द्वितीय श्लोक, प्रवचन
यही एक वास्तविक तत्त्वज्ञान की स्थिति है । विश्व को देखने की प्रक्रिया नेत्र है--- नेत्र से विभिन्न प्रकार के भेद दिखने पर भी एक तत्त्व की ही समझ रहना । जैसे पर्दे पर अनेक चित्र दिखने पर भी यदि किसी की बुद्धि में ऐसी सामर्थ्य है कि जो पर्दे तक जाती है, तो उसे एक पर्दा ही दिखेगा । कैमरे से जब फोटो लेते हैं तो बाहर की आती है और एक्सरे से जब लेते हैं तो बाहर बाधक नहीं होता है । ये बाहर के वस्त्रादि उसमें बाधक नहीं हैं । इसी प्रकार सामान्य बुद्धि चित्र को ही पकड़ती है और पूछो क्या देख रहे हो ? तो बताएगा चित्र देख रहा हूँ । उस समय उसको ईश्वर कृपा से, गुरुकृपा से ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो जाती है कि बुद्धि चित्र का भेदन करने में समर्थ हो जाती है । नेत्र से जहाँ चित्र दिख रहा है, चित्र दिखने पर भी वहीं पर्दे की अनुभूति हो जाती है । जहाँ चित्र दिख रहा है वहां ही पर्दे की अनुभूति है । और प्रत्येक चित्र के साथ एक पर्दे की अनुभूति है दो पर्दे की नहीं । चित्र रूपी उपाधि वहीं टूट जाती है, प्रत्येक चित्र के साथ एक पर्दा है उसकी बुद्धि उस पर्दे में जाकरके टिकती है । पर्दे में जाकर के उसका लक्ष्य स्थिर हो जाता है । नेत्र से भले चित्र दिखे पर उसकी बुद्धि पर्दे पर जाकर टिकती है । इसीलिये जहाँ पर आपको चित्र दिखाई दे रहा है वहीं पर आपको दर्पण (आत्मा) दिखाई देगा । वहीं पर आपको दर्पणा की अनुभूति होगी ।और सारा चित्र उस आत्म दर्पण में बाधित हो जायेगा, ये बात लक्ष्य करा दिया यहाँ पर ।
दूसरी बात यहां पर सत्ता और प्रकाश लक्षित किये गये हैं । एक सत्ता में सभी सत्तावन हो रहे हैं---जितने दृश्य आपको दिखाई दे रहे हैं । जैसे एक पर्दे की सत्ता पर सभी चित्र सत्तावन हैं । एक ही प्रकाश है, उसी प्रकाश में सभी प्रकाशित हो रहे हैं । ये एक विलक्षण खेल है । आप शांत बैठे हैं, घोर अन्धाकर है, हाथ भी नहीं दिखाई देता है, आपके नेत्र भी बंद हैं, आपके मन में कोई संकल्प होता है । संकल्प होते ही आपको ज्ञात है गया कि नहीं ? वह संकल्प किस प्रकाश में दिखाई दे रहा है ? यदि आप प्रकाश रूप नहीं हैं तो सूर्य भी नहीं है, चन्द्रमा भी नहीं है, विद्युत भी नहीं है करण भी नहीं है पर आप प्रकाश रूप न हों तो संकल्प कैसे प्रकाशित होगा ? संकल्प की सत्ता भी आप ही हैं और संकल्प का प्रकाश भी आप से ही है । पर जहाँ इदंतया संकल्प प्रकाशित हुआ यद्यपि वहां आप एक मैं पर वहाँ भेद मालूम होने लगा । "यह" संकल्प है यह मैं वह भेद एक में मालूम हो रहा है ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम । क्षेत्र क्षेत्रज्ञ एक प्रकाश में हो रहे हैं । वह सामान्य प्रकाश है । क्षेत्रज्ञ रूप विशिष्ट प्रकाश जहाँ आया वहां क्षेत्र पृथक मालूम हो रहा है और क्षेत्रज्ञ पृथक । क्षेत्र क्षेत्रज्ञ पृथक नहीं हैं । पर देखिए जहाँ विशिष्ट क्षेत्रज्ञ आया वहाँ क्षेत्र भी आया । जैसे वह संकल्प पृथक मालूम होने लगा उसके जानने वाले आप पृथक मालूम होने लगे । भेद कल्पिल है वास्तव में भेद नहीं है । वास्तव में केवल आप हैं अपने प्रकाश को लक्षित करें कि “मैं" का अर्थ प्रकाश है । वही प्रकाश जिसमें क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभाग भी प्रकाशित हो रहा है । ऐसा अपना स्वरूप हैं । उसमें सारा जगत सत्ता प्राप्त कर रहा है और सारा जगत उसी से प्रकाशित हो रहा है । सारा जगत प्रकाश रूप सत्ता ही है और वही आत्मदर्पण है जो सभी का सुखस्वरूप है । यह निर्धारित कर दिया ।
दूसरी चीज क्या निर्धारित किया कि दर्पण में अनन्त प्रतिबिंब भले ही हों तमाम लोग अपना मुख भले देख लें पर दर्पण असंग ही रहता है । उसको कभी भी किसी का संग हुआ ही नहीं । ऐसे अनन्त विश्व का अनुभव आपने किया है । पर किसी भी विश्व का स्पर्श आज तक नहीं हुआ । अनंत क्रिया के आप कर्ता रहे पर आप अनेजत् रहे । अनेक गतिविधियां पर्दे पर दिखायी दीं पर पर पर्दा स्पंदित नहीं हुआ, पर्दा हिला ही नहीं आज तक । यदि हिल जाता तो सब काम गड़बड़ हो जाता । वो प्रकाश रूप न हो यानि आपका स्वरूप प्रकाश रूप न हो तो जगत अंधकार रूप हो जायेगा । जगदान्ध्य भवेत्....। कहने का तात्पर्य ये है कि यह लक्षित करना है कि स्वरूप असंग ही है । आपका स्वरूप व्यापक है । आपके स्वरूप में ही सारी विशिष्टाओं को सत्ता प्राप्त हो रही है । पर गलती कहाँ हो रही है ? गलती ये हो गई है कि “मैं" एक कार्य करण संघात में केंद्रित हो गया है । “अतस्मिंस्तद्बुद्धि" हो गई है । जो आप नहीं हैं उसमें मैं हो गया है । यह “अतस्मिंस्तद्बुद्धि" रूपी अध्यास है यह अध्यास ही बंधन का हेतु है । ज्ञान से यह अज्ञान निवृत्त हो जायेगा । जगत् बाधित हो जायेगा । ऐसे दिखते हुए भी, बाधित होते हुए भी प्रकाश “मैं" रहेगा ।
अब एक शंका यह आती है कि भारतीय परंपरा में बहुत दर्शन हैं, सभी दर्शन अपनी अपनी विचारधारा को ले करके जगत के मूल का निर्धारण करते हैं । न्याय दर्शन कहता है कि दोखो ! यह जगत कार्य है । कार्य है तो कोई भी कार्य कैसे उत्पन्न होगा ? कारण से । अतः कार्य के लिए कारण चाहिए । वह कारण से उत्पन्न होता है । कारण से काम नहीं चलता है । एक समवायी यानी उपादान कारण चाहिए । जैसे वस्त्र बनाना है तो सूत चाहिए, सूत से वस्त्र बनता है । मिट्टी से घड़ा बनेगा । समवाय संबंध से घड़ा मिट्टी में रहेगा । समवाय संबंध से वस्त्र सूत में रहेगा । सूत में जो रंग होगा वही वस्त्र के रंग का हेतु बनेगा । वह असमवायी कारण है । सूत समवायी कारण है रंग असमवायी कारण है । वही रंग का हेतु बनता है । उसको बनाने वाला कुम्हार है अथवा जुलाहा है । वह निमित्त कारण है । ये तीन कारण मिलकर ही कार्य उत्पन्न होता है । बिना इसके कैसे कार्य उत्पन्न हो जायेगा ? इतना बड़ा कार्य रूप दिखाई दे रहा है वह कारण से कैसे उत्पन्न होगा ?
न्याय दर्शन कहता है कि पृथ्वी आदि चार भूत हैं, इनके परमाणु हैं, परमाणु से जगत उत्पन्न होता है । परमाणुगत गुण ही इसमे उत्पन्न हो जाते हैं । और ईश्वर निमत्त कारण है । सांख्य कहता है कि देखो ! सृष्टि त्रिगुणात्मिका है, तीन गुण हैं अनेक पुरुष हैं । पर पुरष अक्रिय है वह कुछ करता नहीं है । प्रकृति ही भोग मोक्ष का हेतु बनती है । प्रकृति सत्त्वरजस्तमो गुणात्मक है । उसमें परिणाम होने से महत्तत्त्व उत्पन्न होता है । महतत्त्व से अहंकार उत्पन्न होता है । अहंकार से सात्विक, राजस तामस तीन विभाग उत्पन्न हो जाते हैं । तामस विभाग से भूतों की उत्पत्ति हो जाती है, राजस से प्राण, कर्मेन्द्रियों की उत्पत्ति हो जाती है और सात्विक से तत्त् इन्द्रिय संबंधी देवता और इन्द्रियां उत्पन्न हो जाती हैं । इनके मत में पच्चीस तत्त्व हैं पुरुष को लेकर । पंचतन्मात्रा, पंचकर्मेन्द्रियां, पंचज्ञानेन्द्रियां, पंचमहाभूत, मन, प्रकृति, महतत्त्व एवं अहंकार तथा पुरुष । सबको मिलाकर पच्चीस होते हैं । प्रकृति-पुरुष के विवेक से सांख्यों की मुक्ति को शैव दर्शनकार वास्तविक मुक्ति नहीं मानते । वे कहते हैं सांख्य से जो मुक्ति प्राप्त होती है वह वास्तविक मुक्ति नहीं है । प्रकृति अंड से मुक्त हो जाता है पर माया अंड में उसकी सृष्टि रहती है मायाण्ड में वह बंधा रहता है । इसके ऊपर पांच कंचुक हैं । पांच कंचुक के बाद माया, माया के बाद ईश्वर है, शुद्ध विद्या, सदाशिव, शक्ति है, शिव है ऐसे छत्तीस तत्त्वात्मक यह विश्व है । परमात्मा सर्वज्ञ है, उसमें सर्वकर्तृत्व है, नित्य तृप्त है, नित्या है । वही परमात्मा जब विद्या रूपी कंचुक पहन लेता है तो उसमें किंचिज्ज्ञात्व आ जाता है । सर्वज्ञ था पर कंचुक पहनने से कुछ जानता है, ज्यादा नहीं जानता । कला रूपी कंचुक जब पहन लेता है तो जै सर्वकर्तृत्व जो था ईश्वर रूपता में, वह संपुटित हो जाता है । कुछ कर सकता है पर ज्यादा नहीं कर सकता है ।
राग रूपी कंचुक पहन लेता है तो उसका उसका नित्यतृप्तत्व संकुचित हो गया । थोड़ा सा तृप्त रहता है, ज्यादा अतृप्त रहता है । इसी प्रकार जब काल रूपी कंचुक पहन लेता है तो अपने नित्यत्व को भूल जाता है । कहता है मैं मर जाऊँगा । इसी प्रकार ये नियति रूपी कंचुक पहन पहन लेता है तो पराधीनता का अनुभव करता है । स्वातंत्र्य खतम हो जाता है । पांच कंचुक को लेकर ही पुरुष की कारण संज्ञा हो जाती है । ईश्वर एक है पर कंचुक रूप उपाधि के भिन्न होने के कारण पुरुष अनेक हो जाते हैं। अनेक होता नहीं है पर अनेक प्रतीत होता है । इस प्रकार सृष्टि चलती है । शैव दर्शन वाले कहते हैं कि जब तक भेद दृष्टि है तब तक मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिए जब ईश्वर तत्त्व में पहुंचेगा, शुद्ध विद्या को प्राप्त कर लेगा । तब महामाया इसके भेद दर्शन को दूर कर देगी । जब तक शक्ति अभिव्यक्त है भेद भी तब तक है । पर मूल शिव परमशिव है वहां अनभिव्यक्ति शक्ति है, वहां स्थित होने पर ही मुक्त होता है । यहाँ तक की घाटी पार करनी पड़ती है ।
सभी के अपने अपने दर्शन हैं और वहाँ पर प्रक्रिया कही गई है । इन प्रक्रियाओं का क्या समाधान है ? परमाणु से सृष्टि बनती है, कि गुणों से बनती है ? किस प्रक्रिया से बनती है ? परमाणु के विषय में एक मत नहीं है । चार्वाक है वो तो चार भूत ही मानता है, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु । ये चार भूत हैं, इन्हीं चार भूतों का शरीर बन गया है । चार भूतों से शरीर बन गया तो इसमें चेतना कहां से आ गई ? अरे देखो ! पान है, कत्था है, चूना है, सुपारी है, इन्हें मुख में रख लेते हो तो लाल रंग कहाँ से आ जाता है ? वस्तुओं को गला देते हो, चावल है, महुआ है उसमें शराब की तेजी कहाँ से आ जाती है ? रोज अन्न खाते हो तो नशा नहीं होता और उसी को प्रक्रिया से बना देते हो तो नशा कहां से आ जाता है ? इसी प्रकार इन चार भूतों को ऐसा मिश्रण कर दिया कि चेतना आ गई । चेतन युक्त ये शरीर ही जीव है । इसके आगे कुछ नहीं है । शरीर छूट जायेगा तो कोई अन्य जीव नहीं है कि दूसरी जगह जाये । “भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः" जब शरीर भस्म हो गया तो आगे कौन जायेगा ? शरीर से पृथक तो था नहीं, इसलिए-- “ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्" । कोई बात नहीं ऋण लेकर रहो, मौज से रहो, खाओ पियो आगे तो कुछ होना जाना नहीं । एक ही प्रमाण मानता है, प्रत्यक्ष प्रमाण ।
नैयायिक कहता है केवल प्रत्यक्ष नहीं अनुमान आदि अन्य प्रमाण भी हैं । पशु आदि भी अनुमान करना जानते हैं । अनुमान करने में वे कम थोड़े ही हैं हम से । वे भी एक व्यक्ति को देखकर अनुमान कर लेते हैं--- मारने आ रहा है, दूर भागते हैं । एक व्यक्ति को देखकर अनुमान कर लेते हैं खिलाने आ रहा है-- पास चले जाते हैं । उनको कम अनुमान नहीं है, बल्कि पशु तो हमसे अधिक जानकार है । वर्षा होने वाली है उसको भी वे जान लेते हैं, भूकम्प आने वाला है उसको भी वे जान लेते हैं । पशु का अनुमान तो बहुत है । नैय्यायिक अनुमान को भी प्रमाण मानता है । सांख्य शब्द को भी प्रमाण मानता है । आप्त वाक्य ही शब्द है, जो यथार्थ वक्ता है वह आप्त है । यथार्थ प्रमाण है चाहे प्रत्यक्ष, अनुमान से हमें समझ में न आये । नैय्यायिक एकदेशीय उपमान को प्रमाण मान लेता है । कहते हैं जैसे किसी नीलगाय देखने की इच्छा हो रही है और जंगल में जा रहा है । किसी से पूछा नीलगाय को हम कैसे पहचानेंगे ? कहा-- गौ सादृश्य से, गौ के सादृश्य है नीलगाय, पर नीलगाय गाय नहीं है, गौ से भिन्न है । गौ जैसी दिखाई देती है ऐसी वह भी दिखाई देती है । इस प्रकार प्रमाणों के विषय में बहुत सी बातें हैं । प्रभाकर अर्थापत्ति को भी मानते हैं । भट्ट वेदान्ती हैं ये अभाव को भी प्रमाण मानते हैं । पौराणिक लोक संभव और इतिहास को भी प्रमाण मनते हैं, ऐसे प्रमाणों के विषय में बहुत प्रकार के भेद हैं । ये सारी चीजें जगत् में बड़े बड़े बुद्धिमानों ने निर्धारित करके रखी हैं । ये कैसे समझ में आयेगा कि एक दर्पण के अतिरिक्त कुछ है ही नहीं ? यह कैसे होगा ? इसी का उत्तर अगला श्लोक देता है----
बीजस्यान्तिरिवाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्निर्विकल्पं पुन-
र्मायाकल्पितदेशकालकलना चित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ।।२।।
विभिन्न भेदों में प्रतीत होने वाला यह जगत हुआ कि नहीं ? उत्पन्न हुआ तो कैसे उत्पन्न हुआ ? उत्पत्ति के पहले क्या था ? देखो-- एक बड़ा भारी वट का वृक्ष है । आज हमको बड़ा भारी वृक्ष के रूप में दिखाई देता है, परन्तु वह वृक्ष जब उत्पन्न नहीं हुआ था, अंकुर भी नहीं आया था, उस समय उसका क्या स्वरूप था ? एक छोटा सा बीज था जो मुश्किल से हाथ पर रखने में दिखाई देता था । वही बीज हमारे सामने इतने बड़े वृक्ष के रूप में खड़ा हो गया । वह बीज जिसको दूरबीन से देखना पड़ता इतना छोटा वह बीज है, वह बीज ही इतने बड़े वृक्ष के रूप में दिखाई दे रहा है । इतने बड़े वृक्ष के रूप में दिखाई देने वाला वह बीज है, पर बीज में कोई वृक्ष दिखाई नहीं देता ठीक इसी प्रकार 'इदं जगत्' यह जगत् उत्पत्ति से पहले-- “बीजस्य अन्तः इव" बीज के अन्दर अंकुर के समान है । अंकुर यहां उपलक्षण है, बीज के अन्दर अंकुर, पत्र, फूल, डाल इत्यादि बड़ा भारी वृक्ष कैसे रहेगा ? इतने छोटे बीज में इतना बड़ा वृक्ष कैसे समाएगा ? तोड़ो तो भी कुछ नहीं मिलता उसमें । पर सारा का सारा वृक्ष इतने सूक्ष्म वृक्ष के अन्दर जैसे रहा, इसी प्रकार इस जगत को समझना है । ये सारा का सारा जगत इतना स्थूल और बड़ा भारी दिखाई दे रहा है, वह अतिसूक्ष्म था । कोई भी वृक्ष नेत्र से देखने के लायक नहीं था । अर्थात बीज रूप में तो था । आदि बीज भी दो प्रकार का होता है ।
एक मायावी है, मायावी ने आपके सामने एक बीज को जो गुठली रूप में था, हाथ में दिखा दी, आपको दिखाई दे रही है आम की गुठली, फिर उसने उसको ढक दिया, थोड़ा पानी छोड़, अब उसमें पेड़ दिखाई देने लगा । फिर उसको ढक दिया बड़ा हो गया फिर उसको ढक दिया फूल दिखाई देने लगे । आपके देखते देखते फल पक गया । फल तोड़ा और काटकर आपको खिला दिया । वह बीज भी माया का था और फल भी माया का था । इसी प्रकार जो अत्यन्त सूक्ष्म परमात्म दर्पण है । वह जड़ नहीं है, हमने पहले कहा था, वह चित् दर्पण है ।
चैतन्य में जड़ नहीं होता । चित् दर्पण है । चित् में दो चीजें हैं--- संकल्प सामर्थ्य और परामर्श सामर्थ्य । ये दो सामर्थ्य हैं । ये दो सामर्थ्य होते हुए भी वह ज्यों का त्यों रहता है । उसके स्वरूप में कोई अन्तर नहीं पड़ता है । सामर्थ्य आप देख रहे हैं, मायावी क्या क्या खिला देता है ? बहुत दिन की बात है, एक बार कानपुर में एक मायावी माया दिखाने आया । उसने पांच रुपये का टिकट रखा । ये करीब तीस साल पहले की बात है । रविवार का दिन था बहुत लोग आये । प्रचार किया कि पांच से छः बजे तक ऐसी माया दिखायेंगे कि तुमने कभी न देखा होगा । लोग आकर बैठ गये । पांच बाज गया, सवा पांच बज गया मायवती आता नहीं, लोग हल्ला करने लगे संगीत हो रहा है, साढ़े पांच बज गये, पौने छः बज गये लोग कुर्सी उठा लिए, हमारा पैसा लौटाओ, हमारा पैसा लौटाओ । दस मिनट पहले वह स्टेज पर आया । बोला--- मैने सुना था कानपुर के लोग बड़े सभ्य हैं । हमने सोचा जहाँ सभ्य लोग हैं वहां अपनी कला दिखाएंगे, पर यहाँ तो हमने देखा सभी के सभी असभ्य लोग रहते हैं । लोग प्रतिवाद करने लगे । उसने अपने डांटते हुए कहा-- आप लोग भी अपनी घड़ी देखिये...! सभी लैग घड़ी देखते हैं तो पांच बजने में पांच मिनट कम हैं । कहा ठीक से देखिए पांच बजने से दस मिनट पसले आया और आप लोग इतना हल्ला कर रहे हो । देख लीजिये अपनी घड़ी । अपनी घड़ी देखिए, अब घड़ी देखे क्या ? जो देखता है उसको पांच बजने में पांच मिनट की देरी दिखाई देती है । अब तो पांच मिनट डांटता रहा सबको । देखिए आप लोग अपने व्यवहार पर जरा विचार करिये । आप लोगों ने क्या व्यवहार किया ? मैं दस मिनट पहले स्टेज पर आया कि नहीं ? अब लोग क्या बोले ? बारबार अपनी घड़ी को घूरते रहे, उसमें पांच बजने में पांच मिनट कम ही हैं । अब पांच मिनट डांटता रहा, फिर कहा--- अब आप लोग अपनी अपनी घड़ी देखिए घड़ी में छः बजे हैं । कहा मैं पांच बजने से दस मिनट पहले स्टेज पर आया और एक घंटे से भी अधिक आपको खेल दिखा दिया, अब मैं जाता हूँ, धन्यवाद । कुछ हुआ नहीं, पर बड़ी भारी आफत हो गई कि नहीं ? हुआ तो कुछ नहीं पर जैसा बोलता गया वैसा दिखता गया, क्या करें, माया इसी का नाम है ।
उस आत्म दर्पण में कुछ हुआ नहीं । “मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम्" एक केवल आत्म दर्पण था । पर माया से बहुत कुछ दिखता है । ईश्वर के आश्रित माया है क्योंकि माया जड़ है स्वतः कुछ नहीं कर सकती । पर ईश्वर के आश्रय से सब चमत्कार दिखाने में समर्थ है । अब माया के द्वारा कल्पित हो गया देशकाल । देशकाल वहाँ है नहीं । हमने कहा था “देशकाल तहं नाहीं" पर माया ने देश की भी कल्पना कर ली और काल की भी कर ली । हमने आपको कहा था एक संकल्प भासित हुआ तो देश की कल्पना हो गई और एक काल की कल्पना हो गई ।
टकल्पना माने संबंध । देश एवं काल के संबंध से भी विचित्रता मालूम होती है । इसी वैचित्र्य से चित्रीकृतम् । श्रुति भी कहती है “इदं नामरूपाभ्यां व्यक्तियते" स्वरूप तो वैसा का वैसा ही है । एक नाम हो गया, एक रूप दिखाई देने लगा । आप भी नाम रूप से रहित हैं फिर भी आप में नाम भी दिखाई दे रहा है और रूप भी दिखाई दे रहा है । लोग तो परमेश्वर के विषय में झगड़ा करते हैं कि परमेश्वर साकार है कि निराकार । जो साकार दिखाई दे रहा है वह चिता पर पड़ा है और जाने वाला दिखा नहीं । वह निराकार था कि साकार ? देखो निराकार को भी व्यवहार के लिए साकार की अपेक्षा है, इसीलिये परमेश्वर को भी व्यवहार के लिए साकार की अपेक्षा होती है । और जिस समय आप साकार दिखाई दे रहे हैं उस समय भी आप निराकार हैं । परमेश्वर जिस समय साकार रूप धारण करके खड़ा रहता है उस समय भी निराकार है ।
ब्रह्मसूत्र में इस बात का निर्णय किया गया है कि जो भगवान का सविशेष स्वरूप है वह भी निराकार ही है । इतना है कि परमेश्वर अपने को निराकार रूप में ही मानते हैं । इसीलिए भगवान ने कहा दिया-- “अवजान्ति मां मूढ़ाः मानुषीं तनुमाश्रितम् ।" मेरा अपमान कर देते हैं दो हाथ वाला, साढ़े तीन हाथ शरीर वाला है कहकर । अरे मेरा जो व्यापक स्वरूप है उसका अपमान क्यों कर रहे हो । मुझे परिच्छिन्न बना देते हो । परमेश्वर नित्य ज्ञान स्वरूप है, यही उसमें विशेषता है । वह अपने निराकार स्वरूप में ही स्थित है । साकार स्वरूप हमको निराकार तक पहुंचाने का साधन है । साकार होने पर भी उसके ज्ञान में कहीं गड़बड़ी नहीं है । यदि वह इस शरीर का आश्रय ले ले तो वह सर्वज्ञ नहीं रह सकता सर्वकर्तृत्व उसमें नहीं रह सकता है । शरीर का आश्रय नहीं लेता है, हमको शरीर दिखता है । व्यवहार के लिए शरीर सब कुछ है । यही है “मायाकल्पित देशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम्" "मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया ।"
बहुत दिन पूर्व की एक बात है । जयपुर के राजा के यहाँ एक मायावी आया । उसने कहा हम कुछ खेल दिखाना चाहते हैं । कहा--- महाभारत का युद्ध दिखा सकते हो । हम राजा हैं । राजा लोगों का युद्ध देखना चाहते हैं । उसने कहा दिखा सकता हूँ पर छः महीने का समय चाहिए । कहा ठीक है । उसने जाकर छः महीने युद्ध प्रकरण का अभ्यास किया । अभ्यास करके मन में टिका लिया । छः महीने बाद आया कहा हम महाभारत का युद्ध दिखा सकते हैं । दो घंटे तक । दो घंटे में सारा महाभारत ।
राजा ने निर्धारित कर दिया सभा बैठ गई और सायंकाल सात बजे से नौ बजे तक ऐसा महाभारत युद्ध दिखाया कि सब आश्चर्यचकित रह गये । उस समय राजा विदेश से लौटा था । उस समय तक कैमरा निकल चुका था । विदेश से कैमरा ले आया था । कहा कि जो यह महाभारत दिखायेगा उसकी पूरे दो घंटे की रील बना लो । ऐसा उसने निर्धारित कर दिया । दो घंटे तक उसने ऐसा महाभारत युद्ध दिखाया कि सबको लगा कि देखो महाभारत का युद्ध पुस्तक में लिखा हुआ था, यहाँ तो नेत्र को प्रत्यक्ष है । दो घंटे की फोटो ले ली गई । जब फोटो धोई गई तो उसमें एक ही फोटो आई । कि मायावी माला लेकर बैठा हुआ था । एक ही फोटो सभी रील में । दूसरा तो कोई था नहीं वहां, वह जैसा जैसा संकल्प करता जा रहा था सबको वैसा वैसा दिखता ज रहा था । उसने पुस्तक से सब मन में भर लिया था । घोड़ा दौड़ रहे हैं, हाथी दौड़ रहे हैं, बाण छूट रहे हैं, कर्ण कैसा है, तो भीष्म कैसा है ऐसा सारा का सारा महाभारत दिखा दिया और यहाँ एक मायावी की फोटो आई । “मायावीव विजृम्भयत्यपि....." एक मायावी अदृश्य रहकर अनंत विश्व प्रकट कर देता है ।
हम लोग देखते हैं कि सेना सहित भरत जी राम जी से मालने के इच्छुक हैं, साथ माताएं हैं, सभी लोग हैं, राजपरिवार है सेना है । भरद्वाज के आश्रम में पहुंचे । भरद्वाज पर्णकुटी में रहते हैं । कंदमूल खाते हैं और विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं । पर वे बहुत बड़े वैज्ञानिक हैं । आजकल का जो विमान इत्यादि का विज्ञान है इससे भी बहुत उत्कृष्ट कोटि का ग्रंथ, जिसमें ऐसे विमानों का, ऐसे रडारों का वर्णन है कि देखकर चकित रह जायेंगे । किन्तु उस समय के ऋषि समाज ने उसको प्रश्रय नहीं दिया । उसकी मीमांसा हुई तो कहा कि भरद्वाज ने जो यह भौतिक विज्ञान निकाला है यह राजाश्रित नहीं होना चाहिए, कार्य रूप में परिणत नहीं होना चाहिए । कहा क्यों नहीं होना चाहिए ? इसमें कुछ गुण भी हैं, पर दोष ज्यादा हैं । यह साठ हजार बर्ष पहले की मीमांसा है ।कहा क्या गुण हैं ? सुविधा बहुत बढ़ जायेगी इस विज्ञान से लेकिन जैसे जैसे सुविधा बढ़ती जायेगी वैसे वैसे शरीर की, इन्द्रियों की क्षमता मन की क्षमता कमजोर होती जायेगी । शरीर की क्षमता कम हो जायेगी तो शरीर रोगग्रस्त हो जायेगा । सुविधा बढ़ जाना एक पक्ष है, उससे बढ़कर खतरनाक पक्ष यह है कि शरीर, इन्द्रिय मन रोगग्रस्त हो जायेंगे ।
दूसरी चीज बताई बुद्धि बहुत बढ़ जायेगी । जैसे जैसे बुद्धि बढ़ती जायेगी वैसे वैसे हृदय पक्ष कमजोर होता जायेगा । व्यवहार बुद्धि से होने लगेगा । पत्नी पति के साथ बुद्धि से व्यवहार करेगी । ठीक वैसे ही पति पत्नी के साथ बुद्धि से व्यवहार करेगा । सब एक दूसरे को बुद्धि से चलाएंगे । बुद्धि के साथ चालाकी है, अहंकार है, हृदय के साथ सरलता है । व्यक्ति करोड़ों की चोरी कर लेगा पर बुद्धि ऐसी की कोर्ट में चोरी सिद्ध न हो । एक बार बार मैं बाराबंकी में वैठा था । एक युवक आ गया लखनऊ से कहा महाराज युग बदल गया है । हमने कहा अरे ! युग बदल गया पर सत्य तो एक ही रहेगा, झूठ तो झूठ ही रहेगा । बोला नहीं आप झूठ चाहे जितना बोल सकते हैं, प्रमाणित नहीं होना चाहिए । प्रमाणित नहीं हुआ तो आपको कोई झूठा बोल दे तो मानहानि का केश कर दीजिये । आप करोड़ों की चोरी कर सकते हैं पर कोर्ट में प्रमाणित नहीं होना चाहिए । हमने कहा--- भाई ! बात तो आपकी चमत्कारिक है, पर ये बताओ कि उसको पता होगा कि नहीं कि मैने चोरी की, उसको पता रहेगा कि नहीं कि मैने झूठ बोला ? घबराया...., बोला पता रहेगा । अब बोलो...., कौन से प्रमाण की जरूरत है ? वह यह निश्चित जानता है कि मैने अपराध किया है । यदि वह ऐसा नहीं जानता तो सबको कह देता कि मैने चोरी की है । अपराध का भी बोध है, चोरी का भी बोध है, झूठ बोल रहा है, कह रहा है कि मैं सत्य बोल रहा हूँ । इसका मतलब उसको अपराध का भी बोध है । झूठ का भी बोध है । किसी प्रमाण की जरूरत नहीं है ।
जब उसका फल उदय होगा तो अपने आप उसको पता लग जायेगा । यह चीज विलक्षणा है । ऋषियों ने कहा था कि फिर तो मनुष्य कंप्यूटर युग के मशीन के समान हो जायेगा, मानवता ही खतम हो जायेगी । इसलिए यह विज्ञान राजाश्रित नहीं होना चाहिए । आज देखो विज्ञान बढ़ रहा है और क्या दशा हो रही है ? कंप्यूटर युग तो मशीन के समान होता जा रहा है । मानवता पता नहीं कहां चली गई ? इसका हृदयपक्ष ढक जायेगा, बुद्धिपक्ष प्रबल हो जायेगा । इधर एक दूसरे का गला काटने की साजिश है उधर साथ मिलाने का दिखावा, दो साथ हैं । इधर विश्वबंधुत्व से नहीं नीचे बात नहीं करेगा नहीं तो साम्प्रदायिक हो जायेगा, उधर अपने भाई का गला भी काट लेगा । यह धर्मध्वजित्व है । मेरे कहने का आशय यह है कि देखो जब भरद्वाज के यहाँ इतने बड़े अतिथि आये हैं । उनके मन में एक संकल्प होता है । अतिथि बहुत जबर्दस्त है । उसी के अनुसार स्वागता होना चाहिए । महल के महल खड़े हो जाते हैं । अयोध्या के लोग भी सोचते हैं कि ऐसी व्यवस्था तो स्वर्गलोक में भी नहीं हो सकती जैसा भरद्वाज के आश्रम में हमारा स्वागत हुआ । इतनी सामर्थ्य है और रहता कहाँ है ? पर्णकुटी में, कन्दमूल खाता है । सामर्थ्य क्या है ? योगी अनेक शरीर धारण करके अनेक जगह विचरण कर सकता है, यह योगी की सामर्थ्य है । योगी में इतनी सामर्थ्य है, मायावी में इतनी सामर्थ्य है । योगी का देखो कितना स्वातंत्र्य है ? फिर उस परमेश्वर के विषय में क्या शंका कर सकते हो ? अनंत विश्व के रूप में विभिन्न रूपों में प्रकट करके खेलता हुआ ज्यों का त्यों है उसमें कुछ भी बदलाव नहीं आया इसलिए जितनी भी कल्पना है, लोगों की बुद्धि करता है कल्पना है, सब माया के अन्तर्गत है, सब योगी के ऐश्वर्य के अंतर्गत ही है ।
यहाँ न कोई बीज है न कोई वृक्ष, पर बीज भी दिख रहा फल भी खा रहे हैं । केवल एक आप । “मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया" मायावी के समान, योगी के समान स्वेच्छया केवल स्वातंत्र्य शक्ति है । चैतन्य का स्वातंत्र्य ही अनंत विश्व के रूप में प्रतीत हो रहा है । उसी में सब अपनी अपनी बुद्धि लगाते हैं । कोई कहता है परमाणु से जगत हुआ है, कोई कहता छत्तीस तत्त्व से हुआ है, तो कोई कहता है तीन तत्त्व है, तो कोई कहता छब्बीस तत्त्व है । उस जिसकी जितनी बुद्धि फुरती है, जैसी दृष्टि होती है वैसा लगता है । यहाँ तो एक योगी के समान, एक मायावी के समान, बिना कुछ किये ही अनंत जगत प्रतिभासित हो जाता है । ऐसा जो परमात्म तत्त्व है वह गुरु के रूप में हमारे सामने खड़ा है । जो गुरु के रूप में अपने स्वरूप का साक्षात्कार करता है उसको हमारा यह प्रणाम है । इस प्रकार यह बता दिया कि यह जो बंध मोक्ष का उपदेश है यह भी माया में ही होता है ।
आप इसको समझ लीजिये । हमारे परिचित भक्त थे । एक बार अपने मामा के यहाँ गये । उनके मामा भूतप्रेत उतारते थे, इस कला में बड़े निपुण थे । उन्होंने हमें सुनाया कि एक माता थी । उनमें इतनी शक्ति थी कि दो को पकड़ कर फेंक देती, इतना बल । उसे दो लोग पकड़कर वहां लाये । हमारे मामा से कहा कि एक वर्ष से इसकी तबियत खराब है । सात दिन से ज्यादा खराब है । वे अंदर गये, पीले सरसों ले आये, इधर फेंका, उधर फेंका । कहा ओहो....!!! बहुत ज्यादा हो गया अब जी नहीं सकती, मर जायेगी । लोग घबरा गये । एक चुड़ैल एक वर्ष पहले इसके अन्दर घुसी थी और दूसरी सात दिन पसले घुस गई । जब दो चुड़ैल जिसके शरीर में लड़ रही हो तो वह कभी जी नहीं सकती । फिर भी तुम लोग ले आये हो तो अपना काम दिखाते हैं । लौंग ले आये इधर फेंके उधर फेंके । अपने विद्यार्थियों से कहा मिर्चों की धूनी ले आओ । वे अग्नि में मिर्ची छोड़कर ले आये । उसकी नाक के सामने ले गये, कहा छोड़ ! कहा छोड़ दिया । कहा ऐसे नहीं प्रतिज्ञा कर छोड़ दिया । तीन बार प्रतिज्ञा कराया । कहा हमने चुड़ैल तो निकाल दिया, अबकी बार जरा भी गड़बड़ हो तो फिर ले आना, अबकी बार जमीन में गाड़ दूंगा, दो लाख वर्ष तक निकल ही नहीं सकती । जरा भी गड़बड़ करे तुरन्त ले आना । उसे लेकर चले गये । हमने पूछा मामा तुमको कैसे पता लग जाता है कि चुड़ैल लगी थी । अरे उसको कोई चुड़ैल थोड़े ही लगी थी । तो इतना दंदफंद क्यों किया ? कहा वह बिना इसके निकल नहीं सकती । चुड़ैल तो नहीं लगी थी, पर बिना इसके निकलती कैसे ? आपके मन में घुस गई है, कह देने मात्र से नहीं निकल सकती । जगत घुस गया है, कहने मात्र से निकलने वाला नहीं है । इसके लिए तो बहुत बड़ा माथापच्ची करना पड़ता है । बहुत माथापच्ची है, पर यह भी माया में ही है । उन्होंने कहा उसको कुछ भी नहीं लगा था पर पहले मैने क्या किया ? पूछ लिया । फिर जब मैने कहा- एक चुड़ैल एक वर्ष पहले घुसी और सात दिन पहले तो उनको विश्वास हो गया । कि यह हमारा मर्ज ठीक समझता है । ये लोग नहीं समझते । उसको मेरे पर विश्वास हो गया । जब विश्वास हो गया तब दंदफंद करके हमने मन से निकाल दिया, यही तो काम है ।
ऐसे शास्त्र पहले स्वीकार कर लेता है जगत उत्पन्न हुआ है । कैसे उत्पन्न हुआ है ? देखो पृथ्वी जल से उत्पन्न हुई, जल अग्नि से अग्नि वायु से, वायु आकाश से, आकाश परमात्मा से उत्पन्न हुआ । जगत परमात्मा से उत्पन्न हुआ । ऐसे लोक उत्पन्न हुए, ऐसे व्यवस्था बनी, ऐसे देवता उत्पन्न हुए, ऐसे असुर उत्पन्न हुए तब उसको विश्वास हुआ । बात ठीक है, यही अध्यारोप है । अध्यारोप करके फिर अपवाद करता है । अध्यारोपापवदाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्यते । यह शास्त्र की विधि है, यह माया में है । पहले अध्यारोप करता है, फिर आपकी बुद्धि शोधन करते करते कहता है इस जगत का उत्पन्न होने से पहले क्या स्वरूप था ? उत्पन्न होने के पहले परमात्मा ही था और कुछ था ही नहीं । अरे ! एक ही परमात्मा था और भूतादि थे ही नहीं तो उत्पन्न कैसे हुआ जगत ? कहा-- परमात्मा में एक शक्ति है मायाशक्ति ऊसने संकल्प कर दिया और संकल्प से भूत उत्पन्न हो गये । तस्माद्वैतस्मादात्मन आकशः सम्भूतः । आकाशाद्वायुः ...... ।
आपको विश्वास हो जायेगा कि भूतादि जो दिखाई दे रहे हैं ये भी संकल्प रूप हैं । इस क्रम से यहाँ आते आते दिखेगा कि सारा संकल्प ही है दूसरा कुछ नहीं । इस क्रम से पहले ले जाकर शास्त्र इसको स्वीकार करता है । और फिर स्वीकार करके अपवाद करते हुए वहां पहुंचा देता है । वहां पहूंचा कर कहता है इस समय भी वही है दूसरा कोई नहीं है । जो सृष्टि के पूर्व में था वही इस समय भी है । चित्र दिखने के पहले भी पर्दा था और चित्र दिख रहा है उस समय भी पर्दा ही है । चित्र जिस समय खतम हो जाता है उस समय भी पर्दा ही है । श्रुति के सामने बहुत बड़ी समस्या है । व्यक्ति के अस्तित्व विषयक शंका हमारे मन में बनी रहती है--- कि यह मर गया, दूसरा जीवित है, इसका अस्तित्व समाप्त हो गया । प्रत्येक के साथ अस्तित्व अलग अलग प्रतीत हो रहा है । यही हमारे अन्दर सुदृढ है । जल्दी निकलता नहीं । इसे समझाने में श्रुति के सामने बहुत बड़ी समस्या है । ऐसा दृष्टांत लो कि एक बालक है, भले आज ऐसा बालक न दिखाई दे, पर किसी बालक ने सुना है कि कोई सिनेमा होता है, उसमें एक पर्दा होता है । पर्दे पर बहुत विलक्षण खेल दिखाई देता है । पर्दे के विषय में उसको जिज्ञासा है । उसमें क्या दिखाई देता है उसके विषय में उसको जिज्ञासा नहीं है पर जिज्ञासा है कि पर्दा क्या है ? एक दिन उसका पिता सिनेमा देखने जा रहा था, बेटा कहता है मैं भी चलूंगा । जिस समय वहां हॉल में पहुचा वहां खेल दिखाई दे रहा था । जाते ही पूछता है पिताजी इसमें पर्दा कौन है ? पिता पर्दा जानता है पर पिता पर्दा बतावे कैसे ? पिता जिधर उंगली उठायेगा उधर कोई न कोई चित्र है ।बालक चित्र को ही पर्दा समझ लेगा । यदि कहो सब पर्दा है तो सभी चित्रों को मिलाकरके पर्दा समझ लेगा, यदि कहे यह सब हटा दो तो शून्य को पर्दा समझ लेगा, क्योंकि प्रत्येक के साथ अस्तित्व दिखाई दे रहा है-- पृथक पृथक । उसको हटाने की बात करेंगे तो सभी का अस्तित्व ही हट जायेगा, तो शून्य को ही परदा समझ लेगा । पर्दा समझावें तो कैसे ? श्रुति के सामने भी यही समस्या है । समझाने का प्रयास सुषुप्ति में हो नहीं सकता, चित्र रहित दशा में समझाने का काम होगा नहीं । जाग्रत में समझाने का काम होता है, जागृति में चित्र दिखाई देता है । अतः पूछा है कि इसमें पर्दा कौन है ? श्रुति के सामने यह समस्या होती है । कहता है यह पर्दा है ? कहता है नेति । नेति नेति करके अधिष्ठान में ले जाना कितना कठिन है, क्योंकि अधिष्ठान का ज्ञान तो है नहीं, अधिष्ठान दिखाई भी नहीं देता है । यहाँ तो इदं है, यहाँ तो आपका स्वरूपभूत पर्दा है । श्रुति ऐसा एक प्रकार से कहती है, तो दूसरे प्रकार से कह देती है "सर्वं खल्वमिदं ब्रह्म" यह भी कह देती है--- "नेति नेति" यह भी कह देती है । कैसे भी यह अधिष्ठान को पकड़ ले । दूसरी चीज, इसीलिए साधना की अपेक्षा होती है । खाली बुद्धि और साधना से काम नहीं चलेगा ।
एक बार वह बालक चित्र रहित दशा में, अंधकार रहित पर्दा का साक्षात्कार कर ले । तो चित्र में भी उसको पर्दा ही दिखेगा । और अंधकार में भी दिखेगा । इसलिए समाधि का अभ्यास किया जाता है चित्र रहित दशा में एवं सुषुप्ति-- आवरण रहित दशा में एक बार स्वरूप का साक्षात्कार कर लेंगे तो जागृति में भी स्वरूप ही दिखेगा और स्वप्न एवं सुषुप्ति में भी स्वरूप ही दिखेगा, दूसरा नहीं । ये बारंबार सत्ता और स्फुरण के बारे में भ्रम हो जाता है । प्रत्येक जानने वाला अलग अलग दिखाई देता है । कितना भी अभ्यास करो प्रत्येक की सत्ता अलग मालूम होती है ।इसमें जानने वाला अलग मालूम होता है । जानने वाला जान रहा है, वो चला भी जाये तो दूसरा जानने वाला जान रहा है । एक जानने वाला सब जगह है, यह कठिन कार्य है । एक सत्ता में सब कल्पित है, एक ज्ञान में सभी ज्ञानवान हो रहे हैं, यह बात जल्दी बैठती नहीं है । इसलिए इस बात को पुनः कहते हैं-----
क्रमशः ------
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ॐ
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