दशम श्लोक, प्रवचन


यहाँ अगला श्लोक कहते हैं.....
सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिंस्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च सङ्कीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येतत्पुनरष्धा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ।।१०।।

               इस स्तोत्र में शुरू से अन्त तक आपको बताया गया कि एक सत्ता है, वह प्रकाश रूपा है । आपका ही मूलस्वरूप है । आप सर्वात्मा हैं  । हमने कई बार बता दिया कि घड़े का जो प्रतिबिम्ब रूप सूर्य है वह अपने स्वरूप में पहुंचेगा तो सभी घड़ो में अपने को देखेगा । इस स्तोत्र में आपका सर्वात्म रूप प्रकट किया गया है । "सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतम्" इसलिये इसमें आपका सर्वात्म रूप स्पष्ट कर दिया  गया है । विलक्षण एवं कृपापूर्ण शब्दों के द्वारा एक तत्त्व को बुद्धि में प्रतिष्ठित किया गया है । इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । सारा जगत दर्पण के समान दिखने वाले नगर के समान मिथ्या है । इसलिए "तेनास्य श्रवणात्" जो इसका श्रद्धापूर्वक श्रवण करेगा ।

                अर्थ जो सुना उसको अपने साथ ले जाना । जैसे वर्षा हो रही है, किसी ने घड़े का मुख ऊपर करके रखा है तो बर्षा का जल उसमें जायेगा, जब घड़ा लेकर घर जायेगा तो जल भी साथ जायेगा । किसी ने अपने घड़े का मुख नीचे कर दिया है तो जब तक वर्षा होगी तब तक गीलापन मालूम होगा । वैसे ही सतसंग की बात है । जब तक सतसंग में है तब तक ठीक है । सतसंगी को किसी पूछा कहाँ गये थे ? कहा-- सतसंग में । बहुत आनंद बरस रहा था, इतना जानते हैं । घड़े का मुंह नीचे कर दिया है किसी ने टेढ़ा करके रख दिया है तो दो चार बूंद उसमें आ जायेगी । पर श्रोता इसी का नाम है कि जो बुद्धि को इन शब्दों के बिल्कुल अभिमुख कर दे,तो जो सुन रहा है उसके हृदय में प्रतिष्ठित हो जायेगा । तब आप दूसरे को भी पिला सकते हैं और आप भी पी सकते हैं । जब घर ले जायेंगे तो उसको पचाएंगे, जब ले ही नहीं जायेंगे तो मनन कैसे होगा ? मनन तो तब होग जब आप इसको ले जायेंगे । इसी को कहते हैं-- "तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननात्" । जब ले जायेंगे तो अर्थ का मनन होगा । जब उसके अर्थ का मनन करते करते ध्यान लग जायेगा तब गुरुता प्राप्त होने लगेगी । जब अर्थ का दीर्घकाल तक मनन करेंगे, उसको निःसंदिग्ध करेंगे, तब आपकी भावशक्ति उसको पकड़ेगी, तब ध्यान लग जायेगा । आप समाधिस्थ हो जायेंगे ।दूसरा क्या होगा कि आपके मन में इतना भर जायेगा कि आप किसी दूसरे से बोलेंगे तो वही बोलेंगे । जो अन्दर रहेगा वही तो निकलेगा ।

                महापुरुषों की बात हम देखते हैं कि बैठ जाओ, चाहे व्यवहार की बात शुरू कर दो, दो मिनट बाद हम देखेंगे कि परमार्थ की चर्चा शुरू हो गई । कैसे शुरू हो जाती है ? वे व्यवहार को तो पकड़ते नहीं हैं । उनके अन्दर वही भरा हुआ है, वही शुरू हो जाता है । आप कहीं भी जाकर देखो, आप व्यवहार चर्चा शुरू किये, दो मिनट बाद परमार्थ की चर्चा शुरू हो गई, क्योंकि उसके अन्दर वही भरा है, दूसरा तो भरा नहीं है । इसलिए वह बात भी करता है तो उसी की, चिंतन करेगा तो उसी का, भजन करेगा तो उसी का, वह उसी का करता है " तच्चिन्तनं तत्कथनं अन्योन्यं तत्प्रबोधनं, एतदेकपरत्वं च ब्रह्माभ्यासं विदुर्बुधाः" । एक लक्ष्य पर हो गया है । उससे सबसे बड़ा फल होगा, "सर्वात्मत्वं" वह देखेगा । अब तक वह शरीर देख रहा था, पर जब वह तत्त्व का साक्षात्कार कर लेगा तो सर्वत्र अपनी व्याप्ति देखेगा । जैसे ईश्वर कहता है "क्षेत्रज्ञं चापि मान विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत" । अपना वैभव देख देख के हंसेगा । अपनी क्रीड़ा देख देख के हंसेगा । उसको किसी पर गुस्सा नहीं आयेगा ।

           अब न्याय-अन्याय आदि खत्म हो गया, स्वयं ही इतने रूप धारण करके क्रीड़ा कर रहा है । स्वर रावण बना है, स्वयं राम बना है, तो न्याय अन्याय उसको क्या दिखाई देगा ? व्यावहारिक धरातल में न्याय-अन्याय है उसकी सृष्टि में तो एक था, एक ही है । पारमार्थिक सत्ता में भेद नहीं रहता-- भेद खत्म हो जाता है । उसको मुख्य भाव सर्वात्मत्व प्राप्त होगा । पर कभी कभी मुख्य फल के साथ बहुत गौड़ फल भी प्राप्त हो जाते हैं । मान लो आब गैस उपलब्ध है पर पहले लोग जब ठंडी में लोग भोजन बनाते थे, तब भोजन बनाने के साथ ही शरीर की ठंडक भी दूर हो जाती थी । तुम भोजन बनाने के लिए बैठे पर दूसरा फल प्राप्त हो गया, शरीर की ठंड दूर हो गई । तापना अलग नहीं पड़ा, ऐसे गौड़ फल भी बहुत मिल जाते हैं । वृक्ष लगाया आम का छाया अपने आप प्राप्त हो गई, भले ही फल के लिए लगाया हो । आप सुगंधित पुष्प ले आये चढ़ाने के लिए आपको सुगंधि मिलनी शुरू हो गई, सुगंधि के लिए तो आप लाये नहीं थे इसी प्रकार सर्वात्मत्व आपको प्राप्त हो जाता है । आप अपने मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं । आपका मैं अपने चेतन स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है । सारा जड़ जगत आपका वैभव बन जाता है ।

               देखो दो चीज है इसमें एक "मैं" है, एक "यह" है । "मैं" के लिए "यह" है । पैसा आपके लिए है, आप पैसे के लिए नहीं । ये संसार के विषय आपके लिए हैं या आप विषयों के लिए हैं यह बात विचारणीय है । जब तक विषयों के पीछे दौड़ रहे हैं तब तक यह रहस्य रहेगा । पर जिस दिन आप विषयों का पीछा आप छोड़ करके अपने में प्रतिष्ठित हो जायेंगे उस समय सारे विषय आपके चारों तरफ चक्कर मारेंगे । पर आपको उधर देखने की फुरसत नहीं होगी, यह गणित है । "मैं" के लिए यह है "यह के लिए मैं नहीं है । आप चेतन हैं आप जड़ के लिए नहीं हैं जड़ आपके लिए है, लेकिन जब तक आप अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं होते हैं, अपने वास्तविक "मैं" में खड़े नहीं होते हैं तब तक विषयों से लेकर पीछा नहीं छूटेगा । जैसे परछाई को पकड़ने के लिए दौड़िए वह आगे आगे भागती चली जाती है, पर मुख दूसरी ओर करके दौड़ना शुरु कर दीजिये तो परछाई आपके पीछे पीछे दौड़ेगी । यह गणित है जगत का । इसलिये कहा सर्वात्मत्व प्रकट हो जाता है, तो महाविभूति आप में प्रकट होती है । एक घर छोड़ देते हैं तो सभी घर आपके हो जाते हैं, एक शरीर का अभिमान छोड़ देते हैं तो सभी शरीरों का वैभव आपका हो जाता है इस महाविभूति के लिए इस स्तोत्र से साधना नहीं किया उसने । तत्त्व को जानने के लिए स्तोत्र की साधना की । पर सर्वात्मत्व उसमें प्रकट हो गया, महाविभूति आ गई उसमें । उस उसका प्रयोग कर न करे ।

                   हमने बताया भरद्वाज पर्णकुटी में में रहते हैं, कन्दमूल खाते हैं । पर उनके अंदर कैसी विभूति है ? संकल्प मात्र से महल के महल खड़े हो जाते हैं, पर क्या महल में कभी रहे ? देखो ! एक तो सिद्ध होता है वह सिद्धि का प्रयोग करता है । ज्ञानी में सब सिद्धि अपने आप रहती है पर इसकी आवश्यकता नहीं पड़ती ही नहीं । वह कोई संकल्प नहीं करता, पर यदि संकल्प हो जाये तो उसको ईश्वर भी काट नहीं सकता । ईश्वर रूप है वह, संकल्प नहीं करेगा, संकल्प कर दिया तो उसको कोई तोड़ नहीं सकता । "महाविभूति सहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः"--- वेदांत की प्रक्रिया से आप देखते हैं, निर्विशेष की अनुभूति प्राप्त होती है । आठ सिद्धियां हैं । एक का नाम अणिमा--- अणिमा सिद्धि क्या है ? अणिमा सिद्धि यह है कि अणु में भी साधक प्रवेश कर सकता है । इतनी सूक्ष्म आपकी ताकत हो गई कि आप अणु में भी प्रवेश कर सकते हैं । अणु से अणु आपका स्वरूप होगा । महिमा--- महिमा है कि आप इस ब्रह्माण्ड को व्याप्त कर सकते हैं । लघिमा है कि बड़ी से बड़ी चीज को आप साधारण फल के समान उठा लेंगे । इतनी ताकत आपके अन्दर है, इस प्रकार की सिद्धियां आपको प्राप्त हो जाती हैं । छोटी भी चीज है, आपका शरीर छोटा है, पर मशीन भी लग जाये उसे उठा नहीं सकते ।

                बंगाल में एक महात्मा थे । एक पहलवान उनके दर्शन करने गया । तो महात्मा तो महात्मा ही ठहरे, उन्होंने कहा-- ए पहलवान ! जरा कमंडल उठा ले आ । पहलवान गया कमंडल उठाने पर कमंडल उठता ही नहीं । बड़ी ताकत लगाया कमंडल नहीं उठा । बड़ा मुश्किल हो गया । कहा कि अच्छा रहने दो । इतने में एक छोटा बालक आया कहा बेटा जरा हाथ धो ले । कहा-- क्या महाराज ! कहा-- कमंडल उठा ले आ । बालक कमंडल उठा लाया । पहलवान को ऐसा झटका लगा कि वह वहां से गया ही नहीं । महात्मा ही हो गया । कहने लगा कि इतना दंड बैठक लगा करके, खा पीकर के जो ताकत अर्जित की उससे कमंडल नहीं उठा । उसमें इस प्रकार की गरिमा की सिद्धि आ जाती है ।

                 सिद्धि उसको कहते हैं कि वह ब्रह्म लोग तक का सारा प्रपंच यहीं से देख लेता है । प्राकाम्य है, आकाश गमन आदि की सिद्धि उसमें आ जाती है । प्राकाम्य को कोई कहते हैं प्राकाश्य, घोर अंधकार है तो अपने प्रकाश से सबको प्रकाशित कर देता है । ईशित्व आ जाता है, वह सूर्य को भी रोक सकता है । देखिए ! ये सिद्धियां निष्ठा में अपने आप आ जाती हैं । हम देखते हैं-- एक पतिव्रता है । ऋषि पतिव्रता के पति को शाप दे देता है-- सूर्योदय होते ही तेरा पति मर जायेगा । पतिव्रता ने कहा-- सूर्योदय होगा ही नहीं, सूर्योदय हुआ ही नहीं । ताकत आ जाती है । ईश्वरत्व जो प्राप्त है । अंत अरुंधती को आना पड़ा, समझाना पड़ा, सूर्योदय होने दो, मैं उसे जिला दूंगी और दिव्य शरीर बना दूंगी । देखो इतनी ताकत । वशित्व है-- लोकपाल इत्यादि को भी वश में कर लेना । ये सारी अष्टधापरिणत सिद्धि है । "सिद्ध्येतत्पुनरष्धा परिणतं चैश्वर्यमव्याहृतम्" उसमें अव्याहत ऐश्वर्य प्रकट हो जाता है । कहने का तात्पर्य है कि उसने अव्याहत ऐश्वर्य के लिए कोई साधना नहीं की । जगत के लिए सिद्धि के लिए कोई साधना नहीं की, परन्तु जब सर्वात्मत्व प्राप्त हो गया तब उसके साथ सारी चीजें प्राप्त होती हैं । चाहे वह उसका उपयोग करे या न करे । उपयोग क्या करेगा ? उसके लिए और कुछ है ही नहीं । उसके लिए जगत की वस्तु का कोई महत्व नहीं । जगत की सब वस्तु बाधित है मित्थ्या है । मिथ्या वस्तु की इच्छा वह क्यों करेगा । वह तो स्वरूप में प्रतिष्ठित है । पर सारी की सारी शक्ति है, जैसे ईश्वर में है । "कर्तुमकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थः" इस प्रकार की है--- ऐसे ज्ञानी महापुरुष में भी है, परन्तु ज्ञानी महापुरुष का जीवन ईश्वर संकल्प से चलता है, उसकी तो कोई कामना नहीं है कि वह संकल्प करे । ईश्वर जैसे चाहता है वैसे उसके शरीदि से होता है । ईश्वर चमत्कार दिखाना चहता है तो शरीरादि से चमत्कार निकलता है । ईश्वर जो कराना चाहता है ज्ञानी पुरुषों के शरीर से वही होता है, क्योंकि उनका कोई संकल्प ही नहीं है । वहां स्वरूप प्रतिष्ठा है । इस प्रकार वे आत्मसाम्राज्य के अधिपति होते हैं और जगत का सारा का सारा वैभव उनके लिए कोई भी महत्व नहीं रखता ।

               इस प्रकार स्तोत्र का विवेचन निर्विघ्न परमेश्वर ने कराया । जितना हुआ उतना मैने स्पष्ट रूप से रखने का प्रयास किया । ऐसे तत्त्वों के विचार के लिए जितना समय है उतना कम ही है । फिर भी हमने प्रयास किया कि मूल का तात्पर्य आपकी बुद्धि में बैठ जाये । जैसा हमको बैठा है वैसा हमने आपको भी क्षबैठाने का प्रयास किया ,बाकी शास्त्र तो अनंत है, उनका अर्थ अनंत है, उनको कौन कह सकता है कि हमने पूरा समझ लिया है, ऐसा नहीं होता है, परन्तु हमने प्रयास किया कि उसमें थोड़ा भी लाभ आपके जीवन को प्राप्त हो तो यह प्रयास सार्थक होगा, इसी विश्वास के साथ इस कथा को परमेश्वर के चरणों में अर्पित करता हूँ ।

बोलिए सच्चिदानन्द भगवान की जय
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
ॐ शान्तिः!                                        ॐशान्तिः!     ॐ शान्तिः !!!


             श्रीदक्षिणामूर्ति स्तोत्रम् मूल पाठ


ध्यानम् ——
मौनव्याख्या प्रकटित परब्रह्मतत्त्वं युवानं
वर्षिष्ठांते वसद् ऋषिगणौः आवृतं ब्रह्मनिष्ठैः ।
आचार्येन्द्रं करकलित चिन्मुद्रमानंदमूर्तिं
स्वात्मारामं मुदितवदनं दक्षिणामूर्तिमीडे ॥

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतं
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यथा निद्रया ।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयं
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥

बीजस्याऽन्तरिवाङ्कुरो जगदिदं प्राङ्गनिर्विकल्पं पुन-
र्मायाकल्पितदेशकालकलना वैचित्र्यचित्रीकृतम् ।
मायावीव विजृम्भयत्यपि महायोगीव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥२॥

यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान् ।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥३॥

नानाच्छिद्रघटोदरस्थितमहादीपप्रभा भास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा वहिः स्पन्दते ।
जानामीति तमेव भान्तमनुभात्येतत्समस्तञ्जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥४॥

देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबालान्धजडोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः ।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिणो
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥५॥

राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो मायासमाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान् ।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६॥

बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रयाभद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥७॥

विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैवपितॄपुत्राद्यात्मना भेदतः ।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥८॥

भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशु पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम् ।
नान्यत् किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभोः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥९॥

सर्वात्मत्वमिति स्फुटीकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्ध्यानाच्च संकीर्तनात् ।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतं चैश्वर्यमव्याहतम् ॥१०॥

॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं दक्षिणामुर्तिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥


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