखो एक बहुत शुद्ध कपड़े से इसको ढक लो चित्र बन गया है । उसने कहा महाराज इसमें तो कुछ है ही नहीं । महात्मा ने कहा देवता का चित्र ऐसे ही बनता है तू नहीं जानता । चले जाओ दरबार में और डंके की चोट पर कह देना कि हे देव हमने आपका चित्र बना लिया । घबड़ाना नहीं, बोल देना । देवता को बस करने का यही उपाय है । तुम्हारी जीत होगी हार नहीं । पहले तो उसको विश्वास नहीं हुआ, फिर ले गया कहा बना लिया चित्र, हाँ ! बना लिया । देव ने कहा दिखाओ । चित्रकार ने कहा--- अब आप रूप बदलते रहो, चाहे राम बनो चाहे कृष्णा बनो, चाहे देवी गणपति जो चाहो बनो । बन गया कि नहीं ? जितना रूप बदल सकते हो बदल लो कोई फर्क नहीं पड़ता ।

                    बात यह है, जो हमारा मन रूपी दर्पण है, वह आत्म दर्पण ही है । "बहिर्मुख होने पर मन और अन्तर्मुख होने पर आत्मा कहते हैं ।" कोई अन्तर नहीं इतना ही अन्तर है । बहिर्मुख हुआ तो मन की संज्ञा हुई-- "चित्तं चिदिति जानीयात् तकारं रहितं यदा, तकारो विषयाध्यासः ।" चित्त में दो त है और चित् में एक त है, चित्त का दूसरा तकार जो है यह विषयों का संग है, इसको निकाल दो तो बस चित्त खतम है । यह जो शुद्ध दर्पण है है उस दर्पण में आपकी प्रतिष्ठा हो जाये । तो कोई चित्र बनाने की जरूरत नहीं । सारे चित्रों का यह "चिद्दर्पण" समान आधार है--- "विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं ।" यह सारा का सारा विश्व दर्पण में दिखाई देने वाले नगर के समान है । यहाँ दर्पण आप ही हो, बाकी कुछ नहीं । सुरेश्वराचार्य भगवान कहते हैं---- देखो यह बाहर भीतर का भ्रम है । यह बड़ा भारी भ्रम तुमको जन्म से लग गया है । कैसे ? देखो, तुमने जो भोजन की गठरी सिर पर रख ली है, बाहर मालूम है रही कि नहीं ? फिर तुमको भूख लगती है और तुमने गठरी को खोला और खा लिया ।

भुक्तं यथान्नं कुक्षिस्थं स्वात्मत्वेनैव मन्यते ।
पूर्णाहन्ताकवलितं विश्वं योगीश्वरस्तथा ।।

            अब बताओ जो बाहर था वह अन्दर हो गया कि नहीं ? आत्मा हो गया कि नहीं ? उतने देर तक बाहर था और अब आत्मा बन गया तुम्हारी अहंता इस शरीर से संबंधित है तो यह बाहर हो रहा है । अब आपकी अहंता आकाश के साथ संबंधित हो जाये तो सारा विश्व अन्दर हो जायेगा । बस इतना ही है और कुछ नहीं । अंदर बाहर की कल्पना और कोई चीज नहीं है ।

              कहो कि इस (अहंता) को कैसे छोड़ें ? अहंता तो आप रोज छोड़ते हैं । स्वप्न में एक कल्पिल शरीर के साथ आपकी अहंता जुड़ जाती है और वहाँ सारा विश्व आपके अंदर प्रकट होकर के बाहर दिखाई देने लगता है । उस अहंता को लेकर के आप सारा का सारा व्यवहार करते हैं । तब अहंता इस शरीर के साथ कहाँ है ? पिछले शरीर में पिछले शरीर के साथ अहंता थी । इस जन्म में इस शरीर के साथ अहंता है, शरीर छूट जाये तो अगले शरीर के साथ अहंता हो जायेगी । और स्वप्न में रोज एक कल्पिल शरीर के साथ तुम्हारी अहंता जुड़ जाती है । जहाँ जिसके साथ तुम्हारी अहंता जुड़ जाती है वही तुम्हारा वैभव हो गया ।

               तुमने संकल्प से स्वप्न का जगत बनाया । तुम्हारा शासन है उस पर तुम्हारा वैभव है स्वप्न । पर यह वैभव भी एक सेकंड में लुप्त हो जाता है । क्यों लुप्त हो जाता है ? बनाये हुए जगत के अंश से तुमने अपना अहं जोड़ दिया और बाकी बाहर कर दिया । और क्या है बाहर-भीतर बोलो ? बाहर भीतर नाम की कोई चीज नहीं है । आपकी अहंता जिससे संबंधित है वहाँ से बाहर मालूम होता है ।प्रत्येक खून की बूंद में जो कीड़ा है, उसकी अहंता उसी से संबंधित है । उसके लिए आपका शरीर ब्रह्माण्ड हो गया कि नहीं ? यही खेल है और कोई खेल नहीं है । यह सारा स्वप्न का वैभव है पर आपकी एक भूल यही है कि एक शरीर के साथ आपकी अहंता संबंधित हुई है, तो सब बाहर हो जाता है । "विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं पश्यन्" कैसे ? "निद्रया बहिरिवोद्भूतम् ।"जो यहाँ पर देख रहा है वही जब जग जायेगा तो सारा ब्रह्माण्ड उसके अंदर हो जायेगा । क्यों ? अहंता इसको छोड़ देगी, अहंता सत्ता में लीन हो जायेगी, सारा ब्रह्माण्ड बाहर रह जायेगा ।।

                   गोस्वामी तुलसीदास जी एक बहुत विलक्षण बात कहते हैं---- "सकल दृश्य निज उदर मेलि, निद्रा तजि सोये जोगी । सोई हरि पद अनुभवे परम सुख अतिशय द्वैत वियोगी ।। देशकाल तहं नाहीं, तुलसिदास यह दशाहीन संशय निर्मूल न जाहीं ।" देखो यह गोस्वामी जी का पद है । वे कहते हैं "सकल दृश्य निज उदर मेलि ।" हम सारे विश्व को खा सकते हैं । आप कहते हैं कि हम सारे विश्व को कैसे खा सकते हैं ? एक पाव आटा से ज्यादा खा नहीं सकते तो सारे विश्व को कैसे खा लें ? सारे विश्व को आप खा लेंगे । जब आपकी अहंता एक जगह से दूसरी जगह रोज बदल रही है तो कभी आकाश के साथ अहंता जोड़कर देखिये । अपनी अहंता को आकाश के साथ छोड़कर देखिये तो सारा विकश्व आपके उदर में हो जायेगा कि नहीं ? आपने खा लिया विश्व को कि नहीं ? विश्व को खाने में कोई बात नहीं । यह अहंता का खेल है ।

                   पूर्णाहंता कवलितं विश्वं योगीश्वरस्तदा । सुरेश्वराचार्य भगवान कहते हैं कि जो संकुचित अहंता को छोड़ दे तो पूर्ण अहंता का उदय हो जाता है । परमेश्वर में पूर्ण अहंता है हमारे में संकुचित अहंता है । वही विद्युत है, उसी विद्युत में जीरो पावर का बल्ब लगा है, उसी में लाख पावर का । विद्युत की तरफ से कोई गड़बड़ी नहीं । विद्युत की तरफ से कोई पक्षपात नहीं, दोनो के लिए समान है पर प्रकाश में बड़ा भारी अन्तर दिखाई दे रहा है, यह उपाधि की महिमा है । ऐसी ही हमारे आपके स्वरूप में कोई भेद नहीं, चींटी से लेकर ब्रह्मा तक बल्ब का भेद है स्वरूप का नहीं । ब्रह्मा से लेकर चींटी पर्यंत जो भेद मालूम हो रहा है ज्ञान में भेद मालूम हो रहा है, शक्ति में भेद मालूम है रहा है, यह भेद वास्तविक भेद नहीं है, स्वरूप का भेद नहीं है, केवल बल्ब का भेद है । एक ही विद्युत इतने बल्बों में अनन्त शक्ति लेकर प्रकट हुई है ।

                 गोस्वामी जी कहते हैं---- सकल दृश्य निज उदर मेलि निद्रा तजि---अज्ञान निद्रा छोड़ देता है, सोये योगी-- अपने स्वरूप में सो जाता है । 'स्वरूपे श्येते' सोई हरिपद परमसुख, भगवान का जो सुख है--- तद्विष्णोः परमं पदं यत्र पश्यन्ति शूरयः । उस पद का वही अनुभव करता है । वहां किसी प्रकार का भेद नहीं है "अतिशय द्वैत वियोगी" । द्वैत नाम की कोई चीज वहां पर है नहीं । देशकाल की भी कल्पना नहीं है । गोस्वामी जी कहते हैं यह दशाहीन पद है । इस दशा में कोई नहीं पहुंचा तो संशय निर्मूल नहीं होगा, विशुद्ध ज्ञान के बिना संशय दूर नहीं हो सकता,कोई न कोई संशय तो रहेगा ही ।

                  हिमालय में गांव-गांव में देवता होते हैं, तो वे देवता कभी कभी पुजारी पर आते हैं । आप आश्चर्य करेंगे कि हिमाचल प्रदेश में ईसाई मिसनरी काम नहीं कर पाई, उसमें देवता की ही कृपा है । वे लोग देवता से पूछते हैं कि उस पर विश्वास करना कि नहीं ? देवता ने बोल दिया नहीं करना, फिर कोई काम नहीं करते । कोई कैसा भी व्यक्ति चला जाये तो देवता से पूछते हैं, देवता ने कह दिया तो आप भगवान हैं , देवता ने अनुमोदन नहीं किया तो आपको पूछेंगे नहीं । अब कहो कि घोर अन्धविश्वास है, तो उसी अन्धविश्वास ने बचा लिया ।अब तो लोग पढ़े लिखे हो गये हैं तो कुछ शुरू हो गया है पर पहले लोग देवता से पूछते थे ।

                उत्तरकाशी में एक महात्मा थे । वहां एक गांव संगरालिया है । वहाँ एकक देवता है कंडार । कंडार देवता आया । महात्मा जी भिक्षा के लिए गये हुए थे वहां खड़े हो गये । जब लोग पूछ लिये तब महात्मा ने पूछा---तुम सच्चे देवता हो कि झूठे देवता हो ? कहा सच्चा देवता हूँ । कहा सच्चे देवता हो तो बताओ मुझे ज्ञान है कि नहीं ? कहा तुमको ज्ञान नहीं है । महात्मा ने कहा तुम देवता नहीं है, मुझे ज्ञान है । देवता ने कहा जब ज्ञान होता तो संशय क्यों होता ? यदि तुम्हें ज्ञान है तो संशय कैसे हो सकता है ? यह तुमने कैसे पूछा ज्ञान है कि नहीं ? तुमको संशय है इसलिए ज्ञान नहीं है ।

               गोस्वामी जी कहते हैं "संशय निर्मूल न जाहीं, यह दशाहीन" इस प्रकार की दशा जिसको प्राप्त नहीं हुई है उसको संशय नहीं जाता । यहाँ तक तो उसी परमात्मा का जीवभाव धारण करके और संसार की अनुभूति की बात कह दी । यह जीव भाव में सारे जगत को अपने से भिन्न कर देता है । लेकिन वही जो पश्यन् है अब यः के साथ जायेगा । "यः प्रबोधसमये अद्वयं आत्मानं साक्षात्कुरुते" जब तक सोया है तब तक ऐसा ही देखता है ।और जब तक अपने को इस प्रकार का अनुभव होता है तब तक हम सो करके ही देख रहे हैं और इसमें सारे व्यवहार के अन्दर की जितनी समस्या है, वह न होते हुए भी हमारे अन्दर परिलक्षित है । अब वही जो पश्यन् का कर्त बना-- 'मायया पश्यन्' माया से देखता है और जागने पर ऐसा नहीं देखता है । निद्रा से अन्दर के जगत को बाहर देखता है ।परन्तु जब जग जाता है तब ऐसा नहीं देखता है । “प्रबोधसमये अद्वयं आत्मानमेव साक्षात्कुरुते" । प्रबोध हो जाने पर-जग जाने पर वह देखता है “एकमेवाद्वितीयं" ।मैने पहले ही कहा था किसी भी घड़े का जो सूर्य है वह अपने मूल स्वरूप को पहुंच जायेगा तो अपने को सर्वत्र देखेगा । देखने में भी थोड़ी बात समझ के रखनी चाहिए । आप कहोगे कि ज्ञानी ही महापुरुष है उसको जगत दिखाई नहीं देता । नेत्र का दिखना एक चीज है और अन्दर की समझ एक चीज है । भाष्यकार भगवान कहते हैं कि इस समय भी आपका स्वरूप कैसा है-- स्वीकुर्वन् व्याघ्रवेषं स्वजठरभृतये भाषयन् यस्य.....।

                एक बहुरूपिया था । एक राजा के पास गया और कहा हम आपको कुछ बन के दिखाना चहते हैं । राजा ने कहा तू व्याघ्र बन के दिखा सकता है ? उसने कहा बन सकता हूँ,समय चाहिए । मैं आपको बाघ बनकरके दिखा दूंगा । राजा ने कहा अच्छा बाघ बनकर दिखाओ ।हमें बाघ देखने की इच्छा है । उसने जाकर बाघ बनने का अभ्यास किया । पूरे शरीर को बाघाम्बर से ढका । बिल्कुल बाघ की आकृति धारण की । साधना के द्वारा बाघ बनने का अभ्यास किया । बाघ के समान गर्जना का अभ्यास कर लिया । और एक दिन दरबार में जाकर जोर से गर्जना की, जो नहीं जानते थे वे जान लेकर भागे । वह बाघ के समान दिखता था, बाघ के समान दहाड़ता था । भाष्यकार भगवान एक प्रश्न उठाते हैं वह बाघ के समान दिखा, बाघ के समान दहाड़ा पर बाघ की जो हिंसावृत्ति है वह उसमें आयेगी कि नहीं ? वह नहीं आ सकती क्योंकि वह किसी को खा नहीं सकता । अरे भाई बाघ के समान दिखता है, बाघ के समान दहाड़ता है पर किसी को खा क्यों नहीं सकता ? क्योंकि उसको अन्दर से बोध है कि मैं बाघ नहीं पुरुष हूँ । इस बात को वह काट नहीं सकता, इस ज्ञान को वह भूलना चाहे तो भूल नहीं सकता । उसका वह ज्ञान बाधित नहीं हो सकता । उसको वह याद नहीं करता पर ज्ञान को मिटा नहीं सकता । इसीलिये जब आप स्वरूप में जाग जायेंगे तो ज्ञान का अभ्यास करना नहीं पड़ेगा, पर यह ज्ञान ऐसा है जो कि सारे व्यवहार बाधित होकर के रहेंगे । इसमें--व्यवहार में सच्चाई आ ही नहीं सकती, आप चाहेंगे तो भी ।

                दूसरा उदाहरण उन्होंने दिया एक नट का लड़का है उसने स्त्री का वेष धारण किया । इतना सुंदर स्त्री का स्वरूप बनाया “मत्वा स्त्रीवेषधारी...." और अपने हाव-भाव एवं कटक्ष गान से सारी सभा को मोहित कर दिया । अज्ञानी कामी है उनमें वासना उत्पन्न हो गई कि यह स्त्री हमको प्राप्त हो जाये । भाष्यकार भगवान प्रश्न उठाते हैं "स्त्रीवेषधारी स्त्र्यहमिति कुरुते किं नटो भर्तुरिच्छा" क्या उसको पति की इच्छा होगी ? नहीं, स्त्री के समान शरीर दिखाई दे रहा है, स्त्री के समान उसकी बोलचाल है, स्त्री के समान स्त्रीलिंग के वाक्यों का प्रयोग कर रहा है हावभाव, कटाक्ष से उसने सारी सभा को मोहित कर लिया है । उसके अन्दर पति की इच्छा उत्पन्न होगी कि नहीं ? नहीं हो सकती । क्योंकि अन्दर से उसको यह ज्ञान है कि मैं पुरुष हूँ । इस ज्ञान को वह किसी भी प्रकार से काटने में समर्थ नहीं है । ठीक इसी प्रकार "यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये ।" प्रबोध के समय में उसको स्वरूप का साक्षात्कार होता है, तो वह अपने को देखता है, अपने से अतिरिक्त कुछ समझ उत्पन्न होती ही नहीं । इन्द्रिय से दिखते हुए भी, व्यवहार करते हुए भी आत्मा के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं, यही अनुभूति होती है । इस अनुभूति को वह काटने में असमर्थ है ।

                इन्द्रिय से एक चीज दिखाई देती है । बहुत जगह दिग्भ्रम हो जाता है तो मालूम पड़ता है कि पश्चिम से सूर्य का उदय हो रहा है । पर क्या अन्दर पश्चिम होता है ? नहीं ! नेत्र से पश्चिम दिखता है लेकिन अन्दर से यही पूरब है का अनुभव होता है, बुद्धि उसी को पूरब मानती है । नेत्र भले ही पश्चिम दिखा दें इस नेत्र से दिखना एक चीज है, मायिक नेत्र से दिखना एक चीज है, आपके अंदर ज्ञाननेत्र है जो गुरु कृपा से यह ज्ञाननेत्र खुलता है, वह ज्ञाननेत्र जब खुलता है-- "उघरहिं विमल विलोचन हिय के" गोस्वामी जी जब यह कह देते हैं तो इसका मतलब यह है कि तब तो उघड़ेगा, तो कहते हैं-- उघरहिं--बन्द हैं खुल जाता है । श्रीगुरु पद नख मणिगन ज्योती ।सुमित दिव्यदृष्टि हिय होती ।। दलन मोह तम सो सप्रकासू । बड़े भाग उर आवहिं जासू ।। तो उघरहिं विमल विलोचन हिय के-- इसका मतलब है कि ज्ञाननेत्र सभी के अन्दर है और वह बंद है । बन्द कैसे ? देखिए--- जब हम स्वप्न देखते हैं तो हमारे नेत्र बंद रहते हैं पर हम स्वप्न देखते हैं । स्वप्न के नेत्र से स्वप्न की वस्तु दिखाई देती है, माया के नेत्र से माया की वस्तु दिखाई देती है, और ज्ञान नेत्र से तत्त्व दिखाई देता है ।

                तत्वानुभूति ज्ञाननेत्र से होती है । ज्ञाननेत्र जब खुलता है तब माया का नेत्र बाधित हो जाता है । जिस नेत्र से आप स्वप्न देख रहे थे । आप जग गये, माया के नेत्र से वह बाधित हो जाता है । माया का नेत्र खुलता है तो स्वप्न का नेत्र बाधित हो जाता है और स्वप्न के नेत्र से माया का नेत्र बाधित हो जाता है । ऐसे ही ज्ञान नेत्र खुलने से माया का नेत्र से दिखाई देने वाला दृश्य बाधित हो जाता है । स्वप्न की स्मृति आपको आ सकती है पर उसमें सत्यत्व नहीं आ सकता । जगत इन नेत्रों से दिखाई दे रहा है पर वह तुरन्त बाधित हो जायेगा । तो गोस्वामीजी कहते हैं--- उघरहिं विमल विलोचन हिय के । मिटहिं दोष दुख भव रजनी के । सूझहिं रामचरित मणिमानिक । जहाँ आपको चित्र दिख रहा है वहीं आपको पर्दा दिखेगा । जहाँ जगत दिख रहा है वहीं आपको अपना स्वरूप दिखेगा । और जहाँ आपको स्वरूप दिखेगा वहां यह जो जगत दिख रहा है, वहां दिखने पर भी बाधित हो जायेगा । उसमें सत्यत्व निकल जायेगा । इसी को कहते हैं "यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये" प्रबोध समय में किसका साक्षात्कार करता है ? स्वात्मानमेवाद्वयम् साक्षात्कुरुते एकमेवाद्वितीयम् अपना स्वरूप ही उसको भासता है । सुरेश्वराचार्य भगवान ने अपने भाष्य वार्तिक लिखते हैं--- श्रुत्याचार्य प्रसादेन योगभ्यासबलेन च । इश्वरानुग्रहेणापि स्वात्मबोधो यथा भवेत् ।"

                 तीन बातें यहाँ पर उन्होंने ने बतायी । तीन बातें वहां पर उन्होंने बतायी हैं श्रुत्याचार्यप्रसादेन, योगाभ्यासबलेन एवं ईश्वरानुग्रहेण । एक है श्रुत्याचार्यप्रसादेन याने जब जगत से वैराग्य  उत्पन्न होता है, याने जब जगना चाहता है । जब तक जगत की वस्तु में प्रीति है तब तक जागना नहीं चाहता, सोना चाहता है, क्योंकि सपना खंडित हो जायेगा । और जब "परीक्ष्य लोकान् कर्मचिन्तान् ब्राह्मणो निर्वेयामात् नास्त्यकृतः कृतेन " जब यह जगत की परीक्षा कर लेता है कि इतने दिन से खा रहे हैं अभी पेट नहीं भरा, जिह्वा से मिठाई, दूध खाते खाते पेट--आंतें जवाब दे गई पर खाने की वासना नहीं गई । रूप देखते देखते नेत्र पर चश्मा लग गया पर रूप देखने की वासना नहीं गई । यह धोखा कब तक चलेगा ? यहाँ कोई तृप्ति नाम की चीज होती तो अब तक तृप्त हो गया होता कि नहीं ? जब जगत को इस रूप में देखता है तब परीक्षा कर लेता है । परीक्ष्य लोकान्-- तब उसका जगत से मन हट जाता है । य
हाँ धोखा है । इतने काल से लगा हूँ । कोई भी वृद्ध नहीं कहता कि एक पेटी, दो पेटी, दस पेटी सुख बटोर कर हमने रखा है, हम दूसरे को दे सकते हैं । उससे पूछा जाता है कि तुम जन्म से लेकर के सुख बटोर रहे थे, तो दो चार दस पेटी रखे होंगे तो वह रोने लगता है । क्यों रोने लगता है ? कहता है सब धोखा हो गया, सारी अवस्था धोखे में बीत गई ।सोचा ये हमारी सहायता करेंगे । अरे ! तुम्हारा शरीर तुम्हारा करना नहीं मानता है, तो लड़का नहीं माना, बहू नहीं मानी तो क्या बिगड़ गया तुम्हारा ?  पर ऐसा विचार नहीं करता । यह विचार नहीं करता कि जिस शरीर को हमने आत्मा माना । वही हमारा कहना मानने को तैयार नहीं, यही आंख हमारा कहना मानने को तैयार नहीं,बहू नहीं मानी तो क्या बिगड़ गया अपना ? अब यही शरीर नहीं मान रहा है जिसको हमने आत्मा माना था, वही हमारा कहना नहीं मान रहा है तो बाहर में कोई नहीं माना तै उसमें क्या अपमान हो गया ? यह जगत ऐसे ही है, बात समझ में नहीं आती । यह विवेक नहीं करता, फालतू में रोता है मोह में पड़कर । प्रत्यक्ष है कि जिस शरीर को तुमने आत्मा माना वही नहीं मान रहा है कहना, तो बाहर का नहीं माना तो कौन सा अपमान हो गया ?

              यह विवेक आ जाये तो परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्....। परीक्षा की तक गुरु के पास जाता है । किसी ने कहा गुरु के पास हम तो पहले से ही जा रहे हैं, हाँ ! गुरु के पास तुम पहले से जाते हो, पर गुरु के पास जो संपत्ति है उसको लेने के लिए नहीं जाते हो । संसार की समस्या के समाधान का उपाय पूछने जाते हो । गुरु की संपत्ति लेने कहाँ गये तुम ? जब वस्तुतः गुरु की संपत्ति लेने के लिए वह जाति है । श्रुति एवकार इसीलिए देती है कि तुम जगत छोड़कर के जंगल में बैठ जाओगे तो तुम्हारा काम नहीं चलेगा । इसलिए गुरु के पास जाओ ।

                  एक बहुत बड़ी बात है कि जिस समय साधु घर छोड़ता है, जिस समय विवेकी घर छोड़ता है उस समय बहुत बड़ी उपलब्धि प्राप्त करता है । क्या उपलब्धि है ? किसके आधार पर छोड़ता है बोलो ? जितना ममत्व उसने बनाया था । एक मिनट में उस ममत्व को तोड़ दिया उसने । यदि सच्चाई से तोड़ा है तो एक मिनट में ममत्व को तोड़ दिया कि नहीं ? किस बल पर तोड़ा ? एक ईश्वर के बल पर तोड़ा । यह बहुत बड़ी उपलब्धि है । बाहर से नहीं मालूम होता, पर यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं है । एक मिनट में सारा ममत्व तोड़कर आप जंगल में चले जाते हैं, तो कोई तो बल है तभी तो तोड़ पाये, नहीं तो कैसे तोड़ पाते ? उसके बाद देखा कि उस ममत्व का मूल है अहंता । इस कार्यकरण संघात में जो अहंकार है यही मूल है इसी ने ममत्व बनाया है । इसीलिये गुरु के पास जा करके ही उसे तोड़ो । उस अहंता को तोड़ दोगे तो फिर तुम्हारे लिए कोई समस्या नहीं है । और वह अहंता यदि बनी रही तो फिर ममत्व बना सकती है । इसलिए कहते हैं-- गुरु को प्राप्त करो, जब गुरु के पास जयेगा तब गुरु की कृपा प्राप्त करेगा । गुरु की कृपा प्राप्त कर लेगा और गुरु जो शास्त्र का उपदेश करेगा । तो जो गुरु के अन्दर अर्थ निहित है वह तुम्हारे अन्दर बैठ जायेगा-- श्रुत्याचार्यप्रसादेन-- इही ईश्वर अनुग्रह है । इसलिये--ईश्वरानुग्रहेणैव । यह जो ईश्वर का अनुग्रह हमारे हृदय में बैठ गया है--- यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम् ।" तब वहां देखो तीनो एक हो गये-- गुरु अपने को जो स्वरूप जानता है । शिष्य उस स्वरूप में जागेगा कि नहीं ?

                इसी बात को भाष्यकार भगवान ने कहा कि गुरु के लिए, सद्गुरु के लिए कोई उपमा नहीं है विश्व में । लोग पारस की उपमा देते हैं । पर सद्गुरु को पारस की उपमा नहीं दी जा सकती है । पारस लोहे को सोना बनाता है पारस नहीं बनाता है । पर "स्वीयं साम्यं विधत्ते" गुरु तो शिष्य को अपना स्वरूप प्रदान करता है । गुरु शिष्य को गुरु बना देता है । गुरु जिस तत्त्व में प्रतिष्ठित है उस तत्त्व में आपकोें   प्रतिष्ठित कर देता है । गुरु और आप एक हो जाते हैं और ईश्वर भी उसी के साथ एक हो जाता है--- ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेद विभागिने । व्योमवद्व्याप्यदेहाय दक्षिणामूर्तये नमः ।।

                   यह जो दक्षिणामूर्ति शब्द है वह परमेश्वर का वाचक है । परमेश्वर की पांच शक्तियाँ निरंतर काम करती हैं । सृष्टि शक्ति सृष्टि करती है, पालन शक्ति पालन करती है, संहार शक्ति संहार करती है, माया शक्ति सबको जगत में लगाती है । पर एक अनुग्रह शक्ति है, वह निरंतर जीव को शिव म़े प्रतिष्ठित करने की योजना बनाती रहती है । उसी योजना में विभिन्न प्रकार के अवतार होते हैं । उसी योजना में महापुरुषों का प्रादुर्भूत होता है । उसी योजना में ऐसे आयोजन होते हैं । अनुग्रह शक्ति संवलित जो परमेश्वर तत्त्व है उसी का नाम है--- आदि गुरुतत्त्व दक्षिणामूर्ति शिव । दक्षिणामूर्ति क्यों है ? यही कुशल मूर्ति है, देखो, परमेश्वर जो मूल आधार है वह ब्रह्म है, उसमें भी आपके अज्ञान को दूर करने की कुशलता, क्षमता नहीं है । है उसमें कुशलता क्या ? उसमें कुशलता होती तो कोउ अज्ञानी नहीं होता । ब्रह्म आपके अज्ञान को दूर करने में समर्थ नहीं है । वह तो सभी को सत्ता दे रहा है । अज्ञान को भी सत्ता दे रहा है । यदि ब्रह्म सबके अज्ञान को दूर कर सकता तो कोई अज्ञानी रह ही नहीं सकता । ईश्वर में भी वह सामर्थ्य नहीं है । बिना गुरु बने वह भी अज्ञान दूर नहीं कर सकता है । जब गुरुभाव में आता है तभी अज्ञान को दूर कर सकता है । नहीं तो वह शासन करता है । जीव ने जैसा कर्म किया है उसी के अनुसार फल देने वाला है, वह तो शासक है । सारे जगत का नियंता है, पर वही जब अनुग्रह शक्ति संवलित गुरु के रूप में आता है तब उसमें कुशलता आ जाती है । दक्षिणामूर्ति क्या है ? वही कुशल मूर्ति है ।

                     सृष्टि के कण कण में अनुस्यूत परमेश्वर तत्त्व । भगवत् स्वरूप सन्तवृन्द तथा आत्मस्वरूप श्रोतृवृन्द !  श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्र के प्रथम श्लोक पर विचार चल रहा था । इसमें हम लोगों ने देखा-- अन्तरस्मिन् इमे लोका अन्तर्विश्वमिदं जगत् । बहिर्वत् मायया भाति, दर्पण प्रतिबिंबवत् ।। सुरेश्वराचार्य भगवान कहते हैं कि यह सारा का सारा विश्व जो बाहर दिखाई दे रहा है ये सभी लोक अन्दर हैं पर बाहर दिखाई दे रहा है । दूसरा मूल में जो दो विशेष दिया विश्व का, एक 'निजान्तर्गतम्, दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं'-- सारा का सारा विश्व जो दिखाई दे रहा है वह आपके अन्दर है । पर यह बात समझ में नहीं आती है क्योंकि “मैं"का अर्थ हम लोगों ने शरीर रख दिया है । “मैं" का अर्थ यदि शरीर न हो ‛मैं’ को व्यापक कर दीजिये तो आपकी व्यापकता को कोई तोड़ नहीं सकता । शास्त्र कहता है "मैं"अर्थ शरीर नहीं, आपका स्वरूप व्यापक है । जब आपका स्वरूप व्यापक है तो सारा का सारा जगत आपके अन्दर है दर्पण में दिखने वाले नगर के समान । बाहर क्यों मालूम होता है ? माया से मालूम होता है । जैसे स्वप्न का जगत अन्दर होते हुए भी निद्रा दोष से बाहर मालूम होता है, ऐसे यह जगत अन्दर होते हुए, स्वरूप के अन्दर होते हुए माया दोष से बाहर मालूम होता है । कब तक मालूम होता है ? जब तक सोया है । जब जग जाता है तब स्थिति बदल जाती है आप जग जाते हैं तो आपको लगता है स्वप्न का जगत बाहर नहीं था, अपने अन्दर ही था, इस प्रकार जब जग जाता है--- "यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्" प्रबोध समय में जब इसको अपने स्वरूप का साक्षात्कार होता है तो सारा बाहर लिखने वाला जगत अन्दर होता है ।

                  दक्षिणामूर्ति नाम के विषय में हमने बताया था कि देखो भगवान ही मूर्ति जो सगुण-साकार वह भगवत् मूर्ति है । ईश्वर भगवत् मूर्ति है और आप भी भगवत् मूर्ति हैं  । पर कुशलता किसमें है ? साक्षात्कार कराने की कुशलता गुरुतत्त्व में है, इस लिए वह दक्षिणामूर्ति है, वह कुशल मूर्ति है, साक्षात्कार कराने में कुशल और समर्थ है । सारा ऐश्वर्य, सारा विश्व उसको अपना ही स्वरूप मालूम होता है । हमने कल लक्षित किया था आपको कि स्वप्न का सारा का सारा जगत् आपका ऐश्वर्य ही है, क्योंकि आपके संकल्प में ही आपका ऐश्वर्य है । अज्ञान के कारण ऐश्वर्य मालूम नहीं होता है । उसमें हेतु क्या है कि स्वप्न के कल्पिल एक शरीर की अहंता टिक जाती है, केवल इतना हेतु आपके अनुभव में है । जरा विचार करके देखिए कि स्वप्न का शरीर सारा विश्व आपने कल्पिल किया है, पर एक शरीर से अहंता जोड़ देने के कारत आपका सारा वैभव कुंठित हो जाता है । अपने संकल्प का बाघ अपने को ही खाने लगता है । आपका वैभव आप पर ही हावी हो जाता है, क्योंकि हम एक शरीर के सार "मैं" का संबंध कर देते हैं । ठीक इसी प्रकार "मैं" का संबंध शरीर के साथ कर देने के कारण समस्या हो रही है । सारी समस्या का हेतु यहाँ पर ही है । इस शरीर के साथ हमारे "मैं" का संबंध हो गया है । पूर्णाहन्ताकवलितं विश्वं योगीश्वरस्तदा । इस शरीर का जो कि अहंता के साथ संबंध है ये टूट जाये, जो उपाधि है उसको भेदने में आप समर्थ हो जायें तो आपकी पूर्णाहंता को कौन रोक सकता है ? आपकी अहंता पूर्ण हो जायेगी ।

                जब साधु एक घर छोड़ता है तो सारा घर उसका हो जाता है, किन्तु जब एक आश्रम से संबंधित हो जाता है तब सब आश्रम अपना नहीं कर पाता । एक घर जिस दिन छोड़ता है तब सब घर उसका हो जाता है अथवा कोई घर उसका नहीं है । ये दोनों शब्दों में बड़ा अन्तर पड़ता है । विश्व का सारा घर उसका हो गया अथवा कोई घर उसका नहीं । ऐसी एक शरीर से अहंता छोड़ा तो सारे विश्व का जो शरीर है वह आपक हो गया, अथवा कोई भी शरीर आपका नहीं है । क्योंकि सभी शरीर कल्पिल हो गए तो किसी शरीर के साथ कोई संबंध नहीं है । एक शरीर के साथ अहंता ममता का संयोग ही हमको परिच्छिन्न बनाता है ।

                  गुरु में यही विशेषता है, गुरु अपना स्वरूप समझता है । पर शरीर हमको दिखाई देता है । इसमें एक चीज ध्यान रखने की है कि ज्ञानी का शरीर होता है कि नहीं ? आप कहेंगे बहुत ज्ञानी महापुरुष हुए हैं, उनके ज्ञानी का शरीर क्यों नहीं होता शरीर से बहुत उपकार हुआ हैं । ज्ञानी का शरीर क्यों नहीं होता है ? ज्ञानी का शरीर होता है परन्तु जब आप ज्ञानी की दृष्टि से देखिगा, गुरु की दृष्टि से देखिए, जिस शरीर से अहंता ममता बनी है वही उसका शरीर है, दूसरा शरीर होता है क्या व्यवहार में ? जिस शरीर में आपकी अहंता ममता है वह आपका शरीर है और जिस शरीर में आपकी अहंता ममता नहीं है वह शरीर है आपका ? आपका शरीर नहीं है इसका मतलब यह हुआ कि शरीर उसकी अहंता ममता का आस्पद होता है वही शरीर होता है पर ज्ञानी को एक अहंता में अहंता ममता नहीं होती । "अहं ममेति संसारः" टूट गया । इसके साथ उसकी वास्तविक अहंता ममता नहीं है । जैसे नाटककार जो पार्ट लेता है, उस पार्ट के शरीर के साथ उसका अहंता ममता नहीं रहती है । इसी प्रकार ज्ञानी का ज्ञान है उस ज्ञान को स्मरण नहीं करना पड़ता है और इस शरीर के साथ अहंता ममता याद बनेगी तो सभी शरीरों के साथ बनेगी और नहीं तो किसी शरीर के साथ नहीं बनेगी । जब उसकी अहंता ममता का आस्पद शरीर हुआ ही नहीं तो ज्ञानी का शरीर है ऐसा हम नहीं कह सकते । पर व्यवहार में यह बात कही जाती है कि ज्ञानी का शरीर है । परमार्थ में ज्ञानी का स्वरूप है तो वह गुरु हो गया, और वह समर्थ है । किसमें समर्थ है ? वह इसमें समर्थ है कि जो बोधवान नहीं हैं उसको बोध कराने में समर्थ है । उसके अन्दर अनुभूति है, जो अनुभूति कभी काटी नहीं जा सकती ।

                   बहुत बार क्या होता है कि मान्यता एक चीज हो जाती है और वस्तु स्थिति एक एक चीज । परोक्ष और अपरोक्ष ज्ञान में यही अन्तर होता है । आप में श्रद्धा है आपको शास्त्र की बात पर विश्वास है आपको विकल्प नहीं है, आपको परोक्ष ज्ञान है ही । आत्मा शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव है । जैसे मान लीजिए कोई द्वीप है वहाँ पर दूध नहीं होता है । वहां के व्यक्ति जानते हैं कि दूध होता, जो सफेद होता है, लोग पीते हैं, उसमें बड़ा पोषक तत्त्व होता है । उनको कोई संशय नहीं है, अविश्वास नहीं है । उनका ज्ञान पक्का है । परन्तु अब एक व्यक्ति दूसरे द्वीप से वहां गया, वहां जाने के बाद उन्होंने कहा कि भाई ! आपके यहाँ दूध होता है ? कहाँ हां ! हमारे यहाँ बहुत दूध होता है । दूध सफेद होता है ? कहा-- हाँ ! बात तो ठीक है तुम्हारी । पर तुम्हारा ज्ञान पूरा नहीं है, क्योंकि गाय सफेद भी होती है, काली भी होती है, लाल भी होती है, चितकबरी भी होती है । सफेद गाय का सफेद दूध, काली गया का काला दूध, लाल गाय का लाल और चितकबरी गाय का चितकबरा दूध होता है....। अब देखो.....! मन में झट संशय आ गया ? देखा नहीं है न...., बोध नहीं किया है, लेकिन जिसने दूध निकाल के देख लिया है, प्रत्यक्ष कर लिया है, साक्षात् कर लिया है उसका गला भी दबाओ और कहो कि लिखो काली गाय का दूध काला होता है, वह लिख भी दे कि काली गाय का दूध काला होता है तो क्या उसका अनुभव कट जायेगा ? उसके लिखने से भी अनुभव नहीं कटेगा वह लिख भी दे, उसका गला दबाने से बोल भी दे तो भी उसका अनुभव नहीं कटेगा, क्योंकि उसने दूध निकाल कर देख लिया है कि काली गाय का दूध सफेद होता है, तो उसके अनुभव को कैसे काटेंगे ? कोई भी व्यवहार या अन्य चीजें ज्ञानी के ज्ञान में प्रतिबंधक नहीं बन सकतीं । यही परोक्ष और अपरोक्ष अनुभूति में अन्तर है । परोक्ष में संशय के लिए स्थान हो जाता है । यह समर्थ है, गुरु है, "इदं नमः"....यह नमस्कार क्या है ? सीमित अहंता का समर्पणा ।

                     वेदान्त में एकत्व करना नहीं पड़ता है आप त्वं और तत् से उपाधि हटा दीजिये । यह उपाधि हटाना ही एकत्व है, क्योंकि एक ही तत्त्व दो उपाधि से दो प्रकार से प्रतीत हो रहा है ।  यदि उस उपाधि को आप हटा देंगे तो दो का भान कहाँ से होगा ? दो का भान तो उपाधि से हो रहा है । अरे ! एक आकाश में घट रूपी उपाधि से घटाकाश मालूम हो रहा है और मठ रूपी उपाधि से मठाकाश मालूम हो रहा है । दोनों उपाधियों को हटा देंगे तो उपाधियों का एकत्व नहीं करना पड़ेगा । आकाश तो एक है ही । वेदान्त में जो नमस्कार है वह सीमित अहंता का समर्पण है । "इदं न मम ।"

                 गुरुतत्त्व में दो चीज हैं । गृशब्दे धातु है शब्द अर्थ में शब्द के द्वारा अशब्द पद को लक्षित करा देता है  । यही इसकी बहुत बड़ी कुशलता है । और इस कुशला में रहस्य इतना है क्योंकि ज्ञान की कहानी अकथ कहानी है । गोस्वामी जी भी कहते हैं--- "सुनहु तात यह अकथ कहानी ।" एक कहानी कहते हैं । वह कहानी कैसी है "अकथ" कथा है तो कहते क्यों हैं ? समुझत बनइ न जाइ बखानी ।" अभिधा वृत्ति से हम नहीं कह सकते इसलिए अकथ है और कोई सावधान रहे तो उसके अन्दर वह शब्द अनुभूति उत्पन्न कर कर देता है लक्षण से वह अनुभूत होता है । एक अनुभूति अन्दर रहती है, उस अनुभूति को लेकर के हम शब्द बोलते हैं उस अनुभूति में आपको ले जाने के लिए । जो शास्त्र का ज्ञाता है पर अपरोक्ष नहीं है जिसको, उसका शब्द वहां कभी भी प्रतिष्ठित नहीं होगा । उस अनुभूति में प्रतिष्ठात नहीं होगा । शब्द ज्ञान में प्रतिष्ठित होगा, इसलिये शब्द ज्ञान तो उद्भूत हो जाता है, पर जो ज्ञानी है उसका ज्ञान स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है । इसलिए उसका जो ज्ञान है उसे लक्ष्य की अनुभूति हो रही है ।  वहीं केन्द्रित हो कर के शब्द निकालेगा । उसका केन्द्र, उसका इसारा वहीं रहेगा । इसीलिए अनुभूति भी वहीं केन्द्रित है । इसलिये उसमें सामर्थ्य होती है जो शब्द द्वारा आपको लक्षित कर देती है यही उसकी विशेषता है । इस प्रकार पहला श्लोक हो गया ।

क्रमशः ------

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